भारतेन्दु युग हिंदी साहित्य के पुनर्जागरण का प्रतीक है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के रचनाकाल को ध्यान में रखते हुए संवत् 1925 से 1950 की अवधि को हिंदी साहित्य की नई धारा या प्रथम उत्थान की संज्ञा दी है। इस युग में हिंदी भाषा और साहित्य ने अभूतपूर्व विकास किया और सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नेतृत्व में इस काल में साहित्यकारों ने समाज को जागरूक करने और राष्ट्रीय चेतना को सशक्त बनाने का कार्य किया।
भारतेन्दु युग की समयावधि
विभिन्न विद्वानों ने भारतेन्दु युग की अलग-अलग अवधि बताई है:
- मिश्र बन्धुओं के अनुसार: 1926-1945
- डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार: 1927-1957
- डॉ. केसरी नारायण शुक्ल के अनुसार: 1922-1957
- डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार: 1925-1957
भारतेन्दु द्वारा संपादित मासिक पत्रिका ‘कविवचन सुधा’ 1868 ई. में प्रकाशित हुई थी। इसलिए, भारतेन्दु युग का प्रारंभ 1868 ई. (1925 संवत्) से माना जाता है। भारतेन्दु का रचनाकाल 1850 से 1885 तक रहा, और हिंदी साहित्य में उनके योगदान के कारण 1850 से 1900 तक की अवधि को भारतेन्दु युग कहना उचित होगा।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र: गद्य साहित्य के जनक
भारतेन्दु हरिश्चंद्र को हिंदी गद्य का जनक कहा जाता है। उन्होंने न केवल हिंदी गद्य को परिष्कृत किया, बल्कि ब्रजभाषा को भी सुसंस्कृत रूप दिया। उनके साहित्य में राष्ट्रीयता, समाज सुधार और देशभक्ति की भावना स्पष्ट रूप से झलकती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उनके योगदान को रेखांकित करते हुए कहा:
“हमारे जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद बढ़ रहा था, उसे भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने दूर किया। उन्होंने साहित्य को नए विषयों की ओर प्रवृत्त किया।”
भारतेन्दु मंडल और प्रमुख साहित्यकार
भारतेन्दु हरिश्चंद्र के प्रभाव से साहित्यकारों का एक समूह बना, जिसे ‘भारतेन्दु मंडल’ कहा जाता है। इस मंडल के प्रमुख साहित्यकार थे:
- बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’
- प्रतापनारायण मिश्र
- राधाचरण गोस्वामी
- राधाकृष्ण दास
- अंबिकादत्त व्यास
- बालमुकुंद गुप्त
प्रमुख कवियों की रचनाएँ और योगदान
बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’
इन्होंने ‘युगल स्रोत’, ‘पितर प्रताप’, ‘भारत बधाई’, ‘स्वागत सभा’ जैसी महत्वपूर्ण कविताएँ लिखीं, जो ‘प्रेमघन सर्वस्व’ में संकलित हैं। उनकी कविताएँ तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों को प्रतिबिंबित करती हैं।
प्रतापनारायण मिश्र
प्रतापनारायण मिश्र हास्य-व्यंग्य, समाज सुधार और देशभक्ति की कविताओं के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं:
- प्रेम पुष्पावली
- मन को लहर
- श्रृंगार विलास
- दीवाने
- रसखान शतक
इन्होंने अंग्रेजों की नीतियों और भारतीयों की मानसिकता पर व्यंग्य किया:
“जन जानै इंगलिश हमें, वाणी वस्त्रर्हि जोय।”
बालमुकुंद गुप्त
बालमुकुंद गुप्त ने किसानों की दयनीय स्थिति और आर्थिक विषमता पर कविताएँ लिखीं:
“जिनके कारण सब सुख पावें, जिनका बोया सब जन खाँय। हाय हाय उनके बालक नित भूखों के मारे चिल्लायें।”
प्रतापनारायण मिश्र
ब्राह्मण सम्पादक प्रतापनारायण मिश्र (1856-1894 ई.) का जन्म बैजेगाँव, जिला उन्नाव में हुआ था। पिता के कानपुर चले जाने के कारण उनकी शिक्षा-दीक्षा वहीं हुई। ज्योतिष का पैतृक व्यवसाय न अपनाकर वे साहित्य रचना की ओर प्रवृत्त हुए। कविता, निबन्ध और नाटक उनके मुख्य रचना क्षेत्र थे।
‘प्रेमपुष्पावली’, ‘मन की लहर’, ‘लोकोक्ति शतक’, ‘तृप्यन्ताम्’ और ‘श्रृंगार-विलास’ उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। ‘प्रताप लहरी’ उनकी प्रतिनिधि कविताओं का संकलन है। किन्तु भक्ति और प्रेम की तुलना में समसामयिक देश-दशा और राजनीति चेतना का वर्णन उन्होंने मनोयोग से किया है।
पढि कमाय कीन्हीं कहा, हरे न देश कलेस
जैसे कन्ता घर रहे, तैसे रहे विदेश
वे भावुक कवि थे और अभिव्यंजना पक्ष में उनका बल व्यावहारिकता पर अधिक था। काव्य रचना के लिए उन्होंने मुख्यतः ब्रजभाषा को ही अपनाया है, खड़ी बोली से उन्हें लगाव नहीं था।
जगमोहन सिंह
ठाकुर जगमोहन सिंह मध्य प्रदेश की विजय राघवगढ़ रियासत के राजकुमार थे। उन्होंने काशी में संस्कृत और अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त की। वहाँ रहते हुए उनका भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से सम्पर्क हुआ, किन्तु भारतेन्दु की रचना शैली की उन पर वैसी छाप नहीं मिलती जैसी प्रेमघन और प्रतापनारायण मिश्र के कृतित्व में लक्षित होती है। प्रेमसम्पत्तिलता (1885), श्यामालता (1885), श्यामा-सरोजनी (1886) और देवयानी (1886), ‘श्यामास्वप्न’ शीर्षक उपन्यास में भी उन्होंने प्रसंगवश कुछ कविताओं का समावेश किया है।
‘ऋतुसंहार’ और ‘मेघदूत’ भी ब्रजभाषा की सरल कृतियाँ हैं।
अम्बिकादत्त व्यास
कविवर दुर्गादत्त व्यास के पुत्र अम्बिकादत्त व्यास (1858-1900 ई.) काशी के निवासी सुकवि थे। भाषाओं में वे संस्कृत और हिन्दी के अच्छे विद्वान् थे और दोनों साहित्य-रचना करते थे। ‘पीयूष प्रवाह’ के सम्पादक के रूप में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। उनकी कृतियों में ‘पावस पचासा’ (1886), ‘सुकवि-सतसई’ (1887) और ‘हो हो होरी’ उल्लेखनीय हैं। इनकी रचना ललित ब्रजभाषा में हुई है। ‘बिहारी-बिहार’ उनकी एक अन्य प्रसिद्ध रचना है, जिसमें महाकवि बिहारी के दोहों का कुण्डलिया छन्द में भाव विस्तार किया गया है। उनके द्वारा लिखित समस्या पूर्तियाँ भी उपलब्ध होती हैं।
राधाकृष्ण दास
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के फुफेरे भाई राधाकृष्ण दास बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कविता के अतिरिक्त उन्होंने नाटक, उपन्यास और आलोचना के क्षेत्रों में भी उल्लेखनीय साहित्य रचना की है। ‘भारत-बारहमासा’ और ‘देश-दशा’ समसामयिक भारत के विषय में उनकी प्रसिद्ध कविताएँ हैं। राधाकृष्ण दास की कुछ कविताएँ ‘राधाकृष्ण-ग्रन्थावली’ में संकलित हैं।
निष्कर्ष
भारतेन्दु युग हिंदी साहित्य के नवजागरण का काल था। इस युग में साहित्य ने समाज, राजनीति और राष्ट्रवाद को जागरूक करने का कार्य किया। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने गद्य और काव्य दोनों में नए प्रयोग किए, जिनका प्रभाव आगामी पीढ़ियों तक बना रहा। उनके नेतृत्व में बने ‘भारतेन्दु मंडल’ ने हिंदी साहित्य को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया और साहित्य को व्यापक सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनाया।
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