सूरदास का साहित्यिक परिचय दीजिए। surdas ka saahityik parichay

सूरदास का जन्म प्रायः संवत १५२९ में सीही नामक ग्राम में माना जाता है। वहाँ से वे रुनकता और गऊघाट पर रहे। एक मत से आप सारस्वत ब्राह्मण गो थे और दूसरे मत से चन्दबरदाई कवि के वंशज । इसी प्रकार इनके अन्धत्व के विषय में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है । कुछ विद्वानों का मत है कि सूर जन्मान्ध थे और कुछ का मत है कि वे बाद में धीरे-धीरे अन्धे हुए। चाहे जो कुछ हो किन्तु उनके चित्रोपम वर्णनयुक्त पदों की पढ़कर यही धारणा बलवती होती है कि सूर जन्मान्य नहीं थे।

“चौरासी वैष्णवों की वार्ता के अनुसार सूर पहले साधुवेश में गऊघाट पर रहते थे। एक दिन स्वामी बलभाचार्य जी से इनकी भेंट हो गयी। आचार्य जी ने प्रसन्न होकर इन्हें अपना शिष्य बना लिया और गोवर्धन पर स्थित श्रीनाथ के मन्दिर की कीर्तन सेवा इन्हीं की सुपुर्द कर दी गयी ।

सूरदास उच्चकोटि के सहृदय भक्त थे। उनके उपास्य थे भगवान् श्रीकृष्ण ।। आरम्भ में उनकी भक्ति का स्वरूप सेवक-सेव्य भाव का ही था परन्तु बाद में वह बल्लभाचार्य से प्रभावित होने के कारण सख्यभाव में परिणत हो गयी। सूर की ख्य भक्ति का विकास दो रूपों में हुआ पहला गोप बालों के साथ बाल लीलाओं में और दूसरा राधा और कृष्ण के माधुर्य भाव के प्रसंग में। इसके अतिरिक्त सूरसागर में नवधा भक्ति के सम्पूर्ण अंगों से सम्बन्धित पद भी ढूंढ निकाले जा सकते हैं। इन अंगों में प्रधानता है सख्यभाव की । इनके कुछ पदों में सगुण रहस्यभावयुक्त भक्ति का भी आभास मिलता है।

सूर के मत में मोक्षप्राप्ति का एकमेव साधन भक्ति है। भक्ति का स्थान योग और वैराग्य से ऊँचा है। वे तो सान्निध्य मुक्ति के आकांक्षी है जिसमें भक्त गोलोक में अनन्तकाल तक भगवान के साथ निवास करता है। उनकी दृष्टि में भगवान् का निर्गुण स्वरूप सुगम नहीं है अतः सगुण लीलापद का गायन ही अधिक प्रिय है।

सूर के कृष्ण मूर्तिमान प्रेम हैं। सूरसागर में इसी रूप के प्रेममय विविध व्यापारों की झाँकी मिलती है। कृष्ण के प्रेम में निष्कामता और निःस्वार्थ भाव आ जाने से वह अलौकिक हो गया है। यशोदा और नन्द का अपने पुत्र कृष्ण के प्रति वात्सल्य, गोपवालों का कृष्ण के साथ मैत्रीभाव एवं गोपांगनाओं का अपने प्रियतम कृष्ण के साथ जो माधुर्यभाव है वह भौतिक जगत् की वस्तु होते हुए भी अलौकिक हो जाता है। प्रेम की तीव्रतम अनुभूति विरह-दशा में ही सम्भव है। अतः सूर ने भी वियोग संतप्त ब्रजांगनाओं के करुण और मार्मिक चित्र खींचे हैं। उनमें जो तीव्रता, विशदता और वेदना की गम्भीरता है, वह मनुष्य को संसार से ऊपर उठाकर पवित्र भावभूमि पर ले जाने में समर्थ होती है। सूर के भ्रमरगीत में मानों विरह सजीव और साकार हो उठा है।

सूर के पदों का संग्रह ‘सूरसागर’ नामक ग्रंथ में मिलता है। कहा जाता है कि इसमें सवा लाख पद थे किन्तु अब केवल ६ हजार ही पद मिलते हैं। सूरसागर का आधार श्रीमद् भागवत है। उसमें भागवत की सम्पूर्ण कथाओं को कवि ने गाया है। किन्तु विशेष विस्तार कृष्ण जन्म से लेकर उनके मथुरा-गमन की घटनाओं को ही दिया गया है। ये पद मुक्तक हैं । इनमें गीतकाव्य की सभी विशेषताएँ जैसे- गेयता, अर्थपूर्णता, अनुभूति की तीव्रता, व्यंजकता आदि पायी जाती हैं। इन पर्दो में घटनाओं के वर्णन कम है। कठोर भावों को बहुत कम स्थान मिला है। प्रेम, विरह, वात्सल्य आदि कोमल भावों की ही अधिक अभिव्यक्ति मिली है।

तुलसी की भाँति सूर की भी कविता विद्वान् और सामान्य जन सभी के लिए, समान रूप से आनन्दप्रदायिनी है। उसका भावसौन्दर्य अद्वितीय है। काव्य के सभी अंगों का उसमें सन्निवेश है। सूर काव्य में रसों की सुन्दर नियोजन हुई है। रसराज के दोनों पक्षों- संयोग और विप्रलम्भ का अंकन कवि ने बड़ी सूक्ष्मता से किया है। वात्सल्य रस का तो सूर कोना-कोना देख आये हैं। शान्तरस में भी वे पूर्णतः सफल रहे हैं। यत्र-तत्र हास्य, अद्भुत, भयानक और वीभत्स रसों के भी सुन्दर प्रसंग उपलब्ध होते हैं। उपमा, रूपक, यमक, अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति अलंकारों का उनके पदों में उचित प्रयोग मिलता है।

सूरदास न तो ज्ञानमार्गी थे और न समाजसुधारक । वे तुलसी की भाँति लोकनायक भी न थे जो सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए अपनी सशक्त लेखनी का प्रयोग करते । सूर तो सरस हृदय भक्त थे। उन्होंने कृष्ण की रूपमाधुरी का सबको पान कराया । उनकी काल्पनिकता, रसात्मकता, व्यंग्यवैभव और सरसता बेजोड़ हैं। उदाहरण—

मैया री मैं चंद लहौंगौ ।

कहा करौं जलपुट भीतर कौ, बाहर ब्यौंकि गहौंगौ ॥

यह तौ झलमलात झकझोरत, कैसैं कै जु लहौंगौ ?

वह तौ निपट निकटहीं देखत ,बरज्यौ हौं न रहौंगौ ॥

तुम्हरौ प्रेम प्रगट मैं जान्यौ, बौराऐँ न बहौंगौ ।

सूरस्याम कहै कर गहि ल्याऊँ ससि-तन-दाप दहौंगौ ॥

राधा नैन नीर भरि लायी । 

कबधौं  स्याम मिलैं  सुन्दर सखि, जदपि निकट है आयी । 

कहा करौं , वे भाँति जाउँ अब, पेखहि नहि तिनपायी । 

सूर-स्याम सुन्दर घन दरसे तन की ताप नसायी ।

सूरदास की प्रमुख कृतियाँ

भक्त शिरोमणि सूरदास ने लगभग सवा लाख पदों की रचना की थी। काशी नागरी प्रचारिणी सभा की खोज तथा पुस्तकालय में सुरक्षित नामावली के अनउसार सूरदास जी के ग्रन्थों की संख्या २५ मानी जाती है, किन्तु उनके तीन ग्रन्थ ही उपलब्ध हुए हैं – (१) सूरसागर, (२) सूरसारावली, (३) साहित्य-लहरी ।

(१) सूरसागर – ‘सूरसागर’ एकमात्र ऐसी कृति है, जिसे सभी विद्वानों ने प्रमाणित माना है। इसके सवा लाख पदों में से केवल ९-१० हजार पद ही उपलब्ध हो पाए हैं। सूरसागर पर श्रीमद्भागवत का प्रभाव है। सम्पूर्ण सूरसागर एक गीतिकाव्य है। इसके पद तन्मयता के साथ गाए जाते हैं।

(२) सूरसारावली – यह ग्रन्थ अभी तक विवादास्पद स्थिति में है किन्तु कथावस्तु, भाव, भाषा-शैली और रचना की दृष्टि से निःसन्देह यह सूरदास की प्रामाणिक रचना है। इसमें ११०७ छन्ध हैं।

(३) साहित्य-लहरी – ‘साहित्य-लहरी’ में सूरदास के ११८ दृष्टकूट पदों का संग्रह है। ‘साहित्य-लहरी’ में किसी एक विषय की विवेचना नहीं हुई है। इसमें मुख्य रूप से नायिकाओं एवं अलंकारों की विवेचना की गई है। कहीं-कहीं पर कृष्ण की बाललीला का वर्णन तथा एकाध स्थल पर महाभारत कथा के अंशों की झलक है। सूरदास ने अपनी इन रचनाओं में कृष्ण की विविध लीलाओं का वर्णन किया है। उनकी कविता में भावपक्ष और कलापक्ष समान अनुपात में आए हैं। गेय पदों के कारण उनके काव्य में माधुर्य गुण की प्रधानता हैं। यह उनकी सुक्ष्म दृष्टि का ही कमाल है कि आलोचक उनके अन्ध होने में संदेह करने लगे हैं।

हिन्दी साहित्य में सूरदास का स्थान

सूर साहित्य का भावजगत अप्रतिम है। ये भक्तिकाल के सूर्य हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है- “सूर में तो जितनी भाव-विभोरता है उतनी ही वाग्विदग्धता भी है। वात्सल्य एवं शृंगार के तो वे अद्वितीय कवि हैं। सूर ने न केवल भाव और भाषा के दृष्टिकोण से साहित्य को सुसज्जित् किया वरन् धार्मिक क्षेत्र में ब्रजभाषा के सहारे कृष्ण-काव्य की एक विशिष्ट परम्परा को जन्म दिया। सूर ने बाल मनोविज्ञान और श्रृंगार के ऐसे हृदयग्राही चित्र खींचे हैं जिनकी तुलना हिन्दी के किसी भी कवि के काव्य से नहीं की जा सकती है। हिन्दी साहित्य के एक हजार वर्ष के इतिहास में इतना रससिद्ध कवि आज तक उत्पन्न नहीं हुआ है।”

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