महावीर प्रसाद द्विवेदी : द्विवेदी युग और द्विवेदीयुगीन काव्यगत विशेषताएँ

महावीर प्रसाद द्विवेदी और द्विवेदी युग

द्विवेदी युग के प्रवर्तक कवि महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म 1864 ई. में रायबरेली के दौलतपुर नामक ग्राम में हुआ। इन्हीं के नाम पर द्विवेदी युग का नामकरण हुआ। 1903 ई. में ये सरस्वती पत्रिका के सम्पादक बने, 1920 ई. तक इस पत्रिका के सम्पादक बने रहे। गद्य लेखन के क्षेत्र में भी इन्होंने विशेष सफलता प्राप्त की। इनके लिखे हुए व अनुदित गद्य-पद्य ग्रन्थों की संख्या लगभग, 80 है। काव्य भाषा के रूप में इन्होंने खड़ी बोली को अपनाया।

महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की रचनाएँ

1. काव्यमूंजूषा

3. कान्यकुब्ज

2. सुमन

4. अबला विलाप

5. गंगालहरी

6. ऋतुतरंगिणी

7. कुमार सम्भवसार (अनुदित)

द्विवेदीयुगीन काव्यगत विशेषताएँ

द्विवदी युग में गद्य और पद्य दोनों रचनाएँ रची गई, दोनों की भाषा के रूप में खड़ी बोली का विकास। पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा के प्रति समन्वयकारी दृष्टि अपनाई जिससे खड़ी बोली समृद्ध हो पाई।

औपनिवेशिक सत्ता ने हिन्दी की शैलियों को लेकर जो भ्रम उत्पन्न किया या उससे भाषा कमजोर पड़ रही थी। हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा तथा हिन्दुस्तानी को मुसलमानों की भाषा साबित करके उन्होंने अपनी भेदपरक दृष्टि का परिचय दिया था। फोर्ट विलियम कॉलेज और गिलक्राइस्ट महोदय के द्वारा खड़ी बोली के विकास के आरम्भिक कार्यों में इस प्रकार के भेद स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहे थे।

यही भेद आगे चलकर राजा शिव प्रसाद सितारे हिन्द और राजा लक्ष्मण प्रसाद के प्रयासों में भी बना रहा। भारतेन्दु युग में खड़ी हिन्दी को लेकर समन्वय की कोशिश तो की गई परन्तु हिन्दी और उर्दू का झगड़ा समाप्त नहीं हुआ। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कामता प्रसाद गुरु को आधार बनाते हुए एक तरफ भाषा को व्याकरणिक एक रूपता देने की कोशिश की, दूसरी तरफ हिन्दी या बड़ी बोली के विकास के लिए आत्मसातीकरण और समन्वयवादी दृष्टिकोण का परिचय दिया। उन्होंने तत्सम, तद्भव के सरल शब्दों के साथ-साथ विदेशज अति प्रचलित और आम प्रयोग के शब्दों को जोड़ते हुए भाषा कि एक ऐसी शैलो तैयार की जो सबसे लिए सहज हो तथा आस्वाद्य हो।

गद्य और पद्य के मिश्रण से यहाँ चम्पूकाव्य का विकास। पद्य रचनाओं में प्रबन्ध और मुक्तक शैलियों का प्रयोग। प्रबन्ध की ही दोनों धाराओं (महाकाव्य खण्डकाव्य) का प्रयोग। यशोधरा, प्रियप्रवास जैसी रचनाएँ यदि महाकाव्यात्मक रही, तो जयद्रथवध, पंचवटी, मिलन, पथिक, स्वरज जैसी रचनाएँ खण्डकाव्य।

द्विवेदी युग का नामकरण आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के गरिमा मण्डित व्यक्तित्व को केन्द्र में रखकर किया गया। उन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका का सम्पादन कर हिन्दी जगत की महान् सेवा की। इन्होंने हिन्दी साहित्य जगत को दिशा व दशा देने में अपूर्व योगदान किया।

नवजागरण की लहर को जनमानस तक पहुँचाने में इस पत्रिका ने उल्लेखनीय कार्य किया। सरस्वती पत्रिका का प्रकाशन 1900 ई. से शुरू हुआ 1903 ई. में द्विवेदी जी इस पत्रिका के सम्पादक बने। डॉ. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी’ और ‘हिन्दी नवजागरण’ में सरस्वती पत्रिका से उदाहरण देकर इन्होंने इस बात की पुष्टि की है।

द्विवेदी जी से प्रेरणा लेकर मैथिलीशरण गुप्त, गोपालशरण सिंह, गयाप्रसाद शुक्ल स्नेही आदि आगे बढ़े। द्विवेदी जी की प्रेरणा से मैथिलीशरण गुप्त जी ने ‘साकेत’ नामक महाकाव्य की रचना की। खड़ी बोली के प्रचार-प्रसार में सरस्वती पत्रिका ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। द्विवेदी जी के भाषा परिष्कार पर शुक्ल जी लिखते हैं कि ‘खड़ी बोली के पद्य विधान पर द्विवेदी जी का पूरा-पूरा असर पड़ा। बहुत से कवियों की भाषा शिथिल और अव्यवस्थित होती थी। द्विवेदी जी ऐसे कवियों की भेजी हुई कविताओं की भाषा आदि दुरुस्त करके सरस्वती में छापते थे। द्विवेदी जी के अनुकरण में कवि शुद्ध भाषा लिखने लगे।’

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