कविवर बिहारी के जीवन परिचय , भाषा शैली और काव्य कला || bihari ke jeevan parichay bhaṣa shailee aur kavyakal

कविवर बिहारी के जीवन परिचय

 महाकवि बिहारी का जन्म संवत १६६० में ग्वालियर के समीप बसुआ गोविन्दपुर में हुआ था। आप मथुरा के चौबे थे। इनकी बाल्यावस्था अधिकतर बुन्देलखण्ड में बीती | तरुणावस्था में ये अपनी ससुराल चले आए। श्री राधाकृष्णदास ने इन्हें कविवर केशवदास का पुत्र स्वीकार किया है किन्तु सतसई में कुछ बुन्देलखण्डी शब्दों के प्रयोग से तथा केशव केशवराय से यह बात सिद्ध नहीं होती । मथुरा से ये तत्कालीन जयपुर नरेश महाराजा जयसिंह के पास चले आये वहाँ इन्होंने महाराज के प्रमोद के लिए सतसई की रचना की।

 बिहारी स्वतन्त्र स्वभाव के कवि थे। राजा-महाराजाओं को प्रसन्न करना ही इनका एकमात्र ध्येय नहीं था । कहते हैं कि जिस समय ये जयपुर पहुंचे तो उस समय महाराज अपनी छोटी रानी के प्रेम में इतने लौन थे कि राज-काज की उन्हें सुध न थी। उन तक जाने की किसी को आज्ञा नहीं थी। सामन्तों की सलाह से बिहारी ने निम्न दोहा लिखकर किसी प्रकार महाराज के पास भीतर भिजवाया

नहिं पराग, नहि मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल ।

अली, कली ही सी बन्ध्यों, आगे कौन हवाल ॥

 इस दोहे को पढ़कर महाराज बाहर निकले। तभी से बिहारी का सम्मान होने लगा। महाराज ने इसी प्रकार के दोहे रचनेकी आज्ञा दी तथा प्रति दोहा एक अशरफी देने का वचन दिया। इस प्रकार सात सौ तेरह दोहे रचे गये जो सतसई में संकलित हैं। इनके द्वारा रचित यही एक रचना उपलब्ध हुई है।

 श्रृंगार रस के दोहों में बिहारी सतसई को जितना आदर मिला है उतना अन्य ए किसी ग्रन्थ को नहीं। इसका एक-एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक रत्न माना जाता है। इसकी कई टीकाएँ रची गयीं जिसमें चार-पाँच अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस प्रकार बिहारी सम्बन्धी एक अलग साहित्य ही खड़ा हो गया है। बिहारी सतसई को एक प्रामाणिक टीका ब्रजभाषा के अन्यतम कवि स्वर्गीय बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर ने 7 बिहारी रत्नाकर के नाम से निकाली जो साहित्य जिज्ञासुओं की प्रत्येक समस्या का समाधान करती है तथा विश्वविद्यालयों की उच्चतम परीक्षाओं में पाठ्यक्रम में निर्धारित न की गई है। जितना श्रम इस ग्रन्थ के सम्पादन में व्यय हुआ है उतना आज तक हिन्दी  के किसी और अन्य ग्रन्थ पर नहीं हुआ ।

कविवर बिहारी की काव्य कला

 बिहारी ने सतसई के अतिरिक्त और कोई ग्रन्थ नहीं लिखा । इससे  यही ग्रन्थ उनकी स्थायी कीर्ति का आधार है। इससे यही परिणाम निकलता है कि  किसी कवि का यश साहित्य के परिमाण के आधार पर नहीं होता, उसके गुण पर निर्भर करता है। मुक्तक कविता में जो गुण होने चाहिए वे बिहारी के दोहों में प्रचुर  मात्रा में विद्यमान हैं। मुक्तक में कथा प्रसंग पर आधारित रस धारा के लिए स्थान नहीं, इसमें तो कवि एक प्रभाव थोड़े से शब्दों में उत्पन्न करता है जिससे पाठक या श्रोता की हृदय कलिका खिल उठती है और वह वाह! कहने लगता है। इसमें कोई

रमणीय खण्ड-दृश्य इस प्रकार सामने प्रस्तुत कर दिया जाता है कि पाठक कुछ क्षणों के लिए मन्त्र मुख्य सा हो जाता है। अतः इसके लिए कवि में कल्पना की समाहार शक्ति तथा भाषा की समास शक्ति जितनी ही अधिक होगी, उतना ही वह मुक्तक रचना में सफल होगा। यह गुण बिहारी में पूर्णरूप से विद्यमान वेतभी तो वह अपने दोहों में इतनी सरसता भर सके ।

 बिहारी सतसई में भाव-व्यंजना, रस व्यंजना तथा वस्तु-व्यंजना सभी को उचित वैचित्र्य के दर्शन होते हैं, पर इस विधान में भी इनकी कल्पना की मधुरता झलकती है। एक उदाहरण देखिए:

बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय । 

सौह करे, भौहें हँसै  , देन कहै नाटि जाय । 

 बिहारी ने शुद्ध काव्य के अतिरिक्त कुछ सूक्तियाँ भी कहीं हैं जिनमें कई नीति सम्बन्धी है

 बिहारी अधिकांश दोहे आर्या सप्तशती तथा गाथा सप्तशती पर आधारित हैं। किन्तु कहीं-कहीं बिहारी ने गृहीत भावों को अपनी प्रतिभा के बल से एक स्वतन्त्र और सुन्दर रूप ही दिया है ।

कविवर बिहारी की भाषा शैली

बिहारी की भाषा चलताऊ होनेपर भी साहित्यिक है। इनकी रचना व्यवस्थित है। शब्दों के रूप एक निश्चित प्रणाली पर है। बिहारी ने भाषाका कहीं पर भी अंग भंग नहीं किया। कवि जो कुछ कहना चाहता है, जो शब्द-चित्र पाठकों के सामने प्रस्तुत करना चाहा है उसके लिए उसकी भाषा पूर्णतः समर्थ है। पाठक को न अपनी ओर से कुछ जोड़ना पड़ता है और न ही कुछ अनुमान करना पड़ता है। चित्र अपने आप ही प्रस्तुत हो जाता है।

 बिहारी ने गागर में सागर भरा है। इस उक्ति की सार्थकता प्रमाणिता इस प्रकार है 

बिहारी जी समास पद्धति की सारी कला भली भाँति जानते थे। थोड़े में बहुत कुछ कहने की शक्ति इनकी भाषा में थी। इनमें वह शक्ति थी कि ये किसी भाव को व्यक्त करने के लिए समुचित उपकरणों को जुटा सकते थे।

बिहारी के काव्य शिल्प की सबसे बड़ी विशेषता उनकी समाज पद्धति है। ‘सतसई’ के दोहों के विषय में यह उक्ति प्रसिद्ध है-

‘सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर।

देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर ।।

बिहारी की यह विशेषता है कि बिहारी ने दोहा जैसे छोटे छन्द में प्रचुर भाव सामग्री भर दी है। बिहारी ने इसी समास-पद्धति की सफलता के लिए दोहा जैसे छोटे छन्द को ग्रहण किया है। दोहा छन्द में स्वयं ही एक विशेष कौशल भरा है। दोहा सबसे छोटा संक्षिप्त छन्द है और संक्षिप्तता को प्रतिभा का प्राण कहा गया है। ‘Brevity is the Soul of wit’ दोहे में सामासिकता होती है, इसी को ध्यान में रखकर बिहारीलाल जी ने दोहे को अपने काव्य के लिए चुना है। नेत्रों की भाव भंगिमा के जिस गम्भीर प्रभाव की व्यंजना सुन्दरदास ने कई पंक्तियों के पद के माध्यम से की है, उसी भाव व्यंजना को उससे भी अधिक मार्मिकता एवं प्रभावपूर्ण शैली में बिहारी केवल दो पंक्तियों के दोहे में व्यक्त कर देते हैं-

कहा लड़ैते दृग करें, परे लाल बेहाल।

कहुँ मुरली कहुँ पीत पटु, कहूँ मुकुट वनमाल ।।

यह बिहारीलाल की कुशलता है कि अन्य कवि जिस बात को आठ पंक्तियों तथा १२० शब्दों के माध्यम से कह पाता है, उसी बात को और अधिक श्रेष्ठता से बिहारीलाल केवल दो पंक्तियों तथा १५ शब्दों में कह देते हैं।

बिहारी की अलंकार योजना की विशेषता

बिहारी का अलंकार विधान अत्यन्त समृद्ध एवं विशाल है। कदाचित ही कोई ऐसा अलंकार शेष रहा हो जिसका भेदोपभेद सहित बिहारी ने प्रयोग न किया है। उनके शब्दालंकार केवल चमत्कारी नहीं हैं उनमें अर्थ की ध्वन्यात्मकता भी है।

रस सिंगार मंजनु किग, कंजनु भंजनु दैन ।

अंजन रंजन हू बिना, खंजनु गंजनु नैन।

बिहारी श्लेष, विरोधाभास और असंगति के प्रयोग में अधिक दक्ष प्रतीत होते हैं। जहाँ भाव प्रेरित उक्तियाँ अधिक प्रभावी हैं।

बिहारी की नीति संबंधी दोहों पर चर्चा

बिहारी के नीति संबंधी दोहों में बिहारी के विशद जीवनाभुव और बहुज्ञता का प्रमाण है । बिहारी ने जीवन के विभिन्न पक्षों, उत्तार-चढाव के संबंध में भी मार्मिक सूक्तियाँ कही है । नीति संबंधी दोहों में जिन्दगी के वे आनन्द और विषादपूर्ण अनुभव व्यक्त हुए हैं ।

बिहारी के प्रकृति चित्रण

बिहारी के मन में प्रकृति सौंदर्य के प्रति कोई ममत्व नहीं, फिरभी दो चार वसन्त, ग्रीष्म या तापस से सम्बद्ध अच्छे दोहे लिखे हैं। जैसेह्र भौरे रूपी घंटे बज रहे हैं और मकरन्द रूपी गज मद झर रहा है। कुंज-समीर-रूपी हाथी मंद मंद चला आ रहा है ।

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