द्विवेदी युग को हिंदी साहित्य के जागरण और सुधार काल के रूप में जाना जाता है। इस युग का नामकरण प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर हुआ। यह काल भारतीय इतिहास में ब्रिटिश शासन के दमन और कूटनीति से प्रभावित था, जहाँ साहित्य दो धाराओं में विकसित हुआ— अनुशासनवादी और स्वच्छंदतावादी। अनुशासनवादी धारा साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर केंद्रित थी, जबकि स्वच्छंदतावादी धारा में मानवीय और प्राकृतिक चित्रण को अधिक महत्व दिया गया।
भारतेन्दु युगीन काव्य की विशेषताएँ
भारतेन्दु युग हिंदी साहित्य के पुनर्जागरण का युग था, जिसमें काव्य की प्रवृत्तियाँ परंपरा और नवीनता के संगम से प्रभावित रहीं। इस युग के कवियों ने भक्तिकाल और रीतिकाल की परंपरा से प्रेरणा ली, लेकिन साथ ही समकालीन सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के प्रति भी जागरूकता प्रदर्शित की।
राष्ट्रीयता
भारतेन्दु युग के कवियों ने देशप्रेम और स्वाधीनता की भावना को प्रमुखता दी। उन्होंने अंग्रेजों के शोषण और भारतीय संस्कृति पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को अपनी कविताओं में उजागर किया। भारतेन्दु हरिश्चंद्र की विजयिनी विजय वैजयन्ती, प्रतापनारायण मिश्र की महापर्व, प्रेमघन की आनंद अरुणोदय जैसी कविताएँ देशभक्ति से ओतप्रोत थीं। भारतेन्दु जी ने अपने एक प्रसिद्ध दोहे में ब्रिटिश शासन के छिपे हुए अत्याचारों को इस प्रकार व्यक्त किया:
“भीतर-भीतर सब रस चूसै, हँसि हँसि के तन मन धन मूसै।
जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन नहिं अंग्रेज।।”
सामाजिक चेतना
इस युग में कवियों ने सामाजिक सुधार की ओर भी विशेष ध्यान दिया। नारी शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह, छुआछूत, और समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरोध में कविताएँ लिखी गईं। भारतेन्दु जी के भारत-दुर्दशा नाटक में वर्णाश्रम धर्म की संकीर्णता पर कटाक्ष किया गया। प्रतापनारायण मिश्र की मन की लहर कविता में बाल-विधवाओं की करुण स्थिति को चित्रित किया गया:
“कौन करेजो नहि कसकत, सुनि विपति बालविधवन की।”
आर्थिक जागरूकता
भारतेन्दु युग के कवियों ने स्वदेशी आंदोलन का समर्थन किया और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का संदेश दिया। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने प्रबोधिनी शीर्षक कविता में स्वदेशी उद्योगों के समर्थन पर बल दिया, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जा सके।
भक्ति और श्रृंगार काव्य
भारतेन्दु युग के कवियों ने भक्ति और श्रृंगार रस की परंपरा को भी आगे बढ़ाया। हरिनाथ पाठक की श्री ललित रामायण, अक्षय कुमार की रसिक विलास रामायण, और बाबू तोताराम की राम-रामायण भक्ति भावना से प्रेरित काव्य ग्रंथ थे। श्रृंगार रस में भी इस युग में उल्लेखनीय काव्य रचनाएँ हुईं।
भारतेन्दु युग का काव्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं था, बल्कि इसने राष्ट्रीय जागरण, सामाजिक सुधार और सांस्कृतिक पुनर्जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रतापनारायण मिश्र के अतिरिक्त प्रायः सभी मुख्य कवि श्रृंगार वर्णन की ओर उन्मुख रहे हैं। भारतेन्दु ने ‘प्रेम-सरोवर’, ‘प्रेम-माधुरी’, ‘प्रेम तरंग’, ‘प्रेम फुलवारी’ आदि में भक्ति, श्रृंगार और विशुद्ध श्रृंगार दोनों का समावेश किया है।
प्रेमघन की ‘युगल मंगल स्त्रोत’ तथा वर्षा-बिन्दु भी इसी तरह की रचनाएँ हैं। सौन्दर्य, प्रेम और विरह की व्यंजना में कहीं-कहीं ये दोनों ही कवि उर्दू काव्य-शैली से भी प्रभावित हुए हैं, किन्तु नखशिख और नायिका भेद पर परम्परित शैली में काव्यरचना शैली से भी प्रभावित हुए हैं, किन्तु नखशिख और नायिका भेद पर परम्परित शैली में काव्य रचना आयात को भारत की आर्थिक दुर्गति का मूल कारण माना गया है। भारतेन्दु और प्रतापनारायण मिश्र ने समाज की पीड़ा को क्रमशः इन शब्दों में व्यक्त किया है
(अ)
रोबहू सब मिलि, आवहु भारत भाई।
हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाई।।
(आ)
तनहि लख्यों जहं रक्षो एक दिन कंचन बरसत ।
तहं चौथाई जन रूखी रोटिंहु को तरसत ।।
जहं आमन की गुठली अरू विरछत वी छालें।
ज्वार चून मंह मेलि लोग परिवारहिं पालें।।
नौन तेल लकरी घासहु पर टिकस लगे जहं।
चना चिरौंजी मोल मिलें जहं दीन प्रजा कहं।।
भक्ति – भावना
निर्गुण-भक्ति इस काल की मुख्य साधना दिशा नहीं थी। फलस्वरूप कुछ कवियों के प्रभावस्वरूप संसार की नश्वरता, माया-मोह की व्यर्थता विषयासक्ति की निन्दा आदि विषयों पर जो उपदेशात्मक ढंग से विचार व्यक्त किए हैं, किन्तु ब्रह्म-चिन्तन और हठयोग जैसे विषयों पर तो उपदेशात्मक ढंग से विचार व्यक्त किए हैं किन्तु जब ब्रह्म चिन्तन और हठयोग जैसे विषयों पर काव्य रचना उन्हें अभीष्ट नहीं रही। इसके विपरीत वैष्णव भक्ति के अन्तर्गत राम, कृष्ण और अन्य देवी-देवताओं का वर्णन अनेक कवियों का साध्य रहा।
ऋतु-सौन्दर्य के स्थान पर कवियों ने ऋतु विशेष में नायक-नायिका की मनोदशाओं के वर्णन में अधिक रुचि ली है।
भारतेन्दु ने ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक में गंगा वर्णन में और ‘चन्द्रावली’ नाटिका में यमुना-वर्णन किया तो है, किन्तु अलंकार-भार के कारण इनमें इनकी स्वतन्त्रता अनुभूति की क्षमता बहुत कुछ दब-सी गई है।
हास्य-व्यंग्य
भारतेन्दु युग में हास्य-व्यंग्यात्मक कविताओं की भी प्रचुर परिमाण में रचना हुई। कवियों ने विषय और शैली की दृष्टि से अनेक नए प्रयोग किए। इस दिशा में भारतेन्दु का योगदान सर्वाधिक है। अपने नाटकों के प्रगीतों में कहीं-कहीं शिष्ट हास्य को स्थान देने के अतिरिक्त उन्होंने व्यंग्यगीतियों और मुकरियों की भी रचना की है। उनकी व्यंग्यगीतियों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
पैरोड़ी, स्यापा और गाली। ‘नए जमाने की मुकरी’ शीर्षक से उन्होंने समकालीन सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों को ले कर कुछ मनोहारिणी मुकरियों की भी रचना की है, जिन पर अमीर खुसरो की शैली की इन्होंने नहीं की।
भारतेन्दु के बाद इस क्षेत्र में ठाकुर जगमोहन सिंह ही विशेषतः उल्लेखनीय हैं, यों ‘बेनी द्विज, गोविन्द गिल्लाभाई, हनुमान, गोप, दिवाकर भट्ट, रामकृष्ण वर्मा, बलवीर’ प्रभृति कुछ अन्य कवियों ने भी श्रृंगार रस के मनोहारी कवित्त सवैयों की रचना की है।
अम्बिकादत्त व्यास की ‘पावस पचासा’ भी इसी युग की रचना है किन्तु प्रेम का जैसा निश्छल, सरस और रागात्मक वर्णन जगमोहन सिंह ने किया है, वैसा भारतेन्दु के यहाँ भी सर्वत्र सुलभ नहीं है। उदाहरणस्वरूप, ‘प्रेमसम्पत्तिलता’ से एक सवैया देखिए
अब यों उर आवत है सजनी, मिलि जाऊँ गरे लगि कै छतियाँ।
मन की हरि भाँति अनेकन औ मिलि कीजिय री रस की बतियाँ।
हम हारि अरी करि कोटि उपाय, लिखी बहु नेह भरी पत्तियाँ।
जगमोहन मोहनी मूरति के बिना कैसे करें दुख की रतियाँ।।
प्रकृति-चित्रण
प्राकृतिक सौन्दर्य का स्वच्छन्द वर्णन भारतेन्दुयुगीन कविता की अंगभूत विशेषता है, किन्तु अधिकतर कवियों ने परम्परा निर्वाह ही किया है।
भारतेन्दु-कृत ‘बसन्त होली’, अम्बिकादत्त दास की ‘पावस-पचासा’।
गोविन्द गिल्लाभाई की ‘षड्ऋतु’ और ‘पावस-पयोनिधि’ आदि कृतियों में बसन्त ऋतु और वर्षाकाल का आलम्बनात्मक चित्रण विरल है।
मुँह जब लागै तब नहिं छूटे, जाति मान धन सब कुछ लूटे।
पागल करि मोहिं करे खराब, क्यों सखि साज्जन? नहीं सराब ।।
‘प्रेमघन-सर्वस्व’ का ‘हास्य-बिन्दु’ शीर्षक प्रकरण समसामयिक स्थितियों के विनोदपूर्ण वर्णन और तज्जनित उद्बोधन की दृष्टि से ध्यान आकृष्ट करता है। प्रतापनारायण मिश्र की ‘तृप्यन्ताम्’, ‘हरगंगा’, ‘बुढ़ापा’ और ‘ककाराष्टक’ शीर्षक कविताएँ भी अपनी नई तर्ज के लिए प्रसिद्ध हैं।
अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त नवयुवकों द्वारा भारतीय नीति-रीति को त्यागकर पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करने पर उन्होंने अत्यन्त मार्मिक व्यंग्य किया हैः
जग जानै इंगलिश हर्में, वाणी वस्त्रहिं जोय।
मिटै बदन कर श्याम रंग-जन्म सुफल तब होय ।।
निष्कर्ष
द्विवेदी युग हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी काल था, जिसने भाषा, साहित्य और समाज में नवजागरण की चेतना को जागृत किया। महावीर प्रसाद द्विवेदी के नेतृत्व में यह युग साहित्यिक अनुशासन, भाषा के मानकीकरण और सामाजिक उपयोगिता के लिए समर्पित रहा। इस युग ने केवल साहित्य के स्वरूप को ही नहीं बदला, बल्कि साहित्यकारों को राष्ट्रीय और सामाजिक चेतना से जोड़ने का कार्य भी किया। राष्ट्रप्रेम, नैतिक उत्तरदायित्व, सामाजिक सुधार और भाषा की सुसंगठित अभिव्यक्ति इस युग की प्रमुख विशेषताएँ थीं। द्विवेदी युग ने हिंदी साहित्य को आधुनिकता की दिशा में अग्रसर करते हुए एक ठोस आधार प्रदान किया, जिस पर आगे चलकर छायावाद और अन्य साहित्यिक धाराएँ विकसित हुईं।
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