हिन्दी उपन्यास – प्रेमचन्द और उनका युग

उपन्यास की पूर्व-परम्परा ‘उपन्यास’ गद्य का नव-विकसित रूप है जिसमें कथा-वस्तु, बरित्र-चित्रण, संवाद आदि के तत्त्वों के माध्यम से यथार्थ और कल्पना मिश्रित कहानी आकर्षक शैली में प्रस्तुत की जाती है। उपन्यास का उद्भव यूरोप में रोमांटिक कथा साहित्य में हुआ जो मूलतः भारतीय प्रेमाख्यानों से प्रेरित था। हिन्दी में उपन्यास आविर्भाव 19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में हुआ।

हिन्दी उपन्यास के युग

विकास क्रम की दृष्टि से हिन्दी उपन्यास को मुख्यतः दो युगों में बाँट सकते हैं

1. प्रारम्भिक युग

2. प्रौढ़ युग

प्रारम्भिक युग के उपन्यासों को भी मुख्यतः दो भागों में बाँट सकते हैं

1. मौलिक उपन्यास

2. अनूदित उपन्यास

मौलिक उपन्यासों के भी तीन भेद किए जा सकते हैं

1. सामाजिक उपन्यास

2. ऐतिहासिक उपन्यास

3. रोमांचक उपन्यास

प्रेमचन्द पूर्व उपन्यास

विद्वानों ने ‘कादम्बरी’ को भारत का पहला उपन्यास माना है। यथार्थवादी दृष्टिकोण एवं शैली की स्वाभाविकता की दृष्टि से ‘दशकुमारचरित’ को हम भारत का पहला सफल ‘उपन्यास’ कह सकते हैं। उपन्यास का उद्भव यूरोप में रोमाण्टिक कथा-साहित्य से हुआ जो मूलतः भारतीय प्रेमाख्यानों से प्रेरित था। रोमाण्टिक का अर्थ है जिसमें प्रेम और साहस का निरूपण हो। संस्कृत के ‘वासवदत्ता’, ‘कादम्बरी’ और ‘दशकुमारचरित’ में प्रेम, साहस और शौर्य का ही चित्रण किया गया। चौदहवीं शताब्दी के मध्य में इटली के लेखक बोकेशिया ने ‘डी केमरान’ की रचना की जो व्यंग्य और विनोद से ओत-प्रोत थी। सत्रहवीं शताब्दी में स्पेन के लेखक सरवान्ते ने ‘डॉन क्विजोट’ की रचना की।

आगे चलकर फ्रांस में रोमानी और यथार्थवादी कथा साहित्य की बहुत उन्नति हुई। दूसरी ओर सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में अनेक महत्त्वपूर्ण उपन्यासों की रचना हुई; जैसे-सर फिलिप सिडनी कृत ‘आर्केटिया’।

उपरोक्त नामावली से स्पष्ट है कि अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक यूरोप के विभिन्न भागों में उपन्यास-साहित्य का पर्याप्त विकास हो चुका था, किन्तु हिन्दी में इसका आविर्भाव उन्नीसवीं शती के अन्तिम चरण में हुआ। आधुनिकयुगीन भारतीय साहित्य में उपन्यासों का विकास अंग्रेजी साहित्य के सम्पर्क से हुआ, अतः जिन भाषा-भाषियों का अंग्रेजी से अधिक सम्पर्क था, उनमें उपन्यासों का प्रचार पहले होना स्वाभाविक था। यही कारण था कि बंगला में उपन्यासों की रचना हिन्दी से पूर्व आरम्भ हो गई थी। बंगला के अनेक उपन्यासकारों-बंकिमचन्द्र, शरत्, रवीन्द्र आदि का हिन्दी उपन्यास साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा।

हिन्दी में उपन्यास का सूत्रपात कब से हुआ, इस प्रश्न का निश्चित उत्तर देने के लिए हमें यह देखना होगा कि हिन्दी का पहला उपन्यास कौन-सा है ?

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस सम्बन्ध में अनेक परस्पर विरोधी बातें कही हैं। वे एक स्थान पर श्रद्धाराम फिल्लौरी के ‘भाग्यवती’ नाम के सामाजिक उपन्यास का रचनाकाल (1934 वि.) (1877 ई.) स्वीकार करते हैं तो आगे चलकर वे लाला श्री निवासदास के ‘परीक्षा गुरु’ को हिन्दी का पहला उपन्यास बताते हैं तथा इसके पश्चात् देवकीनन्दन खत्री को भी हिन्दी का पहला उपन्यासकार घोषित करते हैं।

इनमें से ‘रानी केतकी की कहानी’ आधुनिक उपन्यास की श्रेणी में नहीं आता तथा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का उक्त उपन्यास मौलिक न होकर मराठी से अनुदित है। ऐसी स्थिति में इन्हें पहले उपन्यास के रूप में मान्यता देना कठिन है। शेष कृतियों में से श्रद्धाराम फिल्लौरी का ‘भाग्यवती’ कालक्रमानुसार सबसे पहले आता है। अतः इसी को हम हिन्दी का पहला उपन्यास मान सकते हैं।

ठाकुर जगमोहन सिंह ने ‘श्यामास्वप्न’ नामक एक वृहत् उपन्यास की रचना 1888 ई. में की। इसका उद्देश्य राधाकृष्ण के प्रेम का चित्रण रीतिकालीन पद्धति पर करना है।

लज्जाराम मेहता ने सुधारवादी ढंग पर चार उपन्यासों की रचना की है, इसमें इन्होंने सामाजिक बुराइयों को चित्रित किया है। ये उपन्यास निम्नलिखित हैं

1. धूर्त रसिकलाल

2. स्वतन्त्र रमा और परतन्त्र लक्ष्मी

3. आदर्श हिन्दू

4. बिगड़े का सुधार

प्रेमचन्द के पूर्व उपन्यासकारों में बाबू देवकीनन्दन खत्री का नाम प्रसिद्ध है। इनके प्रसिद्ध उपन्यास निम्नलिखित हैं

1. चन्द्रकान्ता

2. चन्द्रकान्ता सन्तति

3. काजर की कोठरी

4. भूतनाथ

5. कुसुम कुमारी

6. नरेन्द्र मोहिनी

7. विरेन्द्रवीर

खत्री जी के उपन्यास पाठकों का भरपूर मनोरंजन करते हैं। इनके उपन्यास पाठकों को बाँधे रखते हैं। जासूसी उपन्यासों को लिखने की शुरुआत हिन्दी में गोपाल रामगहमरी ने की। गहमरी जी अंग्रेजी के जासूसी उपन्यासकार अर्थर-कानन डायल से बहुत प्रभावित थे। गहमरी जी के उपन्यास भी पाठकों का विशुद्ध मनोरंजन करते हैं।

गहमरी जी के उपन्यासः

1. सरकटी लाश

2. जासूस की भूल

3. जासूस पर जासूसी

4. गुप्त भेद

5. जासूस की ऐयारी।

किशोरी लाल गोस्वामी के उपन्यास

1. जिन्दे की लाश

2. तिलस्मी शीशमहल

3. याकूत तख्ती

4. लीलावती

द्विवेदी युग के उपन्यासकारों में अयोध्या सिंह उपाध्याय, लज्जा राम शर्मा, मन्नन द्विवेदी तथा राधिकारमण प्रसाद प्रमुख हैं। अयोध्या सिंह उपाध्याय ने समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार किया। उनके उपन्यास निम्नलिखित हैं

1. ठेठ हिन्दी का ठाठ।

2. अधखिला फूल।

प्रेमचन्द और उनका युग

हिन्दी उपन्यास में नए युग का प्रवर्तन मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यास ‘सेवा सदन’ के प्रकाशन काल (1918 ई.) से होता है जिसे प्रौढ़ युग की संज्ञा दी गई है। हिन्दी में प्रेमचन्द जी का पहला उपन्यास सेवा सदन था जो 1918 ई. में प्रकाशित हुआ। इससे पूर्व भी उनके कई उपन्यास प्रेमा, वरदान आदि भी प्रकाशित हो चुके थे किन्तु वे उर्दू में थे इसलिए उनका सेवा सदन युगान्तकारी सिद्ध होता है।

स्वाभाविकता, कथोपकथन, देश-काल, शैली, उद्देश्य आदि अन्त्य औपन्यासिक तत्त्वों के क्षेत्र में प्रेमचन्द जी के द्वारा क्रान्ति हुई। उनमें अपेक्षाकृत अधिक सजीवता एवं उच्चता का संचार हुआ। उन्होंने सस्ते मनोरंजन के स्थान पर अपने युग व समाज की ज्वलन्त समस्याओं को अपनी कला का लक्ष्य बनाया। यही कारण है कि उनके प्रत्येक उपन्यास में किसी-न-किसी सामयिक समस्या का चित्रण मार्मिक रूप में हुआ है; जैसे- सेवा सदन में वेश्याओं की, प्रेमाश्रय में किसानों की, निर्मला में दहेज और बेमेल विवाह की, रंगभूमि में शासक और अधिकारी वर्ग के अत्याचारों की, कायाकल्प में पारलौकिक जीवन की, गबन में मध्यवर्ग की आर्थिक विषमता की, कर्मभूमि में अछूतोद्धार एवं हरिजनों की और गोदान में किसान मजदूर के शोषण व त्रासदी का मार्मिक वर्णन है।

मुंशी प्रेमचन्द जी का अन्तिम उपन्यास मंगलसूत्र है जोकि अपूर्ण है। इस उपन्यास में मुंशी जी ने आधुनिक साहित्यकार के जीवन की समस्याएँ प्रस्तुत करने का प्रयास किया था। मुंशी जी ने अपने अधिकांश उपन्यासों में समस्याओं के साथ-साथ समाधान प्रस्तुत करने का भी प्रयास किया है।

प्रारम्भ में उनका सत्य, अहिंसा, प्रेम आदि तत्त्वों से अनुप्रमाणित तथा हृदय परिवर्तन द्वारा होने वाली सामाजिक क्रान्ति में विश्वास था, इसलिए ‘सेवासदन’, ‘रंगभूमि’, ‘प्रेमाश्रय’, ‘कर्मभूमि’ आदि में उन्होंने इसी क्रान्ति का निदर्शन किया है। वस्तुतः प्रेमचन्द जी आदशोंन्मुखी लेखक थे जिन्होंने अपने देश की प्रायः सभी समस्याओं का चित्रण ईमानदारी से किया है। उनकी कृतियों में उनका युग साकार हो गया है। मुंशी जी समय से भी आगे चलने वाले लेखक थे। उन्होंने भारतीय जनता के प्रत्येक वर्ग के हृदय की थाह ली है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी लिखते हैं कि “अगर आप भारत की समस्त जनता के आचार-विचार, भाषा-भाव, रहन-सहन, आशा-आकांक्षा, दुःख-सुख व सूझ-बूझ को जानना चाहते हैं तो प्रेमचन्द से उत्तम परिचायक कोई मिल नहीं सकता। झोंपड़ियों से लेकर महलों तक, खोंमचे वालों से लेकर बैंकों तक, गाँव से लेकर धारा सभाओं तक, आपको इतने कौशलपूर्वक और प्रामाणिक भाव से कोई नहीं ले सकता। आप बेखटक प्रेमचन्द का हाथ पकड़कर मेड़ों पर गाते हुए किसान को, अन्तःपुर में भान किए प्रियतमा को, कोठे पर बैठी हुई वारवनिता को, रोटियों के लिए ललकते हुए भिखमंगों को, ईर्ष्या परायण प्रोफेसरों को, ढोंगी पण्डितों को, फरेबी पटवारियों को, नीचाषय अमीरों को देख सकते हैं और निश्चित होकर विश्वास कर सकते हैं कि जो आपने देखा वह कुछ भी गलत नहीं।”

आदर्शपरक सामाजिक उपन्यासों को आगे बढ़ाने में कुछ अन्य लेखक भी, हैं; जैसे- चण्डीप्रसाद ‘हृदयेश’, विशम्भरनाथ शर्मा कौशिक, अवधनारायण, श्रीनाथ सिंह, प्रतापनारायण श्रीवास्तव, सियारामशरण गुप्त, गुरुदत्त, डॉ. सत्यप्रकाश सेगर, कुमारी कंचनलता आदि। चण्डीप्रसाद कृत ‘मनोरमा’ व ‘मंगल प्रभात’ में आदर्श प्रेम, सतीत्व सेवा, त्याग, आत्मशुद्धि आदि की व्यंजना भावात्मक शैली में की है। विशम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ ने ‘माँ’, ‘भिखारिणी’ और संघर्ष में नारी की विशालता, माँ की ममता, आदर्श प्रेम आदि तत्त्वों का चित्रण मार्मिक ढंग से किया है।

प्रतापनारायण श्रीवास्तव के द्वारा लिखे हुए उपन्यास

  • विदा
  • विश्वमुखी
  • विजय
  • वेदना
  • विकास
  • विश्वास की वेदी पर
  • बयालीस
  • वंचना
  • बेकसी कामचोर
  • विनाश के बादल
  • विसर्जन

‘बेकसी का इन्तजार’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है। उपरोक्त शेष सभी उपन्यास सामाजिक वर्ग में आते हैं। श्रीवास्तव जी ने अपने उपन्यासों में मुख्यतः उच्च वर्ग के आधुनिक जीवन का चित्रण करते हुए दिखाया है कि किस प्रकार आज हम भारतीय सभ्यता व संस्कृति को भूलकर पाश्चात्य सभ्यता कक अन्धानुकरण में लगे हुए हैं। साथ ही उन्होंने आधुनिक भारत की अनेक सामाजिक, साम्प्रदायिक एवं राजनीतिक समस्याओं का समाधान गाँधीवादी तरीके से प्रस्तुत किया है। इनके उपन्यास ‘विश्वास की वेदी पर’ से पता चलता है कि ये राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति बहुत जागरूक थे। इस उपन्यास में लेखक ने भारत-चीनी संघर्ष की कथा को वास्तविक घटना के घटित होने से दो वर्ष पहले ही प्रस्तुत कर दिया था।

भारतीय संस्कृति के अन्य उपन्यासकारों में गुरुदत्त ने अपने उपन्यासों में भारतीयता के आदर्शों तथा राष्ट्रीय जीवन की विभिन्न समस्याओं का चित्रण प्रस्तुत किया है।

इनके मुख्य उपन्यास निम्नलिखित हैं

1. स्वाधीनता के पथ पर

2. पथिक

3. स्वराज्य दान

4. भावुकता का मूल्य

5. बहती रेता

6. देश की हत्या

7. उमड़ी घटा

सियारामशरण गुप्त ने ‘गोद’, ‘अन्तिम आकांक्षा’, ‘नगरी’ तथा मोहनलाल महतों ने ‘भाई-बहन’, ‘पथ-विपथ’, ‘विसर्जन’ आदि में भारतीय जीवन के विभिन्न पक्षों विशेषतः पारिवारिक जीवन का चित्रण अत्यन्त सरल व रोचक शैली में किया है। कुमारी कंचनलता सब्बरवाल ने ‘मूल तपस्वी’, ‘संकलन त्रिवेणी’, ‘भटकती आत्मा’ में मानसिक द्वन्द्व का विश्लेषण करते हुए उच्च नैतिक तत्त्वों; जैसे- प्रेम, त्याग, संयम आदि की व्याख्या प्रस्तुत की है।

डॉ. सत्यप्रकाश सेंगर ने अब तक कुल पाँच उपन्यास लिखे हैं

1. बरगद की छाया

2. कली मुसकाई

3. चाँद रानी

4. घर की आन

5. मंजिल से दूर

डॉ. सेंगर ने इनमें आधुनिक शिक्षित समाज की विभिन्न मनोवृत्तियों एवं प्रवृत्तियों का चित्रण करके दिखाया है कि आज हमारा समाज किस प्रकार क्रमशः पाखण्ड, आडम्बर, मिथ्या, प्रदर्शन एवं अनैतिकता की ओर अग्रसर हो रहा है। सेंगर जी यथार्थ की बुराइयों के निराकरण के लिए व्यंग्य का सहारा लेते है। वस्तुतः स्वातन्त्रयोत्तर भारत की विभिन्न समस्याओं, योजनाओं व प्रवृत्तियों की व्यंग्यात्मक आलोचना प्रस्तुत करने की दृषिट से डॉ. सेंगर का इस क्षेत्र में विशिष्ट स्थान है।

स्वातन्त्रयोत्तर हिन्दी उपन्यासों में आँचलिक उपन्यास एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। आँचलिक उपन्यासों में प्रवाह कम गतिशील होता है। इनका उद्देश्य आँचल विशेष के वातावरण की विशिष्टता का चित्रण होता है। आँचलिक कृतियों की प्रकृति, भाषा, रीति-रिवाज सब मिलकर अपने आप में ही उद्देश्य बन जाते हैं। उनका आत्मीय विवरण ही ऐसा रंगीन हो जाता है कि यथार्थवाद विषमता ओझल हो जाती है। ऐतिहासिक विकास अपेक्षाकृत महत्त्वहीन हो उठता है। सभी आँचलिक उपन्यासों के बारे यह कथन लागू नहीं होता परन्तु सर्वाधिक प्रसिद्ध और चर्चित उपन्यास फणीश्वरनाथ रेणु का ‘मैला आँचल’ है। मैला आँचल का कथा क्षेत्र बिहार का ‘पूर्णिया’ जिला है। एक ओर उस पर पड़ता हुआ नई स्थितियों का दबाव और दूसरी ओर परम्परा का मोह। इस तालमेल से दोनों की विशेषता निखर उठती है। शताब्दियों से एकरस जीवन पर नए युग की पहली चोट बहुत मार्मिक हो उठी है। इस आँचलिकता में दारुण यथार्थ है।

इसके अतिरिक्त रेणुजी का एक अन्य उपन्यास ‘परती परिकथा’ है। रेणु के अतिरिक्त नागार्जुन के उपन्यास रतिनाथ की चाची, बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, दुखमोचन, वरुण के बेटे आदि हैं। उदयशंकर कृत सागर लहरें और मनुष्य, रांगेय राघव कृत कब तक पुकारू आदि हैं। राही मासूम रजा कृत-आधा गाँव, शिवप्रसाद सिंह कृत अलग-अलग बैतरणी, राजेन्द्र अवस्थी कृत-जंगल के फूल, विवेक राय कृत-बबूल, रामदरश मिश्र कृत पानी के प्राचीर, हिमांशु श्रीवास्तव कृत ‘रथ के पहिए’ आदि ग्रामीण परिवेश को आधार बनाकर लिखे गए उपन्यास हैं। इन सभी उपन्यासों में आधुनिकीकरण के कारण बदलते ग्रामीण समाज का चित्र प्रस्तुत किया गया है।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री एक प्रतिभा सम्पन्न उपन्यासकार थे। उन्होंने सामाजिक समस्याओं का उद्घाटन करने वाले उपन्यास भी लिखे हैं; जैसे- वयं रक्षम्, सोमनाथ, आलमगीर, अमर अभिलाषा, मन्दिर की नर्तकी, वैशाली की नगरवधू, रक्त की प्यास, नरमेध, अपराजिता, आत्मदाह, दो किनारे, पूर्णाहुति, खग्रास, आभा, दादा, आकाश की छाया में, धर्मराज, मोती, शुभदा, देवांगना, गोली, नीली माटी, हृदय की परख आदि।

पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ के उपन्यास

पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ जी के उपन्यास इस प्रकार हैं

‘चन्द हसीनों के खतूत’, ‘घण्टा’, ‘दिल्ली का दलाल’, ‘बथुआ की बेटी’, ‘शराबी’, ‘सरकार तुम्हारी आँखों में’, ‘जीजी जी’, ‘कला का पुरस्कार’, ‘मनुष्यानन्द’, ‘कढ़ी में कोयला’, ‘फागुन के दिन चार’

‘उग्र’ जी ने इनमें समाज के विभिन्न कुत्सित, वीभत्स, एवं भयंकर रूपों का उ‌द्घाटन नग्न एवं घृणित रूप में किया है। उन्होंने सभ्य समाज की भीतरी दुर्बलताओं, अनीतियों और घृणित प्रवृत्तियों का चित्रण आवेगपूर्ण एवं धड़ल्लेदार शैली में किया है।

ऋषभचरण जैन ने भी बीस से अधिक उपन्यास लिखे हैं, जिनमें समाज की वास्तविकता का प्रदर्शन नग्न रूप में हुआ है। उनके उपन्यासों में ‘मास्टर साहिब’, ‘वेश्यापुत्र’, ‘सत्याग्रह’, ‘चम्पाकली’, ‘दिल्ली का व्यभिचार’ उल्लेखनीय हैं। सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने काव्य की भाँति उपन्यास साहित्य को भी अनेक सशक्त रचनाएँ प्रदान की हैं- ‘अप्सरा’, ‘अलका’, ‘निरूपमा’, ‘प्रभावती’ आदि। इन्होंने आधुनिक समाज की विभिन्न परिस्थितियों का अंकन यथार्थपूर्ण तथा व्यंग्यात्मक शैली में किया है। उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ का पहला उपन्यास ‘सितारों का खेल’ 1937 ई. में प्रकाशित हुआ था। इसके अनन्तर उनके अनेक उपन्यास प्रकाशित हुए हैं, जिनमें ‘गिरती दीवारें’, ‘गरम राख’, ‘बड़ी-बड़ी आँखें’, ‘शहर में घूमता आइना, ‘बाँधों न नाव इस ठाँव आदि उल्लेखनीय हैं।

समाज की जीवन रीति, स्वभाव-संस्कार, विचार पद्धति, विभिन्न पारिवारिक एवं सामाजिक बुराइयों, उसकी आन्तरिक कुण्ठाओं एवं दमित इच्छाओं का चित्रण अत्यन्त स्वाभाविक एवं मार्मिक शैली में किया है। वे किसी मत-वाद से ग्रस्त नहीं है, अपितु जीवन के यथार्थ रूप को सहज प्रेरणा से प्रस्तुत करते हैं। पात्रों के चरित्र चित्रण की सूक्ष्मता, वातावरण की सजीवता, शैली की मर्म-स्पर्शिता एवं व्यंजकता आदि उनके साहित्य की अतिरिक्त विशेषताएँ हैं। यज्ञदत्त शर्मा ने अपने ‘दो पहलू’, ‘इन्सान’, ‘अन्तिम चरण’, ‘बदलती राहें’ आदि उपन्यासों में भारत की विभिन्न राजनीतिक घटनाओं, राष्ट्रीय समस्याओं एवं योजनाओं का अंकन स्वाभाविक रूप में किया है। 1947 ई. के बाद से राजनीतिक वातावरण के अंकन में इन्हें विशेष सफलता मिली है। अमृतलाल नागर ने अपने ‘महाकाल’, ‘सेठ बॉकेमल’, ‘बूँद और समुद्र’, ‘शतरंज के मोहरें’, ‘ये कोठे वालियाँ’, ‘सुहाग के नूपुर’ आदि में सामाजिक यथार्थ का चित्रण सन्तुलित एवं तटस्थ दृष्टि से किया है। उन्होंने व्यक्ति और समाज दोनों को समान महत्त्व देते हुए दोनों के अन्तर का उ‌द्घाटन किया है।

उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति ‘बूँद और समुद्र’ समझी जाती है जिसमें एक साहित्यकार के जीवन का द्वन्द्व एवं संघर्ष कुशलता से चित्रित किया गया है।

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