आधुनिक काल का परिचय – हिन्दी गद्य का उद्भव और विकास – भारतेन्दु युग | 1857 की राज्यक्रान्ति एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण

आधुनिक काल का परिचय

भारतीय इतिहास का आधुनिक काल 19वीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है। साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु युग से होता है। आचार्य शुक्ल ने आधुनिक काल की समय-सीमा 1843 ई. से 1923 तक मानी है। आचार्य शुक्ल आधुनिक काल को गद्यकाल, डॉ. रामकुमार वर्मा इसे आधुनिक काल, मिश्र बन्धु इसे वर्तमान काल तथा गणपतिचन्द्र गुप्त इसे आधुनिक काल नाम देते हैं। आधुनिक काल में साहित्य जनजीवन के निकट आम एवं इसी काल में अनेक गद्य विधाओं का विकास हुआ।

हिन्दी गद्य का उद्भव एवं विकास

रामचन्द्र शुक्ल जी के अनुसार बल्लभाचार्य जी के पुत्र विठ्ठलनाथ ने श्रृंगार रस मण्डल की रचना ब्रजभाषा में की। उसके बाद दो साम्प्रदायिक ग्रन्थ लिखे गए हैं

1. चौरासी वैष्णव की वार्ता।

2. दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता।

दोनों रचनाओं के रचनाकार गोकुलनाथ जी हैं। चौरासी वैष्णव की वार्ता 17वीं सदी में लिखी गई, जबकि दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता औरंगजेब के काल में लिखी गई। अष्टयाम की रचना नाभादास ने की है। उसमें भगवान राम की दिनचर्या का वर्णन है। यह ब्रज भाषा में लिखा गया है। गद्य लेखन का सम्यक् प्रचार-प्रसार न होने के कारण ब्रजभाषा गद्य का पूरा विकास नहीं हो सका।

खड़ी बोली गद्य की महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘चन्द छन्द बरनन’ की महिमा है। यह गंग कवि द्वारा लिखी गई है। इसकी रचना सम्राट अकबर के समय में हुई थी। 1741 ई. में रामप्रसाद निरंजनी ने भाषायोग वशिष्ठ नामक ग्रन्थ की रचना खड़ी बोली में की है। निरंजनी जी के गद्य से स्पष्ट है कि मुंशी सदासुख लाल एवं लल्लू लाल से पहले भी खड़ीबोली गद्य का परिमार्जित रूप था। आचार्य शुक्लजी निरंजनी जी को प्रथम प्रौढ़ गद्य लेखक मानते हैं। लल्लू लाल ने उर्दू, खड़ी बोली, हिन्दी और ब्रजभाषा तीनों में गद्य की पुस्तकें लिखीं। माधव विलास और सभा विलास नाम से ब्रजभाषा पद्य के संग्रह ग्रन्थ भी इन्होंने प्रकाशित किए। सदल मिश्र बिहार के निवासी थे। ये फोर्ट विलियम कॉलेज में काम करते थे। कॉलेज अधिकारियों की प्रेरणा से इन्होंने खड़ी बोली गद्य की पुस्तक ‘नासिकेतोपाख्यान’ लिखी।

मुंशी सदासुख लाल दिल्ली के रहने वाले थे। इन्होंने विष्णुपुराण से प्रसंग लेकर एक पुस्तक लिखी जो पूरी नहीं है। इन्होंने सुखसागर में श्रीम‌द्भागवत का हिन्दी अनुवाद किया है। मुंशी जी ने हिन्दुओं की शिष्ट बोलचाल की भाषा ग्रहण की। हिन्दी-उर्दू मिश्रित भाषा का प्रयोग करने लगे।

आधुनिक काल : भारतेन्दु युग

राजा लक्ष्मण सिंह आगरा के रहने वाले थे। उन्होंने 1861 ई. में आगरा से ‘प्रजा हितैषी’ नामक पत्र निकाला और 1862 ई. में ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ का अनुवाद सरस एवं विशुद्ध हिन्दी में प्रकाशित किया। हिन्दी के रक्षकों में बाबू शिवप्रसाद सितारेहिन्द के साथ-साथ पंजाब के बाबू नवीनचन्द्र राय भी थे। उर्दू के पक्षपातियों से उन्होंने बराबर संघर्ष किया।

संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र से पूर्व हिन्दी गद्य की दो शैलियाँ विद्यमान थीं। एक तो उर्दू-फारसी के शब्दों से युक्त खिचड़ी हिन्दी-भाषा जिसका प्रतिनिधित्व शिवप्रसाद सितारेहिन्द कर रहे थे तो दूसरी शैली संस्कृत शब्दों से युक्त विशुद्ध हिन्दी थी जिसका प्रतिनिधित्व राजा लक्ष्मण सिंह की भाषा कर रही थी। भारतेन्दु जी ने अपनी भाषा के लिए मध्यम मार्ग अपनाया। इंशा अल्ला खाँ उर्दू के प्रसिद्ध शायर थे, जो दिल्ली उजड़ने के बाद लखनऊ चले गए।

इंशा ने ‘रानी केतकी की कहानी’ की रचना संवत् 1855 से 1860 ई. के बीच लिखी। हिन्दी गद्य के चार प्रारम्भिक लेखकों में इंशा जी की भाषा चटकीली और मुहावरेदार है। इन चारों लेखकों का रचनाकाल लगभग 1800 ई. के आस-पास है इसलिए हिन्दी गद्य का सूत्रपात 1800 ई. के आस-पास ही समझना चाहिए।

राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द ने काशी से ‘बनारस अखबार’ निकाला। इस

पत्र की भाषा में उर्दू का पुट था। राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द ने निम्नलिखित पुस्तकें लिखी हैं

1. आलसियों का कीड़ा

2. राजा भोज का सपना

3. मानव धर्म का सार

4. उपनिषद् सार

5. इतिहास तिमिरनाशक।

सितारेहिन्द जी हिन्दी के पक्ष में थे इन्होंने बड़ी चतुराई से हिन्दी की रक्षा की। अन्यथा मुसलमान नेता हिन्दी को स्कूली शिक्षा से बाहर कर देते। सितारेहिन्द जी ने हिन्दी की रक्षा के लिए महान् कार्य किया है, ये सर सैयद अहमद खाँ का बराबर विरोध करते रहे।

1857 की राज्यक्रान्ति एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण

19वीं शताब्दी के पूर्व नव-जागरण का सन्देश धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों द्वारा किया गया। जाति-पाँति, छुआ-छूत, ऊँच-नीच आदि सामाजिक समस्याओं एवं कुरीतियों का विरोध धार्मिक सन्तों, सूफियों आदि के द्वारा किया गया। 19वीं शताब्दी के उपरान्त मूलतः वे धार्मिक तत्त्व नष्ट तो नहीं हुए किन्तु उनका स्वरूप परिवर्तित हो गया। कहीं पर यह यूरोपीय संस्कृति से प्रभावित एवं प्रेरित होता दृष्टिगत होता है और कहीं पर विशुद्ध भारतीय धर्म की ओर अग्रसर होने के लिए आन्दोलन छेड़ता है। कहीं इन दोनों के बीच समन्वयात्मक दृष्टिकोण लक्षित होता है। इन विभिन्न नव-जागरण की अवस्थाओं तक पहुँचने के लिए अनेक सामाजिक तत्त्व सहायक हुए हैं, वे तत्त्व इस प्रकार हैं

शिक्षा

अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने बाबुओं को उत्पन्न करने के साथ-साथ प्रतिभाशाली व्यक्तियों को भी जन्म दिया जिससे उन्होंने विज्ञान, दर्शन एवं इतिहास का सर्वेक्षण किया, भारतीयों के हित के लिए आन्दोलनों का सूत्रपात किया।

व्यापारिक नीति

अंग्रेजों ने असीम लाभ अर्जित करने हेतु अपनी व्यापारिक दृष्टि केवल भारत तक ही नहीं वरन् सम्पूर्ण यूरोप तक गई थी। भारत के अथाह कच्चे माल का उपयोग करने के लिए तथा उसे विभिन्न स्थानों तक पहुँचाने एवं उसका वितरण करने हेतु उन्होंने यातायात के साधनों का विकास किया जिससे समाज सुधारकों को भी आवागमन की सुविधा प्राप्त हो गई जिसके परिणामस्वरूप वे एक सक्रिय संगठन बनाने में सफल हुए।

सम्प्रदायवादी नीति

अंग्रेजों ने भारतीय हिन्दू-मुसलमान, आदिवासी, शूद्र एवं अन्य वर्णों के मध्य सदैव तनाव बढ़ाने का प्रयास किया जिससे इनमें एकता स्थातिप न हो सके। किन्तु उनका यह कुचक्र अधिक समय तक नहीं चला। भारतीयों ने सहिष्णुता के सिद्धान्त को अपनाकर अन्याय को सहन नहीं किया। इस नीति ने भरतीयों में जागृति को जन्म दिया। अनेक समाज सुधारक संगठन बने- ब्रह्म समाज, आर्यसमाज, रामकृष्ण मिशन आदि उसी की देन है।

आधुनिक युग के कर्मठ महात्मा गाँधी, नेहरू, विनोबाजी आदि महापुरुष उसी कड़ी में जुड़े हुए हैं।

पाश्चात्य संस्कृति

पाश्चात्य संस्कृति के सम्पर्क में आने से भारतीयों के अन्धविश्वास, विधवा-विवाह, बाल-विवाह, पर्दा प्रथा, अस्पृश्यता, वर्ण भेद आदि का उन्मूलन हुआ। पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित व्यक्ति समाज सुधार के कार्यों में संलग्न हो गए।

मिशनरियों के कार्य

इन मिशनरियों का कार्य एक ओर तो गरीब जनता की सेवा करना था दूसरी ओर अपने धर्म का प्रचार करना एवं अन्य जातियों के व्यक्तियों को ईसाई बनाना था। इस कार्य में इन्होंने अनेक भारतीयों को नौकरियों का प्रलोभन दिया। मिशनरियों की स्वार्थी भावना ने देश में धार्मिक क्रान्ति उत्पन्न की जिनका उद्देश्य इन मिशनरियों की निन्दा करना था तथा हिन्दुओं को अपना धर्म परिवर्तन करने से रोकना था।

प्रेस बिकास

प्रेस की उन्नति ने प्रचार कार्य में सहायता प्रदान कर पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से देश में नव-जागरण की लहर को जन्म दिया। जन-समुदाय क्रान्ति एवं आन्दोलन की गति-विधियों से परिचित होने लगा। प्रेस की उन्नति से नव-जागरण के सन्देश ने एक सुदृढ़ एवं शाक्तिशाली जनमत तैयार किया। जिससे नव-जागरण का कार्य तीव्र गति से अग्रसर हुआ।

सामाजिक कुप्रथाएँ

भारत में असंख्य कुप्रथाएँ एवं अन्धविश्वासों ने भारतीयों को कूप-मण्डूक बना रखा था। ऐसे में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आवश्यकता महसूस की गई। राजा राममोहन राय, देवेन्द्रनाथ ठाकुर, केशवचन्द्र सेन, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द आदि महापुरुषों ने भारतीय जनता को जागृत करने का कार्य किया। ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन, आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसायटी आदि की स्थापना की गई।

1857 की क्रान्ति से प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की शुरूआत मंगल पाण्डे ने की। अंग्रेजी शासन को आगाह कर दिया गया कि अब भारतीय दासता स्वीकार नहीं कर सकते। चारों ओर राष्ट्रीय चेतना की लहर दौड़ गई। कविता में राष्ट्रीय देश-प्रेम की कविताएँ नाटक इत्यादि रचे गए। अंग्रेजों की पोलें खोली गई।

अंग्रेजी शासन में जो दुर्दशा हुई उसका नाटकों के माध्यम से मंचन हुआ और जागरूकता फैलाई गई। इस प्रकार 1857 की राष्ट्रकान्ति से सांस्कृतिक पुनर्जागरण की लहर पूरे भारत में फैल गई।

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