भारतेन्दु युग
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के रचनाकाल को दृष्टि में रखकर संवत् 1925 से 1950 की अवधि को नई धारा या प्रथम उत्थान की संज्ञा दी।
भारतेन्दु युग की व्याप्ति
- मिश्रबन्धुओं ने 1926-1945 विं तक
- डॉ. रामकुमार वर्मा 1927-1957 विं तक
- डॉ. केसरी नारायण शुक्ल 1922-1957 विं तक
- डॉ. रामविलास शर्मा 1925-1957 विं तक भारन्तेवु युग की व्याप्ति मानी है।
उल्लेखनीय है कि भारतेन्दु द्वारा सम्पादित मासिक पत्रिका ‘कविवचन सुधा’ का प्रकाशन 1868 ई. में आरम्भ हुआ। अतः भारतेन्दु युग का उदय 1868 ई. (1925विं) से मानना उचित है।
भारतेन्दु जी का रचनाकाल 1850 से 1885 तक रहा है। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती का प्रकाशन 1903 में सम्भाला था। सरस्वती पत्रिका का प्रकाशन 1900 ई. से शुरू हुआ अतः 1850 से 1900 ई. तक की अवधि को भारतेन्दु युग कहना समीचीन है।
भारतेन्दु जी को सही मायने में गद्य का जनक कहा जा सकता है। उन्होंने गद्य की भाषा का संस्कार तो किया ही ब्रजभाषा को भी सुसंस्कृत किया। भारतेन्दु युग में खड़ी बोली व ब्रजभाषा अत्यधिक प्रसिद्ध रही।
इनकी रचनाओं में देशहित की भावना का समावेश हुआ है।
आचार्य शुक्ल जी भारतेन्दु के उल्लेखनीय योगदान पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि “हमारे जीवन व साहित्य के बीच जो विच्छेद बढ़ रहा था, उसे उन्होंने दूर किया। हमारे साहित्य को नए-नए विषयों की ओर प्रवृत्त करने वाले हरिश्चन्द्र ही हुए।”
भारतेंदु युग के प्रमुख कवि और रचनाएँ bhartendu yug ke pramukh kavi aur rachnayen
भारतेन्दु मण्डल के कवि
भारतेन्दु जी के प्रभाव से उनके युग में साहित्यकारों का एक ऐसा मण्डल तैयार हो गया था जिसने ‘राज्य’ विषयवस्तु भाव व शैली की दृष्टि से भारतेन्दु का अनुकरण अनुसरण किया। इसी मण्डल को भारतेन्दु मण्डल कहते हैं। इसके अन्तर्गत प्रमुख लेखक कवि निम्नलिखित हैं
- बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’
- प्रतापनारायण मिश्र
- राधाचरण गोस्वामी
- राधाकृष्णदास
- अम्बिकादत्त व्यास,
- बालमुकुन्द गुप्त आदि।
बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ ने युगल स्रोत, पितर प्रताप, भारत बधाई, स्वागत सभा आदि कविताएँ लिखी। ये सारी कविताएँ ‘प्रेमघन सर्वस्व’ में संकलित हैं। इन्होंने भारतेन्दु के आदर्शों का पूर्ण अनुसरण करते हुए उन सभी प्रवृत्तियों को अपनाया है, जो भारतेन्दु जी के काव्य में मिलती हैं। उदाहरण-
छहरे मुखपै घनश्याम से केश, इतै सिर मोर पखा फहरै।
जग नायकै चेरी बनाय लियो, अरी वाह री वाह अहीरनी तू।
निरधन दिन-दिन होत हैं भारत भुव सब भौति
ताहि बचाई न रोऊ सकत निज भुज बुधि बलकान्ति ।
प्रेमधन जी कविता लिखते समय तयुगीन परिस्थितियों का पूरा ख्याल रखते थे। राजनीति में ये बहुत रुचि रखते थे। आचार्य शुक्ल जी इनके सम्बन्ध में लिखते हैं “देश की दशा को सुधारने के लिए जो राजनीतिक या धर्म सम्बन आन्दोलन चलते रहे, उन्हें ये बड़ी उत्कण्ठा से परखा करते थे जब कहीं कुछ सफलता दिखाई देती, तब अपने लेखों व कविताओं से खुशी प्रकट करते”।
प्रतापनारायण मिश्र मूलतः विनोदी प्रकृति के थे। कविता के क्षेत्र में इन्होंने प्रणय व्यंजना समाज सुधार, देशभक्ति, हास्य विनोद आदि की प्रवृत्तियों का परिचय दिया है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं प्रेम पुष्पावली, मन को लहर, श्रृंगार विलास, दैगल खण्ड, बैडला स्वागत, संगीत शाकुन्तल, दीवाने, बरहमन, रसखान शतक, लोकोक्ति शतक आदि।
भारतीयों की दास वृत्ति व अंग्रेजों की कूटनीति पर भी इन्होंने स्थान-स्थान पर व्यंग्य किए हैं;
जन जानै इंगलिश हमें, वाणी वस्त्रर्हि जोय।
मिटै बदन कर श्याम रंग, जन्म सफल तब होय।।
निज हमारी लातै सहै, हिन्दू सब धन खोय।
खुलै इंगलिश पालिसी, जन्म सफल तब होय ।।
मिश्र जी की शैली सरल, सरस व रोचक थी। इन्होंने जनता के लिए लिखा था इसलिए इनकी बोली व ढंग जनता के अनुकूल थी। इनकी हरगंगा, तृप्तन्ताम् बुढ़ापा आदि कविताएँ हास्य व्यंग्य का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है। कविता के अतिरिक्त इन्होंने गद्य साहित्य में चमत्कार दिखाया है।
सबहु लिए जात अंगरेज, हम केवल ल्यक्चर के तेज।
श्रम बिन बाते का करती है, कहूँ टेटकन गाजें टरती है।
बालमुकुन्द गुप्त रचनाकाल की दृष्टि से भारतेन्दु मण्डल के अन्तिम कवियों में से हैं। काव्य में ये भारतेन्दु को छोड़कर अन्य सबसे अधिक सशक्त एवं प्रभावशाली सिद्ध होते हैं।
किसानों की दुर्दशा एवं धनियों की निष्ठुरता का निरूपण इनकी कुछ कविताओं में मार्मिक रूप में मिलता है।
जिनके कारण सब सुख पावें जिनका बोया सब जन खाँय।
हाय हाय उनके बालक नित भूखों के मारे चिल्लायें
हे धनियों क्या दीन जनों की नहिं सुनते हो हाहाकार,
जिसका मरे पड़ोसी भूखा उसके भोजन को धिक्कार।
हे बाबा जो यह बेचारे भूखों प्राण गवाएँगे,
तब कहिए क्या धनी गलाकर अशर्फियाँ जी जाएँगे।
उपरोक्त दोनों दोहों में शुक्ल जी ने आर्थिक विषमता का उल्लेख किया है। वे धनी वर्ग का हृदय परिवर्तन करना चाहते हैं। राष्ट्र की आर्थिक स्वतन्त्रता के लिए ये स्वदेशी आन्दोलन के समर्थक हैं। यथा
मारफीन मलमल बिना चलत कछू नहि काम।
परदेसी जुलहान के मानहुँ भए गुलाम ।।
बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’
भारतेन्दु-मण्डल के कवियों में प्रेमघन (1855-1923 ई.) का प्रमुख स्थान है। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के जिला मिर्जापुर के एक सम्पन्न ब्राह्मणकुल में हुआ था। भारतेन्दु की भाँति उन्होंने भी पद्य और गद्य दोनों में विपुल साहित्य-रचना की है। साप्ताहिक ‘नगरी-नीरद’ और मासिक ‘आनन्द कादम्बिनी’ में सम्पादन द्वारा उन्होंने तत्कालीन पत्रकारिता को भी नई दिशा दी है। ‘अन्न’ नाम से उन्होंने उर्दू में कुछ कविताएँ लिखी हैं।
‘जीर्ण जनपद’, ‘आनन्द अरुणोदय’, ‘हार्दिक हर्षादर्श’, ‘मयंक-महिमा’, ‘अलौकिक लीला’, ‘वर्षा-बिन्दु’ आदि उनकी प्रसिद्ध काव्य कृतियाँ हैं, जो अन्य रचनाओं के साथ ‘प्रेमघन-सर्वस्व’ के प्रथम भाग में संकलित हैं। प्रेमधन ने मुख्यतः ब्रजभाषा में काव्यरचना की है, किन्तु खड़ी बोली के लिए उनके काव्य में विरक्ति नहीं थी। वे कविता में भावगति के कायल थे।
प्रतापनारायण मिश्र
ब्राह्मण सम्पादक प्रतापनारायण मिश्र (1856-1894 ई.) का जन्म बैजेगाँव, जिला उन्नाव में हुआ था। पिता के कानपुर चले जाने के कारण उनकी शिक्षा-दीक्षा वहीं हुई। ज्योतिष का पैतृक व्यवसाय न अपनाकर वे साहित्य रचना की ओर प्रवृत्त हुए। कविता, निबन्ध और नाटक उनके मुख्य रचना क्षेत्र थे।
‘प्रेमपुष्पावली’, ‘मन की लहर’, ‘लोकोक्ति शतक’, ‘तृप्यन्ताम्’ और ‘श्रृंगार-विलास’ उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। ‘प्रताप लहरी’ उनकी प्रतिनिधि कविताओं का संकलन है। किन्तु भक्ति और प्रेम की तुलना में समसामयिक देश-दशा और राजनीति चेतना का वर्णन उन्होंने मनोयोग से किया है।
पढि कमाय कीन्हीं कहा, हरे न देश कलेस
जैसे कन्ता घर रहे, तैसे रहे विदेश
वे भावुक कवि थे और अभिव्यंजना पक्ष में उनका बल व्यावहारिकता पर अधिक था। काव्य रचना के लिए उन्होंने मुख्यतः ब्रजभाषा को ही अपनाया है, खड़ी बोली से उन्हें लगाव नहीं था।
जगमोहन सिंह
ठाकुर जगमोहन सिंह मध्य प्रदेश की विजय राघवगढ़ रियासत के राजकुमार थे। उन्होंने काशी में संस्कृत और अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त की। वहाँ रहते हुए उनका भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से सम्पर्क हुआ, किन्तु भारतेन्दु की रचना शैली की उन पर वैसी छाप नहीं मिलती जैसी प्रेमघन और प्रतापनारायण मिश्र के कृतित्व में लक्षित होती है। प्रेमसम्पत्तिलता (1885), श्यामालता (1885), श्यामा-सरोजनी (1886) और देवयानी (1886), ‘श्यामास्वप्न’ शीर्षक उपन्यास में भी उन्होंने प्रसंगवश कुछ कविताओं का समावेश किया है।
‘ऋतुसंहार’ और ‘मेघदूत’ भी ब्रजभाषा की सरल कृतियाँ हैं।
अम्बिकादत्त व्यास
कविवर दुर्गादत्त व्यास के पुत्र अम्बिकादत्त व्यास (1858-1900 ई.) काशी के निवासी सुकवि थे। भाषाओं में वे संस्कृत और हिन्दी के अच्छे विद्वान् थे और दोनों साहित्य-रचना करते थे। ‘पीयूष प्रवाह’ के सम्पादक के रूप में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। उनकी कृतियों में ‘पावस पचासा’ (1886), ‘सुकवि-सतसई’ (1887) और ‘हो हो होरी’ उल्लेखनीय हैं। इनकी रचना ललित ब्रजभाषा में हुई है। ‘बिहारी-बिहार’ उनकी एक अन्य प्रसिद्ध रचना है, जिसमें महाकवि बिहारी के दोहों का कुण्डलिया छन्द में भाव विस्तार किया गया है। उनके द्वारा लिखित समस्या पूर्तियाँ भी उपलब्ध होती हैं।
राधाकृष्ण दास
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के फुफेरे भाई राधाकृष्ण दास बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कविता के अतिरिक्त उन्होंने नाटक, उपन्यास और आलोचना के क्षेत्रों में भी उल्लेखनीय साहित्य रचना की है। ‘भारत-बारहमासा’ और ‘देश-दशा’ समसामयिक भारत के विषय में उनकी प्रसिद्ध कविताएँ हैं। राधाकृष्ण दास की कुछ कविताएँ ‘राधाकृष्ण-ग्रन्थावली’ में संकलित हैं।
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