कबीरदास के जीवन परिचय
निर्गुण भक्ति की ज्ञानाश्रयी शाखा के सर्वश्रेष्ठ संत कवि कबीर थे। इनके जीवन वृत्त के संबंध में अनेक प्रयाद प्रचलित है। किंवदन्ती है कि एक विधवा ब्राह्मणी कन्या को स्वामी रामानन्द ने भूल से पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया जिसके फलस्वरूप कबीर का जन्म हुआ । लोक-लाज के भय से उसने अपने निर्दोष बालक (कबीर) को काशी के ‘लहरतारा’ नामक तालाब के पास फेंक दिया। संयोग की बात थी कि नीरू और नोमा नाम का एक सन्तान हीन जुलाहा दम्पत्ति उसी मार्ग से जा रहा था, उसे देख उठा लिया और पुत्रवत उसका लालन पालन किया। इसी अवोध बालक का नाम ‘कबीर’ रखा गया, जो पीछे जाकर बहुत प्रसिद्ध हुआ। परन्तु इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण अभी तक नहीं पाया गया है।
कबीर की जन्मतिथि क्या है, इस संबंध में भी काफी मतभेद है। ‘कबीर चरित्र बोध के अनुसार संवत् चौदह सौ पचपन विक्रमी ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार के दिन सत्य पुरुष (कबीर) का तेज काशी के लहरतालाब में उत्तरा।” कबीर पंथियों के दोहे —
चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाट उए ।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी विधि प्रकट भए ॥
– के अनुसार कबीर का जन्म संवत् १४५५ की पूर्णिमा को सोमवार के दिन ठहरता है। डॉ. श्यामसुन्दर दासजी का कथन है कि ‘गणना करने से संवत् १४५५ में ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा चन्द्रमा को नहीं पड़ती। पद्य को ध्यान से पढ़ने पर संवत् १४५६ निकलता है क्योंकि उसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा है ‘चौदह सौ पचपन साल गए’ अर्थात् उस समय तक संवत् १४५५ बीत गया था। लेकिन डॉ. रामकुमार वर्मा लिखते हैं कि ‘गणना से संवत् १४५६ में चन्द्रवार को ही ज्येष्ठ पूर्णिमा पड़ती है। अतएव इस दोहे के अनुसार कबीर का जन्म संवत् १४५६ की ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ । किंतु गणना करने पर ज्ञात होता है कि चन्द्रवार को ज्येष्ठ पूर्णिमा नहीं पड़ती। चन्द्रवार के बदले मंगलवार दिन आता है। इस प्रकार प्रामाणिक नहीं माना जा सकता । आधुनिक इतिहासकारों ने कबीर का जन्म काल ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार विक्रम संवत् १४५६ और मृत्यु संवत् १५७५ माना है।
कबीर का विवाह लोई नामक स्त्री से हुआ था । लोई से इन्हें दो संतानें प्राप्त हुए। एक पुत्र था कमाल और दूसरी पुत्री थी कमाली। कबीर पंथियों का कथन है कि लोई उनकी स्त्री नहीं, शिष्या थी इस कथन का भी कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
कबीर बाल्यावस्था से ही धर्म की ओर आकृष्ट थे। कबीर ने अपने को रामानन्द का शिष्य माना, परन्तु मुसलमानों ने इन्हें शेखतकी का शिष्य बतलाया है। जो भी हो, इन पर ‘शंकराचार्य तथा नाम-पंथी साधुओं एवं सूफियों का भी प्रभाव था। रामानन्द से उन्होंने मांस भक्षण निषेध, और वैष्णवी दया का भाव प्राप्त किया, नाथ-पंथियों से हठयोग के सिद्धान्त ग्रहण किये, शंकराचार्य के मायावाद और अद्वैततवाद के विचारों को अपनाया। सूफी फकीरों से प्रेम की साधना ली और मुसलमानी शरीयत के माननेवालों से मूर्ति और तीर्थ का खण्डन-मण्डन सीखा। नाथ पंथियों में भी समता का भाव था किंतु इस संबंध में वे मुसलमानों से भी प्रभावित हुए ।’ कबीर मस्त और फकड़ थे। वे जीवन पर्यन्त भ्रमण ही करते रहे । इसी प्रकार उन्होंने अपने धर्म का प्रचार किया। देश में पर्यटन करते थे पर भिक्षा नहीं माँगते थे उनकी जीविका का साधन था पैतृक व्यवसाय । इसके साथ-साथ वे स्वयं दूसरों को भी दान दिया करते और साधु-संतों का आदर-सत्कार करते थे। वे निर्भीक प्रकृति के थे। इसी मनोवृत्ति के कारण उन्हें तत्कालीन लोदी सम्राट सिकन्दर से संघर्ष करना पड़ा, मुसीबतें उठानी पड़ीं; पर वे अपने पथ से च्युत नहीं हुए। कबीर एक गृहस्थ थे पर सन्त भी थे । वे त्यागी, स्पष्टवक्ता, सदाचारी और कटु आलोचक थे। इन्हीं गुणों के कारण उनके पदों में कडुआपन है और उनके अंतर की कोमलता रहस्यपूर्ण पदों में प्रस्फुटित हुई है।
कबीरदास का साहित्यिक परिचय
कबीर दास जी एक महान साधक थे और उनकी साधना पद्धति की मूल विशेषता यह है कि उन्होंने राम और रहीम दोनों को ही एक माना है। हिन्दुओं के अन्धविश्वासों पर व्यंग्य करने के साथ-साथ मुसलमानों की क्रूरता और हिंसा का भी उपहास किया है और कबीर पन्थ में तो हिन्दू और मुसलमान दोनों ही सम्मिलित थे। कबीर के सिद्धान्तों में तो आचार-विचारों को अत्यन्त महत्व दिया गया और उन्होंने आत्मदर्शन के हेतु आचार- (विचारों की शुद्धता अनिवार्य समझी है तथा आत्मज्ञानी में संयम, संतोष, सुशीलता, निर्विकारता, गम्भीरमति, धैर्य, दया, निर्वेद, समता, कोमलता, सेवा, परस्वार्थ, निष्काम कर्म आदि गुण आवश्यक गाने हैं। इसी प्रकार डॉ. इन्द्रनाथका भी यही कहना है “उन्होंने योगियों का हठयोग, सूफियों का प्रेम, ब्राह्मणों का अद्वैतवाद और मुसलमानों का एकेश्वरवाद लेकर उसको ऐसा रूप दिया कि उसमें मानवता की काया निखर उठी और साधक और भक्तों को अपने अनुकूल वस्तु मिल गई ।”
भक्तिकाल की ज्ञानाश्रयी शाखा के समुज्वल रत्न होते हुए भी कबीर ने भक्ति का निरादर नहीं किया और भगवत साधना ही उनका उद्देश्य रहा है। उन्होंने रामानन्द के प्रधान उपदेश, ‘अनन्य भक्ति’ को स्वीकार किया है और निष्काम भक्ति को प्रधानता देते हुए राम नाम का महत्व भी स्वीकार किया है लेकिन उन्होंने अवतारवाद का खण्डन किया है और रामावतार को भी नहीं माना तथा यही कहते हैं ‘दशरथ कुल अवतार नहिं आया। नहि लंका के राय सताया। उनका राम नाम भगवान का पर्यायवाची है तथा उसमें रंकार की धुनि है जो सर्वत्र व्याप्त है–
राम के नाम से पिंड ब्रह्मांड सब, राम का नाम सुनि भरम मानी ।
निरगुन निरंकार के पार परब्रह्म है, तासु की नाम रंकार जानी ॥
साथ ही राम की महिमा गाते हुए भी कवि उसके लिए हृदय की सच्चाई और भक्ति आवश्यक समझता है।
रामानन्द का शिष्यत्व ग्रहण करते हुए भी और भक्ति, अहिंसा, दया, क्षमा आदि गुणों में रामानन्द से प्रभावित होते हुए भी दार्शनिक सिद्धान्तों में कवि का मन शांकर वेदांत में अधिक रमा है और उनके ही सिद्धान्तों द्वारा वह उपनिषदों के ज्ञान में प्रभावित हुआ है। ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या’ की झलक उनकी निम्नांकित पंक्ति में स्पष्टतः दीख पड़ती है। ‘बाजी झूठ, बाजीगर साँचा, साधुन की मति ऐसी ।’ कचौर जीव और ब्रह्म की पूर्ण एकता भी मानते थे, तथा समुद्र का भी बूंद में समा जाना। स्वीकार कर उन्होंने अद्वैतता का परिचय दिया है–
हेरत हेरत हे सखी हेरत गया हिराय ।
बुद समानी समुद्र में सो कित हेरी जाय ॥
एक सफल साधक के साथ साथ कबीर एक कुशल कवि भी थे, तथा डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में “वे साधना के क्षेत्र में युग गुरु थे और साहित्य के क्षेत्र में भविष्य स्रष्टा ।” कबीर की कविता को कवित्वहन कहना अनुपयुक्त ही है। और इसमें कोई संदेह नहीं कि उनके मानस में सच्चाई थी तथा आत्मा में असीम साहस । अतः स्वाभाविक ही उनकी बाजी में शक्ति आ गई और जैसा कि डॉ इन्द्रनाथ मदान का कहना है”अनुभूति की गहराई कबीर में इतनी है कि सीधे हृदय पर चोट करते हैं…… यद्यपि कबीर प्रतिज्ञा करके कविता लिखने नहीं बैठ तथापि यदि कोई कविता की मार्मिक अनुभूति ढूंढना चाहे तो उसे निराश नहीं होना पड़ेगा में अपनी इस अनुभूति के बल पर सहज ही महाकवि कहे जा सकते हैं। उनकी कविता में छन्द और अलंकार गौण हैं, संदेह प्रधान है। वह संदेह इतना प्रधान है कि उनकी कविता में अलंकारादि का चमत्कार न होने पर भी इसकी कमी नहीं है।
इसी संदेश के बल पर महान कवि हैं…… उनका काव्य जीवन के अत्यन्त निकट है, जो रहस्यवाद की अनुभूति से आच्छादित होते हुए भी स्फटिक की भाँति स्वच्छ और कांच की भाति पारदर्शी है।”
कबीर ने अपनी बोली को पूर्वी कहा है, परन्तु परशुराम चतुर्वेदी उनकी उस साखी का आध्यात्मिक अर्थ ग्रहण करना ही उचित समझते हैं। आचार्य शुक्ल जी और बाबू गुलाबराय ने तो उनकी भाषा को सघुकड़ी या खिचड़ी भाषा कहना ही। उपयुक्त समझा है, परन्तु पुरुषोत्तमलाल श्रीवास्तव उसे खड़ी दक्खिनी का पूर्व रूप मानते हैं। कबीर की कृतियों का सम्यक अनुशीलन करने पर उनकी भाषा के पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी और पंजाबी नामक तीन रूप दृष्टिगोचर होते हैं लेकिन उनकी भाषा के पंजाबीपन को प्रान्त विशेष के भक्तों और कतिपय लिपिकारों का प्रसाद समझना चाहिये । यद्यपि पूर्वी बोली का प्रभाव उनकी समस्त कृतियों पर पड़ा है, लेकिन उनके गीतकाव्य की भाषा ब्रज ही है।
कबीर की वाणी में अलंकार घुल-मिल गये हैं, तथा शब्द अलंकारों और अर्थालंकारों का हो उन्होंने स्वाभाविक प्रयोग किया है। सामान्यता उन्होंने रूपक अलंकार का ही अधिकतर प्रयोग किया है परन्तु रूपक के साथ साथ अनुप्रास, विभावना, असंगति, अन्योक्ति, उपमा, उत्प्रेक्षा, उदाहरण, श्लेष और भासोक्ति का भी प्रयोग किया गया है। साथ ही लोकोक्तियों, मुहावरों और कहावतों की भी उनकी कविता में अधिकता है तथाओं के कथनानुसार इन्होंने ऐसी विलक्षण रचना की है कि इनके सैकड़ों पर कहावतों के रूप में आज सब छोटे बड़ों की जिला पर हैं।
छंद योजना की दृष्टि से विचार करते समय भी हम यही देखते हैं कि कबीर को ऊपमाला, सार, वोटक, विष्णूपद आदि छंदों के उपयोग में पूर्ण सफलता मिली है और उनके प्रायः सभी पद पूर्णतः देय है तथा संगीत की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं। परशुराम चतुर्वेदी के शब्दों में कबीर साहित्य में केवल पदों का रागानुसार किया गया। विभाजन ही नहीं मिलता, उसमें बहुत से ऐसे उदाहरण भी पाये जाते हैं जिनसे कबीर साहब की संगीत के प्रति अभिरुचि तथा उनका तद्विषयक अभिज्ञता का परिचय प्राप्त किया जा सकता है।
अतः यहाँ यह कहा जा सकता है कि कबीर की कविता का भावपक्ष तथा संगीतात्मकता की दृष्टि से वह निस्संदेह सराहनीय है। डॉ. श्यामसुन्दर दास ने उचित ही लिखा है, “निर्गुण सन्त कवियों में प्रचार की दृष्टि से तथा कविता की दृष्टि से भी कबीर का स्थान सर्वोपरि है, उनके पीछे प्रायः सब सन्तों ने अधिकतर उनका ही अनुसरण किया है।