हिंदी साहित्य के भक्तिकाल (संवत् 1375-1700) में भक्ति आंदोलन दो प्रमुख धाराओं में प्रवाहित हुआ—राम भक्ति और कृष्ण भक्ति। इन दोनों धाराओं को केंद्र में रखकर विपुल साहित्य की रचना की गई। राम भक्ति धारा के प्रमुख कवि गोस्वामी तुलसीदास थे, जबकि कृष्ण भक्ति धारा में कई महान कवियों ने काव्य सृजन किया। इनमें सूरदास और अष्टछाप के अन्य कवि अग्रणी स्थान रखते हैं।
काव्य के क्षेत्र में कृष्ण भक्ति साहित्य अधिक लोकप्रिय हुआ। कृष्ण-भक्त कवियों की सरस वाणी ने मानो जगमोहन की बांसुरी की मधुर ध्वनि को समस्त दिशाओं में गुंजायमान कर दिया, जिसकी मधुरिमा से समस्त उत्तर भारत भक्ति-भाव में झूम उठा।
इस संदर्भ में डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का यह कथन उल्लेखनीय है:
“श्रीकृष्ण भक्ति का साहित्य मनुष्य की सरसता को जागृत करता है, उसे निरंतर रससिक्त बनाए रखता है। यह प्रेम साधना एकांतिक होती है, जो अपने भक्त को सांसारिक द्वंद्व और कर्तव्यों से हटाकर भगवान के अनन्य प्रेम की शरण में ले जाती है।”
यह कथन दर्शाता है कि कृष्ण भक्ति साहित्य केवल धार्मिक साधना तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उसने भारतीय समाज और संस्कृति पर भी गहरा प्रभाव डाला।
कृष्ण-काव्य (कृष्णभक्ति काव्यधारा) :
कृष्णभक्ति-शाखा के प्रवर्तक स्वामी वल्लभाचार्य हैं। इस शाखा के सभी कवियों ने श्री कृष्ण के बाल और किशोर जीवन की अनेक लीलाओं का चित्रण किया है। इसके साथ ही गोपियों के साथ की गयी क्रीड़ाओं में श्रृंगार रस की प्रधानता है। इस प्रकार श्री कृष्ण के लीला रूप को आधार मानकर जिस काव्य की रचना की गई उसे कृष्णभक्ति काव्यधारा का नाम दिया गया है।
कृष्णभक्ति काव्यधारा में ‘अष्टछाप’ के प्रसिद्ध प्रमुख कवियों के नाम निम्नलिखित हैं- (1) सूरदास, (2) नन्ददास, (3) परमानन्द, (4) कुम्भनदास, (5) चतुर्भुजदास, (6) गोविन्दस्वामी, (7) कृष्णदास, (8) छीतस्वामी।
कृष्ण-भक्ति काव्यधारा के प्रमुख कवियों के नाम निम्नलिखित हैं- (1) रसखान, (2) मीराबाई, (3) स्वामी हरिदास, (4) स्वामी हितहरिवंश, (5) ध्रुवदास, (6) नागरी दास, (7) वृन्दावनदास और नरोत्तमदास हैं।
मीराबाई का जीवन परिचय
मीराबाई का जन्म सन 1498 में राजस्थान के कुडकी ग्राम में हुआ था। उनके पिता रत्नसिंह और दादा राव दूदा थे। बचपन में ही माता के निधन के कारण उनका पालन-पोषण उनके दादा ने किया, जो स्वयं श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। उनकी भक्ति का प्रभाव मीरा पर भी पड़ा, और वे बाल्यकाल से ही कृष्ण भक्ति में लीन हो गईं।
मीराबाई का विवाह और भक्ति की ओर प्रवृत्ति
सन 1516 में मीराबाई का विवाह राणा साँगा के पुत्र भोजराज से हुआ। हालांकि, विवाह के कुछ वर्षों बाद ही उनके पति का निधन हो गया। इसके पश्चात उनके पिता और श्वसुर का भी देहांत हो गया। इस वैधव्य और संसार से उत्पन्न निराशा ने मीराबाई को पूरी तरह से श्रीकृष्ण की भक्ति में समर्पित कर दिया।
“भाई छोयो, बन्धु छोयो, छोयो सगा सोई,
साधुन संग बैठ-बैठ लोकलाज खोई।”
मीरा पर अत्याचार और वृंदावन गमन
मीराबाई के देवर राणा ने उन्हें राजघराने की परंपराओं के अनुसार चलने की चेतावनी दी, परंतु मीरा ने कृष्ण भक्ति का मार्ग नहीं छोड़ा। उन्हें अनेक अत्याचारों का सामना करना पड़ा, किंतु हर बार ईश्वर की कृपा से वे बच निकलीं। अंततः मीरा ने वृंदावन का रुख किया और विभिन्न तीर्थों की यात्रा की। उनके भजन देशभर में प्रसिद्ध हो गए और भक्तजन उन्हें गाने लगे।
मीराबाई का निधन
मीराबाई के अंतिम दिन द्वारका में बीते। कहा जाता है कि सन 1545 में रणछोड़जी के मंदिर में भजन गाते-गाते उन्होंने श्रीकृष्ण में लीन होकर देह त्याग दिया।
मीराबाई की प्रमुख रचनाएँ
मीराबाई ने कई भक्ति पदों और ग्रंथों की रचना की। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं:
✔ गीतगोविंद की टीका
✔ नरसीजी का माहरा
✔ फुटकर पद
✔ राग सोरठ पद संग्रह
✔ राग गोविंद
मीराबाई की काव्यगत विशेषताएँ
1. भक्ति रस से ओतप्रोत रचनाएँ
मीरा की कविता में भक्ति भावना सर्वोपरि है। उन्होंने अपने हृदय की गहरी भावनाओं को श्रीकृष्ण की आराधना में पिरो दिया।
2. श्रृंगार और आध्यात्म का समन्वय
मीरा की कविताओं में श्रृंगार रस का अद्भुत समन्वय है, लेकिन उसमें वासना की जगह आध्यात्मिकता और भक्ति का संयम देखने को मिलता है।
3. आत्मनिष्ठ भावनाओं की प्रधानता
मीरा के पद भावनाओं के गहन प्रवाह से भरे हुए हैं। वे आत्मसमर्पण की भावना को गीति-काव्य के माध्यम से प्रकट करती हैं।
4. सहज भाषा और संगीतात्मकता
मीरा की कविताओं में सरल, सहज और मधुर भाषा का प्रयोग हुआ है। उनके पदों को राग-रागिनियों के साथ गाया जाता है, जिससे वे संगीतात्मक बन जाते हैं।
“रैन अंधेरी विरह घेरी, तारा गिनत निस जात।
लै कटारी कंठ चीरूँ, करूँगी अपघात।।”
5. स्वाभाविक अलंकार प्रयोग
मीरा की रचनाओं में अलंकारों का सहज प्रयोग देखने को मिलता है, जो उनकी कविताओं को और अधिक प्रभावशाली बनाते हैं।
मीराबाई की भाषा शैली
मीराबाई की भाषा में एकरूपता नहीं है, वरन् उसके कुछ पद गुजराती भाषा में हैं और कुछ शुद्ध ब्रजभाषा में, शेष राजस्थानी भाषा में विरचित हैं जिनमें ब्रजभाषा की भी छाया है। मीरा का जीवन अनेक स्थानों में व्यतीत हुआ, इसीलिए उसकी कविताओं पर उन स्थानों की भाषा का प्रभाव पड़ना जरूरी था। उसकी रचनाओं में ब्रजभाषा के पद अधिक है, लेकिन उन पर राजस्थानी प्रभाव है। शुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग भी मीरा की कविता में पाते हैं जो पिछले खेवे के कवियों के लिए एक प्रतिमान (Standard) माना जा सकता है।
मीराबाई के पद
1. बिरहिनी बावरी सी भई।
ऊँची चढ़ि अपने भवन में टेरत हाथ दई।
ले अंचरा मुख अंसुवन पोंछत उघरे गात सही
मीरा के प्रभु गिरधर नागर विछुरत कछु न कही।
2. बसो मेरे नैनन में नन्दलाल ।
मोहिनी मूरति साँवरी सूरति नैना बने रसाल।।
निष्कर्ष
मीराबाई हिंदी साहित्य की अमर भक्त कवयित्री हैं। उनका जीवन संघर्ष और भक्ति का अद्भुत संगम है। उनकी कविताएँ आध्यात्मिक प्रेम, आत्मसमर्पण और कृष्ण भक्ति का अद्वितीय उदाहरण हैं। उनके पद आज भी संगीत, भक्ति और साहित्य जगत में अमर हैं। मीराबाई का काव्य साहित्य श्रृंगार, भक्ति और संगीतात्मकता का अद्भुत संगम है, जो उन्हें हिंदी साहित्य के भक्ति काल का एक अनमोल रत्न बनाता है।