द्विवेदी युग
द्विवेदी युग का नामकरण प्रसिद्ध सर्वस्वीकृत साहित्य नेता आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर हुआ। इसे जागरण सुधार काल भी कहा जाता है। भारतीय इतिहास में यह काल ब्रिटिश शासन के दमनचक्र व कूटनीति का काल है। इस युग में दो धाराएँ चल रही थीं अनुशासनवादी व स्वच्छन्दतावादी अनुशासनवादी धारा साहित्य की सामाजिक सोद्देश्यता को लेकर थी।
द्विवेदी युग का नामकरण महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर हुआ है। द्विवेदी जी सरस्वती पत्रिका के सम्पादक 1903 से 1920 ई. तक रहे।
द्विवेदी युग की नवजागरण परक चेतना
भाषा के मुख्य खड़ी बोली के समन्वयवादी स्वरूप का विकास और व्याकरणिक एकरूपता के माध्यम से भाषा का मानक रूपी प्राथमिक विकास इसी धारा के द्वारा किया गया। इसका पूरा-का-पूरा श्रेय पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी को दिया गया। इस धारा के अन्य रचनाकारों ने मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, हरिऔध, रामचरित उपाध्याय, गयाप्रसाद शुक्ल सनेही तथा नाथूराम शर्मा शंकर प्रमुख थे। स्वछन्दतावादी धारा प्रकृति, समाज तथा साहित्य के प्रति अनुशासनवादी धारा से अलग-थलग दिखाई पड़ी। विशेषकर प्रकृति के चित्रण को लेकर इस धारा में मध्ययुगीन चेतना की जगह उदारवादी तथा मानवीय सहानुभूतिपरक चेतना दिखी। इस धारा के रचनाकारों में श्रीधर पाठक, मुकुटधर पाण्डे, रामनरेश त्रिपाठी तथा लोचन पाण्डे प्रमुख रहे।
नवजागरण परक चेतना के तीन स्वरूप दिखे
1. प्रथम चरण का सम्बन्ध भारतेन्दु युग
2. द्वितीय चरण तथा विकासशील चरण द्विवेदी युग से, जबकि
3. प्रौढ़ चरण सांस्कृतिक चेतना के रूप में छायावाद से सम्बन्धित है, यह प्रौढ़ चेतना मानसिक औपनिवेशिक पराधीनता को छिन्न-भिन्न करने के लिए सांस्कृतिक जागरण की चर्चा करती है। द्विवेदी युग की नवजागरणपरक चेतना अन्तर्विरोध मूलक नहीं रही, क्योंकि यहाँ राजभक्ति की जगह राष्ट्रभक्ति, श्रृंगारिक चेतना की जगह सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना तथा गद्य और पद्य दोनों के लिए भाषा के रूप में खड़ी बोली का विकास कुछ ऐसे प्रमुख तत्त्व थे जिनसे द्विवेदी युग आधुनिक काल के वास्तविक आरम्भ के रूप में माना जा सकता है।
आचार्य द्विवेदी ने साहित्य के प्रति साहित्यकारों की नैतिक जवाबदेही को स्वीकार किया। उनका नैतिकतावादी उपयोगितावादी दृष्टिकोण इस युग के कवियों का स्वर बन गया। एक तरफ पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य के उद्देश्य एवं व्यापकता को निर्धारित किया, तो दूसरी तरफ उसकी भाषा एवं उसके स्वरूप को भी। आगरा सम्मेलन में साहित्यकारों को सम्बोधित करते हुए कहा कि ‘जो अपने आप को ब्रज क्षेत्र का मानते हों वे ब्रज भाषा का प्रयोग कर सकते हैं परन्तु जो अपना जुड़ाव अखण्ड भारत से मानते हों उनकी भाषा निश्चित तौर पर खड़ी बोली होनी चाहिए।
शृंगार, रीतिनिरूपण और काव्य के दरबारी सरोकारों को भी आड़े हाथों लेते हुए उन्होंने कविता के व्यापक फलक की चर्चा की। इसमें किसी भी विषय को जगह दी जा सकती है इस ओर इशारा किया। काव्य विशेष के रूप में व्यापकता को चर्चित करते हुए उन्होंने कहा कि चीटी से लेकर हाथी पर्यन्त जीव, रंक से लेकर राजा पर्यन्त मनुष्य, बिन्दु से लेकर सिन्धु पर्यन्त जल, अनन्त आकाश अनन्त पृथ्वी, अनन्त पर्वत सभी काव्य के विषय हो सकते हैं। पण्डित द्विवेदी की मान्यता साहित्यिक सुदेश्यता को प्रभावित करते हुए मैथिलीशरण गुप्त ने साहित्य को मनोरंजन ही नहीं बल्कि मानव जीवन के उद्देश्यों से जोड़ने की कोशिश की।
‘केवल मनोरंजन ही न कवि का कर्म होना चाहिए
बल्कि उसमें उचित उपदेश का मर्म होना चाहिए’
द्विवेदीयुगीन चेतना, राष्ट्रीय प्रेम, सामाजिक चेतना, भक्ति प्रकृति और भाषा सभी स्तरों पर प्रखर दिखाई पड़ती है। यहाँ राष्ट्रभक्ति राजभक्ति के आवरण में लिपटी नहीं हैं न ही इस युग के रचनाकारों ने काव्य विषय के रूप में विदेशी सत्ता को कहीं वरीयता दी। नवजागरणपरक चेतना से अविभूत राष्ट्रीय प्रेम भारत के स्लाहय और गौरवपूर्ण अतीत से जुड़ा है जो वर्तमान की पराधीनता को छिन्न-भिन्न करने के लिए अतीत को भारतीय संस्कृति के जीवन्त मूल्यों से प्रेरणा लेने की कोशिश में जुटा हुआ है।
हाँ वृद्ध भारत ही दुनिया का सिरमौर है।
इससे पुरातन देश क्या जहाँ में कोई और है।।
मैथिलीशरण गुप्त की रचना भारत भारती में अतीत खण्ड भारतीय पुरातन संस्कृति के स्वर्णीय पहलुओं को उठाकर वर्तमान के जीर्ण-शीर्ण पहलुओं का उपचार ढूँढता है। इसका भविष्य खण्ड अनागत (भविष्य) को उज्ज्वल बनाने की आकांक्षा में जुटा है। द्विवेदीयुगीन रचनाकारों का राष्ट्रप्रेम भारतेन्दु युग की तरह मात्र सामूहिक रुदन से नहीं जुड़ा है बल्कि समस्याओं के विचार के कारणों पर विचार करने के साथ-साथ उनके लिए समाधान ढूँढने तक जुड़ा है।
‘हम क्या थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी।
आओ मिलकर विचारें ये समस्याएँ सभी’।।
कारणों के तह तक जाने के पश्चात् यह युग मात्र हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की नहीं बल्कि उत्सर्ग त्याग और बलिदान के माध्यम से अपनी खोई हुई अस्मिता को प्राप्त करने के लिए प्रेरणा का माध्यम भी रहा है।
देश भक्त वीरों मरने से कभी नहीं डरना होगा।
प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा।।
भारतेन्दु युग के विपरीत द्विवेदी युग की सामाजिक चेतना मात्र सामाजिक समस्याओं तक ही नहीं सीमित रहती, बल्कि उन समस्याओं के मूल कारणों का भी पता लगाती है। मध्ययुगीन सामन्ती परिवेश के कारण समाज का जो वर्गीकरण रहा है उससे सतत विभेद और घृणा जैसे अमानवीय मूल्य उपजते रहे। सामन्ती परिवेश के कारण ही समाज नारी के प्रति भी उदासीन रहा।
आधुनिक युगीन चेतना के कारण मनुष्य का रूपान्तरण व्यक्ति के रूप में तो हुआ परन्तु समाज अभी भी जड़ बना रहा। नारी की समस्याओं के प्रति भारतेन्दु युग में भी जागरूकता दिखाई पड़ी। प्रताप नारायण भिश्र नारी के वैधव्य (जीवन) और बाल विधवाओं की तरुण अवस्थाओं को देखकर बिफर पड़ते हैं।
‘कौन करे जो नहीं कस कर सूनी विपत्ति बाल विधवन की’ इसके विपरीत द्विवेदी युग में न केवल इस प्रकार की समस्याओं को उठाया गया बल्कि नारी की उपेक्षा को लेकर पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्यकारों के साथ-साथ समाज का भी ध्यान आकृष्ट किया। उर्मिला विषयक उदासीनता जैसा निबन्ध लिखकर उर्मिला जैसी स्त्रियों की उपेक्षा को समाज के द्वारा भुला दिए गए उत्सर्गों (त्याग) के रूप में माना। फलस्वरूप इस काव्यधारा में परित्यक्ता और उपेक्षित नारियों को काव्य विषय के रूप में वरीयता देने की कोशिश की। और चरों के माध्यम से गौतमबुद्ध की पत्नी का, साकेत के माध्यम से उर्मिला का, विष्णुप्रिया के माध्यम से चैतन्य महाप्रभु की पत्नी का उत्सर्ग भाग योजित किया गया है।
सखी वे मुझसे कहकर जाते,
प्रियतम के प्राणों को पल में स्वयं सुसज्जित करके।
भेज देती है रण में, छत्र धर्म के नाते,
सखी वे मुझसे कहकर जाते।।
(मैथिलीशरण)
अयोध्या प्रसाद ‘हरिऔध’ ने वैदेही (सीता) वनवास और प्रियप्रवास के माध्यम से इसी प्रकार के उत्सर्गों और उनकी उपेक्षाओं को उठाने की कोशिश की है। मध्ययुगीन आध्यात्मिक पौराणिक रचनाओं में कृष्ण के विरोचित और व्योचित कार्यों की चर्चा तो है परन्तु राधा और गोपियों की विरह दशा में या तो उन्हें कायर दिखाया गया है या फिर करुण। ‘हरिऔध’ जी ने कृष्ण के प्रवास को टूटते और बिलखते चित्रित नहीं किया है उसकी जगह एक समाज सेविका या लोक सेविका के रूप में वृद्धों रोगियों और असहायों की सेवा करते दिखाया है।
द्विवेदीयुगीन भक्ति भी हालाँकि भारतेन्दु युग की तरह देशानुराग की भक्ति की ही साम्प्रदायिक भक्ति हो रही, परन्तु उसमें ईश्वर का स्वरूप बदल गया। आदिकाल में ईश्वर की भक्ति कर्मकाण्ड मूलक थी। भक्ति काल में यह भक्ति भावना और उदारता पर आधारित हुई परन्तु ईश्वर पारलौकिक अथवा आध्यात्मिक ही रहा। रीति काव्यधारा में ईश्वर को श्रृंगार के विषय के रूप में चित्रित किया गया जबकि द्विवेदी युग में राम और कृष्ण बैकुण्ठ धाम को छोड़कर जन सामान्य के कल्याण के लिए दर-दर वन-वन ठोकर खाने वाले दिखे। साकेत के राम अपने आपको स्वर्ग से आया हुआ नहीं मानते।
मैं यहाँ नहीं आया स्वर्ग का सन्देश सुनाने।
मैं तो भूतल को ही आया हूँ स्वर्ग बनाने।।
मैं आया उनके हेतु जो यहाँ तापित हैं।
विवश विकल दीनहीन और जो शापित हैं।।
ईश्वर का मानवोचित व्यवहार देखते हुए द्विवेदीयुगीन रचनाकारों को भी शक होने लगा है ईश्वर क्या ईश्वर नहीं है? क्या वह मानव है?
राम तुम मानव हो, ईश्वर नहीं हो क्या।
गुप्त और हरिऔध ने राम और कृष्ण के चमत्कारी रूपों की जगह सामान्य रूपों की चर्चा की। प्रियप्रवास के कृष्ण लीला और चमत्कार से नहीं जुड़े हैं बल्कि जीवन की समस्याओं का मानव सुलभ उपचार ढूँढते हैं। अतिवृष्टि से जान-माल को हो रही क्षति को देखते हुए हरिऔध के कृष्ण को गोवर्धन को कानी उंगली पर नहीं उठाते बल्कि गोकुलवासियों को उसमें छुप जाने का रास्ता दिखाते हैं। द्विवेदीयुगीन स्वच्छन्द धारा के चित्रण को देखते हुए आचार्य शुक्ल जी ने इस धारा से सच्ची स्वच्छन्दता को स्वीकार किया है। श्रीधर पाठक को उन्होंने वास्तविक अर्थ में स्वच्छन्दतावादी मानते हुए इनके काव्य में प्रकृति चित्रण को सराहा। यह सही है कि द्विवेदी युग में प्रकृति का चित्रण पूर्व की साहित्यिक धाराओं की तरह नहीं किया। पूर्व की धाराओं में श्रृंगार और भक्ति प्रमुख काव्य विषय रहे।
भक्ति भी शृंगार से अलग-थलग नहीं रही। अतः ऐसे में प्रकृति का चित्रण मात्र उद्दीपन विभाव के रूप में किया गया। उसके स्वतन्त्र अस्तित्व का नहीं। पहली बात द्विवेदी की स्वच्छन्दतावादी धारा ने प्रकृति को अपनी सहानुभूति प्रदान की उसे उसकी गरिमा के साथ देखा। मध्ययुगीन प्रकृति के चित्रण के साथ दो प्रकार की समस्याए थीं। पहली समस्या उसके दैवीय स्वरूप के भ्रम को लेकर थी जहाँ रचनाकार उसे कौतुक का विषय मान रहा था या आध्यात्मिक। दूसरी समस्या प्रकृति की उपयोगिता को न समझ पाने के कारण थी।
आधुनिक युग में विज्ञान की प्रकृति पर पड़े आध्यात्मिक तथा दैवीय आवरणों को हटा दिया यही कारण है कि द्विवेदी युग में कश्मीर सुषमा और हेमन्त वर्णन के माध्यम से प्रकृति के आन्तरिक और बाह्य दोनों रूपों को सामान्य मानव की आँखों से देखा जा सका।
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