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कविवर बिहारी के जीवन परिचय-भाषा शैली और काव्य कला

by Sushant Sunyani
कविवर बिहारी के जीवन परिचय-भाषा शैली और काव्य कला

महाकवि बिहारी का जन्म संवत 1660 में ग्वालियर के समीप बसुआ गोविंदपुर में हुआ था। वे मथुरा के चौबे थे और उनका बचपन बुंदेलखंड में बीता। विवाह के पश्चात वे अपनी ससुराल चले गए। विद्वान श्री राधाकृष्णदास ने उन्हें कविवर केशवदास का पुत्र माना है, लेकिन इसकी पुष्टि नहीं होती।

बिहारी मथुरा से जयपुर नरेश महाराजा जयसिंह के दरबार में पहुंचे, जहां उन्होंने सतसई की रचना की। उनकी रचनाएँ महाराज को इतनी प्रिय थीं कि उन्हें प्रति दोहा एक अशर्फी देने का वचन दिया गया।

बिहारी और उनके काव्य का प्रभाव

बिहारी अपनी स्वतंत्र प्रवृत्ति और प्रभावशाली काव्यशैली के लिए प्रसिद्ध थे। एक प्रसिद्ध घटना के अनुसार, जब महाराजा जयसिंह अपनी छोटी रानी के प्रेम में इतना मग्न थे कि राज्य के कार्यों की उपेक्षा करने लगे, तब बिहारी ने यह दोहा भिजवाया—

“नहिं पराग, नहि मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।
अली, कली ही सी बन्ध्यों, आगे कौन हवाल॥”

इस दोहे ने राजा को प्रभावित किया, और इसके बाद बिहारी को सम्मान मिलने लगा। उन्होंने 713 दोहों की रचना की, जो बिहारी सतसई के रूप में संकलित है।

बिहारी सतसई का साहित्यिक महत्व

बिहारी सतसई हिंदी साहित्य की एक अमूल्य कृति है, जिसे श्रृंगार रस के सर्वश्रेष्ठ दोहों के लिए प्रसिद्धि मिली। इसके दोहे इतने प्रभावशाली हैं कि यह ग्रंथ हिंदी साहित्य में रत्न समान माना जाता है। इसकी कई टीकाएँ लिखी गईं, जिनमें से बिहारी रत्नाकर (स्व. बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर द्वारा) अत्यंत प्रसिद्ध है।

बिहारी की काव्य कला और विशेषताएँ

  • बिहारी ने सिर्फ सतसई की रचना की, लेकिन यह एकमात्र ग्रंथ ही उन्हें अमर कर गया।
  • उनकी मुक्तक कविता में शब्दों की प्रभावशाली समास शक्ति और भाव व्यंजना की मधुरता देखने को मिलती है।
  • उनके दोहे भाव-व्यंजना, रस-व्यंजना, और वस्तु-व्यंजना के दृष्टिकोण से अनुपम हैं।

उदाहरण:
“बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सौह करे, भौंहें हँसै, देन कहै नाटि जाय॥”

कविवर बिहारी की भाषा शैली

महाकवि बिहारी की भाषा शैली अत्यंत प्रभावशाली और साहित्यिक होते हुए भी सहज व प्रवाहमयी है। उनकी रचनाएँ स्पष्ट, संगठित और एक निश्चित प्रणाली के अनुरूप हैं। बिहारी ने अपने शब्दों का अत्यंत कुशलता से चयन किया, जिससे उनके दोहे संक्षिप्त होते हुए भी अर्थपूर्ण और चित्रात्मक बन जाते हैं। पाठकों को न तो कोई अतिरिक्त कल्पना करनी पड़ती है और न ही किसी शब्द की व्याख्या की आवश्यकता होती है—हर दृश्य स्वतः स्पष्ट हो जाता है।

बिहारी की भाषा की एक और बड़ी विशेषता उनकी समास-पद्धति (संक्षिप्तता में व्यापकता) है। उन्होंने अल्प शब्दों में गहन भावनाएँ समेटने की कला में दक्षता प्राप्त की थी, जिसे निम्न दोहे से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है:

“सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर।
देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर।।”

यह दोहा दर्शाता है कि बिहारी ने अल्प शब्दों में ही गंभीर और प्रभावशाली विचारों को व्यक्त करने की अद्वितीय क्षमता हासिल की थी।

बिहारी की अलंकार योजना की विशेषता

बिहारी के काव्य में अलंकारों का कुशल प्रयोग देखा जाता है। वे अपने दोहों में शब्द और अर्थ की ध्वनि से गूंजने वाली सुंदरता को बनाए रखते हैं। उनके काव्य में अनुप्रास, उपमा, रूपक, श्लेष, विरोधाभास और असंगति जैसे अलंकारों का प्रभावशाली प्रयोग मिलता है। उदाहरणस्वरूप, यह दोहा देखें:

“रस सिंगार मंजनु किग, कंजनु भंजनु दैन।
अंजन रंजन हू बिना, खंजनु गंजनु नैन।”

इसमें शब्दों का चमत्कारी संयोजन और ध्वन्यात्मकता देखने को मिलती है, जो बिहारी की अलंकार योजना की विशेषता को दर्शाता है।

बिहारी के नीति संबंधी दोहे

बिहारी केवल श्रृंगार रस के ही कवि नहीं थे, बल्कि उनके नीति संबंधी दोहे भी अद्वितीय हैं। उन्होंने जीवन के विभिन्न पक्षों, अनुभवों, संघर्षों और यथार्थ का गहन अध्ययन किया था, जिसे उनके नीति-प्रधान दोहों में देखा जा सकता है। उनके नीति-वचन जीवन के उतार-चढ़ाव और व्यवहारिक बुद्धिमत्ता का परिचय देते हैं। बिहारी के नीति संबंधी दोहे जीवन के अनमोल सबक प्रदान करते हैं, जो आज भी प्रासंगिक हैं।

बिहारी के प्रकृति चित्रण की विशेषता

यद्यपि बिहारी का मुख्य रुझान श्रृंगार रस की ओर था, फिर भी उन्होंने प्रकृति के मनोहारी दृश्य प्रस्तुत करने में भी कुशलता दिखाई है। वे प्रकृति को अत्यधिक सजीवता के साथ चित्रित करते थे, जिससे उनके दोहे दृश्यात्मक और अनुभूति-संपन्न बन जाते थे। उदाहरण के लिए, वसंत ऋतु पर यह दोहा देखें:

“भौरे रूपी घंटे बज रहे हैं और मकरंद रूपी गज मद झर रहा है।
कुंज-समीर-रूपी हाथी मंद-मंद चला आ रहा है।”

यह दोहा प्रकृति की सुंदरता और उसकी गतिशीलता को अत्यंत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करता है।

निष्कर्ष

बिहारी की काव्य-कला, उनकी भाषा शैली, समास-पद्धति, अलंकार योजना और प्रकृति चित्रण सभी पहलुओं में अद्वितीय है। उनका साहित्यिक योगदान हिंदी साहित्य के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। विशेष रूप से उनकी ‘सतसई’ को जो सम्मान प्राप्त हुआ है, वह अन्य किसी मुक्तक काव्य संग्रह को नहीं मिला। उनकी रचनाएँ कालजयी हैं और आज भी साहित्य प्रेमियों एवं शोधार्थियों के लिए प्रेरणास्रोत बनी हुई हैं। बिहारी का काव्य न केवल भावनात्मक अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है, बल्कि यह संक्षिप्तता में गहनता की मिसाल भी है।

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