भारतेन्दु युगीन काव्य की विशेषता / प्रवृत्तियाँ || bharatendu yug ki visheshta ya pravritti

भारतेन्दु युगीन काव्य (bharatendu yug ki visheshta ya pravritti)

भारतेन्दु युगीन कवियों का काव्यफलक अत्यन्त विस्तृत है उनकी रचना प्रवृत्तियाँ एक ओर भक्तिकाल और रीतिकाल से अनुबद्ध हैं, तो दूसरी ओर समकालीन परिवेश के प्रति जागरूकता का भी अभाव नहीं है।

भारतेन्दु युगीन काव्य प्रवृत्तियाँ / भारतेन्दु युगीन काव्य की विशेषता

प्रवृत्तियों का विश्लेषण निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है।

राष्ट्रीयता

भारतेन्दुयुगीन कवियों ने भारतीय जनमानस में देशप्रेम की अलख जलाई। क्षेत्रीयता से ऊपर उठकर वे सम्पूर्ण राष्ट्र की नब्ज को टटोलने लगे। भारतेन्दु की ‘विजयिनी विजय वैजयन्ती’, प्रेमघन की ‘आनन्द अरुणोदय’, प्रतापनारायण मिश्र की ‘महापर्व’ और ‘नया संवत् राधाकृष्णदास की भारत बारहमासा और ‘विनय’ शोषक कविताएँ देशभक्ति की प्रेरणा से युक्त हैं। प्रेमघन ने ‘हार्दिक हर्षादर्श’ कविता में इस स्वार्थपूर्ण शासन प्रक्रिया के लिए भी ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दोषी ठहराया है। राधाचरण गोस्वामी की कविता ‘हमारो उत्तम भारत देस’ एवं राधाकृष्णदास की कविता ‘भारत बारहमासा’ आदि कविताएँ देश प्रेम से ओतप्रोत हैं। भारतेन्दु जी की कविता का एक उदाहरण जिसमें अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे शोषण का चित्र प्रस्तुत है

भीतर भीतर सब रस चूसै, हँसि हँसि के तन मन धन मूसै।

जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन नहिं अंग्रेज।।

सामाजिक चेतना

कवियों ने सामाजिक जीवन की उपेक्षा न कर जनता की समस्याओं के निरूपण की ओर पहली बार व्यापक रूप में ध्यान दिया।

भारतेन्दु युग में नारी-शिक्षा, विधवाओं की दुर्दशा, अस्पृश्यता आदि को लेकर जो सहानुभूतिपूर्ण कविताएँ लिखी गईं, उनके प्रतिपाद्य की नवीनता ने सहृदय-समुदाय को विशेष रूप से आकृष्ट किया। मध्यवर्गीय सामाजिक परिस्थितियों का चित्रण किया, तो दूसरी ओर रूढ़ियों का विरोध करते हुए विकास चेतना की आकांक्षाओं को भी अभिव्यक्ति दी। युगीन समस्याओं की जानकारी ऐसे कवियों को भी पूरी तरह थी किन्तु उनके समाधान के लिए वे परम्परागत धर्म शास्त्र को ही आधार बनाना चाहते थे। भारतेन्दु ने ‘भारत-दुर्दशा’ नाटक में वर्णाश्रम धर्म की संकीर्णता का इन शब्दों में विरोध किया “बहुत हमने फैलाए धर्म, बढ़ाया छुआछूत का कर्म।” ‘मन की लहर’ में प्रतापनारायण मिश्र की दृष्टि बाल-विधवाओं की करुण दशा की ओर गई है ‘कौन करेजो नहि कसकत सुनि विपति बालविधवन की।’

भारतीय अर्थशास्त्र को सुदृढ़ करने की कामना से इस युग के कवियों ने स्वदेशी उद्योगों को प्रोत्साहन देने और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करने पर भी बल दिया है। ‘जीवन बिदेस की वस्तु लै ता बिन कुछ नाहि करि सकत’ के प्रतिपादक भारतेन्दु ने ‘प्रबोधिनी’ शीर्षक कविता में विदेशी वस्तुओं के बिहार के अल्पज्ञात कवि हरिनाथ पाठक की ‘श्री ललित रामायण’ वहीं के कवि अक्षय कुमार द्वारा प्रणीत ‘रसिकविलास रामायण’ और बाबू तोताराम की ‘राम-रामायण’ रामभक्ति के सन्दर्भ में उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। हरिनाथ पाठक की रचना से कृष्ण काव्य की सुपरिचित श्रृंगार पद्धति के अनुसरण में लिखित यह पद द्रष्टव्य है

गुरुगवा बोले बिपिन मेरे भोरे।

सुखद सेज सोवत रघुनन्दन, जनक लली संग कोरे।

प्रीतम अंक लगी महाराणी शापति सुनि धग सोरे।।

बन में अवरन जागे घग सब, शब्द करत झकझोर।

जन हरि नाथ समय सुखदायक, नहि भावत मन मोरे।।

प्रतापनारायण मिश्र के अतिरिक्त प्रायः सभी मुख्य कवि श्रृंगार वर्णन की ओर उन्मुख रहे हैं। भारतेन्दु ने ‘प्रेम-सरोवर’, ‘प्रेम-माधुरी’, ‘प्रेम तरंग’, ‘प्रेम फुलवारी’ आदि में भक्ति, श्रृंगार और विशुद्ध श्रृंगार दोनों का समावेश किया है।

प्रेमघन की ‘युगल मंगल स्त्रोत’ तथा वर्षा-बिन्दु भी इसी तरह की रचनाएँ हैं। सौन्दर्य, प्रेम और विरह की व्यंजना में कहीं-कहीं ये दोनों ही कवि उर्दू काव्य-शैली से भी प्रभावित हुए हैं, किन्तु नखशिख और नायिका भेद पर परम्परित शैली में काव्यरचना शैली से भी प्रभावित हुए हैं, किन्तु नखशिख और नायिका भेद पर परम्परित शैली में काव्य रचना आयात को भारत की आर्थिक दुर्गति का मूल कारण माना गया है। भारतेन्दु और प्रतापनारायण मिश्र ने समाज की पीड़ा को क्रमशः इन शब्दों में व्यक्त किया है

(अ)

        रोबहू सब मिलि, आवहु भारत भाई।

         हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाई।।

(आ) 

तनहि लख्यों जहं रक्षो एक दिन कंचन बरसत ।

तहं चौथाई जन रूखी रोटिंहु को तरसत ।।

जहं आमन की गुठली अरू विरछत वी छालें।

ज्वार चून मंह मेलि लोग परिवारहिं पालें।।

नौन तेल लकरी घासहु पर टिकस लगे जहं।

चना चिरौंजी मोल मिलें जहं दीन प्रजा कहं।।

भक्ति – भावना

निर्गुण-भक्ति इस काल की मुख्य साधना दिशा नहीं थी। फलस्वरूप कुछ कवियों के प्रभावस्वरूप संसार की नश्वरता, माया-मोह की व्यर्थता विषयासक्ति की निन्दा आदि विषयों पर जो उपदेशात्मक ढंग से विचार व्यक्त किए हैं, किन्तु ब्रह्म-चिन्तन और हठयोग जैसे विषयों पर तो उपदेशात्मक ढंग से विचार व्यक्त किए हैं किन्तु जब ब्रह्म चिन्तन और हठयोग जैसे विषयों पर काव्य रचना उन्हें अभीष्ट नहीं रही। इसके विपरीत वैष्णव भक्ति के अन्तर्गत राम, कृष्ण और अन्य देवी-देवताओं का वर्णन अनेक कवियों का साध्य रहा।

ऋतु-सौन्दर्य के स्थान पर कवियों ने ऋतु विशेष में नायक-नायिका की मनोदशाओं के वर्णन में अधिक रुचि ली है।

भारतेन्दु ने ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक में गंगा वर्णन में और ‘चन्द्रावली’ नाटिका में यमुना-वर्णन किया तो है, किन्तु अलंकार-भार के कारण इनमें इनकी स्वतन्त्रता अनुभूति की क्षमता बहुत कुछ दब-सी गई है।

हास्य-व्यंग्य

भारतेन्दु युग में हास्य-व्यंग्यात्मक कविताओं की भी प्रचुर परिमाण में रचना हुई। कवियों ने विषय और शैली की दृष्टि से अनेक नए प्रयोग किए। इस दिशा में भारतेन्दु का योगदान सर्वाधिक है। अपने नाटकों के प्रगीतों में कहीं-कहीं शिष्ट हास्य को स्थान देने के अतिरिक्त उन्होंने व्यंग्यगीतियों और मुकरियों की भी रचना की है। उनकी व्यंग्यगीतियों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

पैरोड़ी, स्यापा और गाली। ‘नए जमाने की मुकरी’ शीर्षक से उन्होंने समकालीन सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों को ले कर कुछ मनोहारिणी मुकरियों की भी रचना की है, जिन पर अमीर खुसरो की शैली की इन्होंने नहीं की।

भारतेन्दु के बाद इस क्षेत्र में ठाकुर जगमोहन सिंह ही विशेषतः उल्लेखनीय हैं, यों ‘बेनी द्विज, गोविन्द गिल्लाभाई, हनुमान, गोप, दिवाकर भट्ट, रामकृष्ण वर्मा, बलवीर’ प्रभृति कुछ अन्य कवियों ने भी श्रृंगार रस के मनोहारी कवित्त सवैयों की रचना की है।

अम्बिकादत्त व्यास की ‘पावस पचासा’ भी इसी युग की रचना है किन्तु प्रेम का जैसा निश्छल, सरस और रागात्मक वर्णन जगमोहन सिंह ने किया है, वैसा भारतेन्दु के यहाँ भी सर्वत्र सुलभ नहीं है। उदाहरणस्वरूप, ‘प्रेमसम्पत्तिलता’ से एक सवैया देखिए

अब यों उर आवत है सजनी, मिलि जाऊँ गरे लगि कै छतियाँ।

मन की हरि भाँति अनेकन औ मिलि कीजिय री रस की बतियाँ।

हम हारि अरी करि कोटि उपाय, लिखी बहु नेह भरी पत्तियाँ।

जगमोहन मोहनी मूरति के बिना कैसे करें दुख की रतियाँ।।

प्रकृति-चित्रण

प्राकृतिक सौन्दर्य का स्वच्छन्द वर्णन भारतेन्दुयुगीन कविता की अंगभूत विशेषता है, किन्तु अधिकतर कवियों ने परम्परा निर्वाह ही किया है।

भारतेन्दु-कृत ‘बसन्त होली’, अम्बिकादत्त दास की ‘पावस-पचासा’।

गोविन्द गिल्लाभाई की ‘षड्ऋतु’ और ‘पावस-पयोनिधि’ आदि कृतियों में बसन्त ऋतु और वर्षाकाल का आलम्बनात्मक चित्रण विरल है।

मुँह जब लागै तब नहिं छूटे, जाति मान धन सब कुछ लूटे।

पागल करि मोहिं करे खराब, क्यों सखि साज्जन? नहीं सराब ।।

‘प्रेमघन-सर्वस्व’ का ‘हास्य-बिन्दु’ शीर्षक प्रकरण समसामयिक स्थितियों के विनोदपूर्ण वर्णन और तज्जनित उ‌द्बोधन की दृष्टि से ध्यान आकृष्ट करता है। प्रतापनारायण मिश्र की ‘तृप्यन्ताम्’, ‘हरगंगा’, ‘बुढ़ापा’ और ‘ककाराष्टक’ शीर्षक कविताएँ भी अपनी नई तर्ज के लिए प्रसिद्ध हैं।

अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त नवयुवकों द्वारा भारतीय नीति-रीति को त्यागकर पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करने पर उन्होंने अत्यन्त मार्मिक व्यंग्य किया हैः

जग जानै इंगलिश हर्में, वाणी वस्त्रहिं जोय।

मिटै बदन कर श्याम रंग-जन्म सुफल तब होय ।।

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