अपभ्रंश काव्य परंपरा और अपभ्रंश काव्य की वस्तुगत, भावगत और शिल्पगत विशेषताएँ

अपभ्रंश काव्य परंपरा और अपभ्रंश काव्य की वस्तुगत, भावगत और शिल्पगत विशेषताएँ

अपभ्रंश काव्य साहित्य के अन्तर्गत निम्नलिखित साहित्य का समावेश है.

जैन साहित्य

जिसमें मतों में धार्मिक, ऐच्छिक रूप हैं तथा उनमें प्रबंध काव्य एवं मुक्तक काव्य की रचना हुई है उसके भी दो भेद रहे

(1) रहस्यात्मक,

(2) उपदेशात्मक ।

जैनत्तर साहित्य

जिसमें (1) बौद्ध साहित्य, (2) नाथ साहित्य, (3)

बौद्धेत्तर साहित्य हैं। प्रथम दो धार्मिक साहित्य में एवं तीसरा लौकिक साहित्य में है

अपभ्रंश साहित्य का विभाजन इस प्रकार हैं-

(1) पुराण साहित्य – ‘पउम चरिउ’-जैसे जैनों द्वारा रचित पुराण ।

(2) चरित काव्य– ‘करकण्डचरिउ’- जैसे जैनों द्वारा रचित ऐतिहासिक काव्य ।

(3) कथा काव्य-भविसयत्त ‘कहा’ जैसे जैनों द्वारा रचित तथा काव्य ।

(4) जैन धर्म-पाहुण्ड दोहा-जैसे जैन मुनियों का रहस्यवादी तथा उपदेशात्मक

(5) बौद्ध धर्म-सिद्धों के पद एवं दोहे-रहस्यमयी उक्तियाँ ।

(6) लौकिक काव्य-हेमचन्द्र के दोहे-लोकरस के दोहे एवं अन्य कृतियाँ ।

जैन अपभ्रंश रचनाओं को पहले दो धाराओं में विभक्त किया जा सकता है- धार्मिक एवं लौकिक । धार्मिक प्रवृत्तिमूलक रचनाओं के भी दो वर्ग हैं-प्रबन्ध वर्ग एवं मुक्तक वर्ग । प्रबन्ध वर्ग के भी कई अवान्तर भेद हैं-पौराणिक, चरितात्मक, कथात्मक । इसी प्रकार मुक्तक वर्ग के भी दो भेद हैं-उपदेशात्मक एवं रहस्यात्मक । प्रबन्ध वर्ग हिन्दी के प्रबन्धात्मक ऐतिहासिक काव्यों के, तथा उपदेशात्मक मुक्तक जैन रचनाएँ नाथ साहित्य एवं निर्गुणियाँ साहित्य की प्रवृत्तियों के समझने में सहायता देती है। लौकिक रस का साहित्य जिसमें श्रृंगार, नीति एवं शौर्य की रसमयी वृत्तियाँ हैं, रीतिकालीन साहित्य को समझने में सहायता देती हैं ।

प्रबन्ध धारा

ये काव्य पद्धड़ियाँ बंध में लिखे गए है। इनमें पद्धरी या पद्धड़ियाँ छंद की आठ-आठ या कभी-कभी कुछ न्यूनाधिक पंक्तियों के बाद ‘घत्ता’ दिया रहता है। सब मिलाकर इन्हें ‘कड़वक’ कहते हैं। ‘पद्धरी’ एक मात्रिक छंद है, जिसमें 16 मात्राएँ होती हैं । इस ‘पद्धड़िया वंध’ के प्रवर्त्तक हैं-चतुर्मुख । हरिषेण ने अपनी धम्मपरीक्वा’ में चतुर्मुख का उल्लेक किया है। स्वयंभू ने स्वयं कहा है-‘चउमुहेण समप्पिय पद्धड़ियाँ ।”

त्रिविध प्रबंध धारा

इन प्रबंधकार कवियों ने चतुर्भुज, स्वयम्भू, ईशान, पुष्पदंत, चतुर्मुख, धनपाल आदि हैं। पुराणात्मक प्रबंध निर्माताओं में स्वयम्भू एवं पुष्पदंत अग्रगण्य हैं। दोनों ने राम कथा को आधार मानकर महाकाव्यों की रचनाएँ की हैं। स्वयम्भू अपभ्रंश के सर्वप्रथम महाकवि हैं। विद्वानों ने इनका समय आठवीं शताब्दी माना है। इनकी चार महत्त्वपूर्ण रचनाओं का पता चला है, पउमचरिउ, रिट्टशेमि चरिउ, पश्चिमी चरिउ और स्वभूयं-छंद । इनकी कारयित्री प्रतिभा का लोकोत्तर चमत्कार ‘पउमचरिउ’ में मिलता है । स्वयम्भू-छन्द में कई पुरातन अपभ्रंश कवियों की रचनाएँ हैं, जिनसे यह पता चलता है कि इनके भी पूर्व अपभ्रंश साहित्य की बहुत महत्त्वपूर्ण परम्परा थी । पुष्पदंत के कई ग्रंथों का पता लगा है। ये दसवीं शताब्दी के कवि हैं। द्विवेदीजी का कहना है कि ये मान्यखेट के प्रतापी राजा कर्ण के महामात्य भीत के सभाकवि थे । इनकी तीन रचनाएँ हैं-स्वयम्भू की सब रचनाएँ पूरी-पूरी प्रकाशित नहीं हैं, पर इनकी तीनों रचनाएँ प्रकाशित हैं-तिसडि महापुरिसगुणालंकारु, णयकुमार चरिउ, जसहर चरिउ । यद्यपि इन लागों की दृष्टि धार्मिक है, तथापि इन रचनाओं में कवित्व शक्ति का अभूतपूर्व उन्मीलन हुआ है। इन प्रबन्धों के आधार तो ब्राह्मण पुराणों के ही कथानक हैं, पर उनमें जैन विचारों एवं विश्वासों की छौंक हैं। कहीं-कहीं तो कथानक एवं पुराण प्रसिद्ध व्यक्तियों का सम्बन्ध भी परिवर्तित कर दिया गया है। सीता को रावण की पुत्री मानना ऐसी ही घटना है। पुराण काव्यों के अनन्तर चरित काव्यों को देखें । इन काव्यों का हिन्दी साहित्य की दृष्टि से अधिक महत्त्व है। इनमें प्रेम कहानियों के माध्यम से जैन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। अवसर निकाल-निकाल कर जैन कृच्छाचारों का वर्णन किया गया है। इसमें से नायक नायिकाओं का पूर्वराग साक्षात् दर्शन या चित्र आदि के द्वारा होता है। बाद में वैवाहिक सम्बन्ध स्थिर हो जाता है । यद्यपि बाद में भी समय-समय पर इन प्रेमियों की परीक्षा होती है फिर भी जैन आचारों के पालन से वे सफल होते हैं, उन्हें पूर्ण सुख एवं शांति मिलती है । चरित्र काव्यों में थोड़े ही प्रकाशित हैं। उपलब्ध चरित्र काव्यों में करकण्डे चरिउ (12 वीं सदी) सुदर्शन चरिउ (11वीं सदी), पंजुण्ण चर्चारउ और सुकुमाल चरिउ (13वीं सदी), नेहिनाह चरिउ और पुरोशलचरिउ (15 वीं सदी) आदि-आदि रचनाएँ उल्लेखनीय है । प्रकाशित है केवल करकण्ड चरिउ । आचार्य ह.प्र. द्विवेदीजी ने लिखा है कि “इन चरित काव्यों के अध्ययन से परिवतीं काल के हिन्दी साहित्य के कथानकों, कथानक रूढ़ियों, काव्य रूपों, कवि प्रसिद्धियों, छंदोयोजना, वर्णन शैली, वस्तु-विन्यास, कवि-कौशल आदि की कहानी बहुत ही स्पष्ट हो जाती है । तीसरा भेद है कथात्मक प्रबन्धों का । धनपाल की ‘भविसयन कहा’ ऐसा ही कथा काव्य है ।

मुक्त धारा

प्रबन्ध के अतिरक्त इस धर्म का साहित्य मुक्तकों में भी लिखा गया है । ऊपर इसके भी दो रूप बताए गए हैं-रहम्यात्मक तथा उपदेशात्मक । प्रथम वर्ग में 8 वीं या 9 वीं सदी का कविवर जोइंदु, रामसिंह मुनि एवं सुप्रभाचार्य । जोड़ (योगीन्द्र) के दो ग्रंथ ‘परमात्म प्रकाश’ एवं ‘योगसार’ दोहों में उपलब्ध हुए हैं। इसमें रहस्यवादी कुछ उपदेश परक रचनाएँ हैं। इसी प्रकार रामसिंह मुनि (10वीं सदी) को ‘पाहुड़ दोहा’ भी रहस्यात्मक स्वर लिए हैं। नाथ पंथियों की रचनाओं से इन रचनाओ की प्रवृत्ति बेहद मिलती है। निर्गुणियाँ सन्तों की रचनाओं की एक प्राक्कालीन झाँकी यहाँ मिल जाती हैं। दूसरे वर्ग में उपदेश प्रधान रचनाएँ आती है। इस वर्ग के प्रमुख कवियों में कवि देवसेन, जिनदत्त सूरि आदि हैं। इनमें व्यवाहरिक जगत् की नैतिकता पर अधिक बल दिया गया है। ये मुक्तक दोहों और पदों के रूप में मिलते हैं।

लौकिक रचना

लोकरस की भावनाओं से ओत-प्रोत रचनाओं में हेमचन्द्र कृत व्याकरण में संकलित दोहे, जिनमें से कुछ निश्चित ही जैनेतर कवियों के होंगे तथा प्रबंध चिंतामणि आदि में आए हुए पदों की गणना है। इस दोहों में कही श्रृंगार रस की छटा छहर रही है तो कहीं वीर रस का ओज उमड़ रहा है। जहाँ-तहाँ नीति के दोहे भी दिखाई पड़ते हैं। इन दोहों से रीतिकालीन एवं डिंगल भाषाबद्ध रचनाओं की परम्पराओं का संवाद मिल जाता है और उनका ऐतिहासिक विकास समझने में ये काफी सहायता पहुँचती हैं ।

इन लोगों के अतिरिक्त भी यह पूर्वारम्भ अपभ्रंश काव्यों की परम्परा विद्याधर एवं शार्ङ्गधर (14 वीं सदी के अंतिम चरणों) तक चली गई है। शुक्लजी ने लिखा है अपभ्रंश की रचनाओं की परम्परा यहीं समाप्त होती है। यद्यपि पचास-साठ वर्ष पीछे विद्यापति (संवत् 1460) ने बीच-बीच में देशभाषा के कुछ पदों को रखकर छोटी- छोटी दो पुस्तकें लिखीं-कीर्तिलता एवं कीर्तिपताका । इस प्रकार काव्यभाषा देश भाषा की ओर उत्तरोत्तर बढ़ती गई और दसवीं सदी के बाद से संस्कृत शब्दों के प्रयोग की भी रुचि बढ़ती गई ।

बौद्ध सिद्ध और उनका अपभ्रंश साहित्य :

आत्मवाद एवं हिंसामय यज्ञों के विधायक वेदमूलक ब्राह्मण धर्म के विरोध में नैरात्म्यवादी एवं अहिंसा प्रधान उठ खड़े होने वाले बौद्ध धर्म की द्वितीय संगीति में अध्यात्म विषयक एवं आचार विषयक कुछ प्रमुख प्रश्नों को लेकर दो दल हो गए- थेरवादी एवं महासंधिक । थेरवाद प्राचीनता का पोषक था, जिसे ‘हीनयान’ भी कहते हैं और ‘महासंधिक’ ही अनेक स्तरों में परिवर्तित होता हुआ ‘महायान’ के रूप में परिणत हुआ । महासंधिक सम्प्रदाय ने जिस वैपुल्यवाद के रूप में विकसित होने पर ‘महायान’ नाम धारण किया, उसके सिद्धांत घोर उपद्रव मचाने वाले थे । वैपुल्यवादी सिद्धांतों में महायान के अतिरिक्त तान्त्रिक वज्रयान के बीच भी निहित थे । महायान के अनुयायी बौद्धों का शङ्कर एवं कुमारिल से टक्कर नने पर दार्शनिक क्षेत्र में प्रभाव घट गया, अतः निम्न वर्ग की जनता पर अपना आतंक जमाने के लिए इन लोगों को जादू, टोना, मंत्र एवं तंत्र का सहारा लेना पड़ा । 800 से 1200 विक्रमी तक बौद्धधर्म का यह वज्रयानी सम्प्रदाय में बिहार से लेकर आसाम तक फैला हुआ था । इनके बीच चौरासी सिद्धों की बड़ी मान्यता है ।

इन सिद्धों का साहित्य अपभ्रंश (Advance) में निबद्ध है। हैं तो ये चौरासी पर म.प्र. हरप्रसाद शास्त्री, डॉ. प्रबोधचन्द्र बागची, डॉ. शहीदुल्ला, पंच राहुल आदि के प्रयत्न से प्राप्त या प्रकाशित हो पाई है वे रचनाएँ 23, 24 सिद्धों की ही। इस सिद्ध साहित्य का उल्लेख भाषा एवं प्रवृत्ति की दृष्टि से ही यहाँ किया जाएगा ।

साधन-प्रधान रचनाएँ प्रवृत्ति की दृष्टि से देखने पर इन सिद्धों की रचनाएँ दो प्रकार की मिलती हैं-(i) रहस्यवादी एवं (ii) खण्डन प्रधान । रहस्यवादी रचनाओं के भीतर भी दो अवान्तर वर्ग किये जा सकते हैं- (i) साधनात्मक रहस्यवाद का विवरण एवं (ii) अनुभूतियों का रहस्यात्मक प्रकाशन । साधनात्मक रहस्यवाद के विवरण के भीतर (अ) परम तत्त्व को घट के भीतर ही पाने के लिए जोर दिया गया है- “देहहि रुद्ध वसंत न जाणइ ।” (ब) इनमें बाममार्ग या बामाचार ही साधन के रूप में स्वकृत था इसीलिए वे दक्षिण मार्ग के परित्याग एवं बाममार्ग के ग्रहण पर अधिक बल देते थे- “उजु रे उजु छाड़ि मा लेहु रे वंक ।” (स) कहीं-कहीं वारुणी पान एवं अंतःसाधना की चर्चा है- “सहजे थिर करि वारुणी साध ।” (द) उस दसवें द्वार की भी चर्चा मिलती है, जो नाथ पंथियों एवं निर्गुणियों में मिलती है- “दशमि दुआरन चिह्न दिखइया ।” (य) बज्रयानियों की योग तंत्र साधनाओं में मद्य तथा स्त्रियों का विशेष रूप में डोमिनी रजकी आदि-सेवन एक आवश्यक अंग माना जाता था । (फ) अनहदनाद की भी चर्चा मिलती है- “अनह डमरू बाजइ वीर नादे।” जिस प्रकार इनकी साधना रहस्यात्मक है, उसी प्रकार उनकी अनुभूतियों का प्रकाशन भी रहस्यात्मक एवं सांकेतिक है । इन रहस्यात्मक अनुभूतियों के अन्तर्गत मुख्यतः नैरात्म्य भावना, कायायोग, सहज-शून्य की साधना तथा विविध प्रकार की समाधि-जनित भावों का कथन आता है ।

सम्प्रति, इन लागों की कथन पद्धति पर भी विचार कर लेना चाहिए । आचार्य ह.प्र. द्विवेदीजी ने लिखा है कि “पदों की योजना इस प्रकार कि ऊपर से उससे कुत्सित, लोक-विरुद्ध अर्थ प्रकट हो, या परम्परा विरोधी अनर्थक बातें प्रतीत हों, किन्तु साधना के रहस्यात्मक शब्दों की जानकारी प्राप्त हो जाने पर साधनात्मक विशुद्ध अर्थ स्पष्ट हो जाय । इस प्रकार की उलटबासियों को ये सहजयानी लोग ‘संध्या-भाषा’ कहते थे । ‘संख्या भाषा’ शब्द के विद्वानों ने तीन अर्थ किये हैं- (i) बिहार एवं बंगाल की संधि पर सिद्धों द्वारा व्यवहृत भाषा होने के कारण यह संधि-भाषा या संध्या भाषा कही जाती है । (ii) म.प्र. विधुशेखर भट्टाचार्य ने इसे मूलतः “सन्धा” शब्द माना है और ‘संधाय’ का अपभ्रष्ट रूप कहा है। ‘संधाय’ का अर्थ होता है- ‘अभिप्रेत्य’ । अर्थात् इस भाषा के मूल में दुरभिसन्धि है-अभिप्राय विशेष है और यह दुरभिसंधि या दुरभिप्राय है । ब्राह्मणों का विरोध । (iii) तीसरा अर्थ है म.प्र. हरप्रसाद शास्त्री का किया हुआ उन्होंने इसका अर्थ सांझ की सी भाषा माना है। जहाँ कुछ स्पष्टता एवं कुछ अस्पष्टता रहती है । भट्टाचार्य सम्मत अर्थ की दृष्टि से इस प्रकार के प्रयोग वेदों में भी मिल सकती हैं, पर प्रसिद्धि हुई इस शब्द की बौद्धधर्म के इस परिणत रूप में जन-साधारण पर इसका प्रभाव अधिक था । इसलिए अन्य लोग भी इसी प्रकार की भाषा का प्रयोग करते थे। “बलद वियाएल गबिया बांझे” ऐसे ही प्रयोग है। रहुलजी ने संत कवियों की उलटबासियों पर सिद्धों का प्रभाव माना है। दूसरे ने कहा है कि दोनों अर्थात् सहजयानियों की सन्ध्या भाषा तथा सन्तों की उलट बासियों में बड़ा अन्तर माना है। संतों की ऐसी वाणी विरोधाभास परक अर्थ अप्रकृत है और उससे ध्वनित अर्थ प्रकृत जबकि सिद्धों में यह बात नहीं है । द्विवेदीजी इस भेदारोप को उचित नहीं मानते । सूरदास के दृष्टिकूटों में भी यही बताया गया है। ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ में यह मत स्थिर करते हुए भी अपने ‘हिन्दी साहित्य’ में उन्होंने इस धारणा का खण्डन किया है कि “यह परम्परा नाथ’ योगियों की मध्यस्थता में हिन्दी के निर्गुण मार्गी कवियों की रचनाओं में भी पायी जाती है।” कहा है- “ब्रजयानी सिद्धों के साथ नाथ सिद्धों का कभी घनिष्ठ योग था। इनकी शैली बहुत कुछ खड़ी सहयानी सिद्धों की शैली ही है। परवर्ती हिन्दी साहित्य के नर्गुिण मार्ग के साधक सन्तों ने इन्हीं नाथ सिद्धों से इस शैली को प्राप्त किया है।”

भाषा

भाषा की दृष्टि से इन सिद्धों की रचनाओं का अध्ययन करने पर यह निश्चित होता है कि इन लोगों ने अपनी रचनाएँ दोहों एवं पदों में की है। शुक्लजी के मत से सिद्धों की रचनाओं की भाषा देश-भाषा मिश्रित अपभ्रंश या पुरानी हिंदी की काव्य भाषा है। इसे (Advance) अपभ्रंश भी कहा गया है। दोहा-वद्ध उपदेशों की भाषा तो पुरानी काव्य भाषा के निकट अधिक है पर गेय-पदों की भाषा पुरानी बिहारी या पूरबी बोली है। आगे चलकर कबीर की भाषा में भी हमें यही भेद उपलब्ध होता है । “साखी” की खड़ी बोली राजस्थानी मिश्रित ‘सधुक्कड़ी भाषा’ है, पर ‘रमैनी’ के पदों में काव्य की ब्रजभाषा एवं कहीं-कहीं पूरबी बोली भी है ।

नागपंथियों का साहित्य

इस सम्प्रदाय के पुनः प्रवर्त्तक गोरक्षनाथ या गोरखनाथ कहे जाते है । इसके समय बज्रयानी शाखा थी, पर उस शाखा की बर्हिमुखी कृत्सक प्रवृत्ति को देखकर ये उससे तटस्थ रहे और अपना एक पृथक् सम्प्रदाय संगठित किया वज्रयनियों की विषयोन्मुख प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया में परिणाम यह हुआ है कि इस सम्प्रदाय में शुद्ध आचरण एवं इन्द्रिय संयम आदि पर बहुत बल दिया गया । यह यहाँ तक हुआ कि अन्य तो अन्य र्गाहस्थ्य संमत सुख की भी बहुत निन्दा की गई । बौद्ध सिद्धों की भाँति योग एवं तन्त्र को साधना तो अनुवृत्त हुई, पर नवीनता इस बात में हुई कि इनमें शैव मत की भी बहुत सी बातें आ गई । शैव प्रभाव ही है कि गोरखनाथ की कल्पना शिव के रूप में हुई । गोरखनाथ के समय के सम्बन्ध में बहुत से मतवाद हैं। पहली, दूसरी शताब्दी से लेकर 14 वीं, 15वीं शताब्दी तक इनका समय फैला हुआ है। शिष्ट प्रमाण के आधार पर मिश्र बन्धुओं ने 15वीं सदी का माना है। कुछ लोग इस पुस्तक के शिष्य प्रणीत होने के कारण इससे पूर्ववर्ती मानते हैं। कुछ लोग “गोरख कबीर गोष्ठी” के आधार पर भी पन्द्रहवीं सदी ही मानते हैं ।

जन-श्रुतियाँ तो इन्हें भिन्न-भिन्न लोगों का समसामयिक सिद्ध करती है । कोई जन-श्रुति पृथ्वीराज का समकालिन भी बताती है। राहुलजी ने जो समय स्थिर किया है वह मीनपा को राजा देवपाल का समसामयिक और मत्स्येन्द्र का पिता मानकर । पर यदि मत्स्येंद्र का मीनपा से कोई सम्बन्ध न हो, तो यह अनुमान खिसक जायेगा । संत ज्ञानेश्वर की दी हुई नाथ शिष्य परम्परा में लोग अधिक से अधिक नवम् एवं दशम शतक का मानते है । डॉ. मोहन ने छठी सदी स्थिर किया है। डॉ. द्विवेदी तिब्बती परम्परा को अधिक युक्ति-युक्त देखते हैं । कुछ लोगों का आग्रह है कि इन्हें 12वीं सदी का नामना ठीक है । इस पक्ष के पोषण के लिये आल्हा, गोपीचन्द आदि से सम्बन्ध जन-श्रुतियाँ, इव्नवतूता के योगियों विषयक लेख, कबीर, तुलसी एवं जायसी के साहित्य में इनका उल्लेख एवं हठयोग की परम्परा आदि को सामने किया जाता है।

नाथ साहित्य

नाथ साहित्य समय के अनंतर इनकी रचनाओं का प्रश्न आता है। इस पंथ का साहित्य संस्कृत एवं लोग भाषा दोनों में लिखा गया है। इनके नाम पर लिखी हुई संस्कृत एवं लोक-भाषा में लिखी हुई बहुत सी रचनाएँ प्राप्त हुई हैं। असल में इनमें से बहुत तो इनके शिष्यों एवं सम्प्रदायार्तवर्ती योगियों की लिखी हुई है। लोग भाषा में रचना करना सम्भव है, क्योंकि उस समय वह प्रचार में थी और अपने धर्म का प्रचार इष्ट था ही । सिद्धों ने भी तो व्यवहार की भाषा का आश्रय लिया था। हिन्दी में लिखी पुस्तकें गद्य एवं पद्य दोनों में है, जो 1400 सं. के आस-पास लिखी गई है। शुक्लजी का अंदाज है कि इन हिन्दी पुस्तकों में कुछ संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद रूप में भी है । डॉ. बड़श्वाल ने 40 नाथ पंथी पुस्तकों का पता लगाया था, जिसमें 13 प्रकाशित की गई है । ‘संबदी’ को बड़श्वालजी का गोरखनाथ वृत्त कहने पर बड़ा बल है। डॉ. मोहनसिंह ने गोग्ख-बोध में प्रस्तुत सिद्धान्तों को बड़ा प्रमाणिक माना है । इधर आकर बागची साहब ने भी रचना-अन्वेषण के क्षेत्र में प्रर्याप्त यत्न किया है। हिन्दी की उपलब्ध रचनाओं को भाषा की दृष्टि से देखने पर उनकी बहुत प्राचीनता नहीं जान पड़ती । हाँ, ‘सबदा’ की भाषा अवश्य प्राचीन है। गोरखनाथ के समय में जो भाषा लेखन-क्षेत्र में व्यवहत हो रही थी, उसमें प्राकृत या अपभ्रंश का थोड़ा बहुत प्रभाव अवश्य था । इस भाषा को अपभ्रंश न कहकर पुरानी हिन्दी ही कहना अधिक उपयुक्त है। संवाद पद्धति इन ग्रंथों की एक उल्लेखनीय बात है ।

विषय-विषय की दृष्टि से देखने पर लगता है कि इनमें भी परमतत्त्व की प्राप्ति के लिये किये जाने वाले बाह्य विधान निरर्थक बताये गये हैं। हठयोग जैसी घर के भीतर की जानेवाली आध्यात्मिक साधन पर बल दिया गया है। शील पर लोगों का बहुत ध्यान था-

“सहजशील का धरे शरीर, सो गिरही गंगा का नीर ।”

इस प्रकार लोकरस की नितान्त उपेक्षा ने इस साहित्य को अत्यन्त नीरस बना दिया । हिन्दी साहित्य की दृष्टि से इसकी यह उपादेयता अवश्य है कि इसने परिवर्ती हिन्दी काव्य को एक दृढ़ कण्ठ स्वर प्रदान किया ।

लोक रस परक अपभ्रंश साहित्य :

अभी तक जिन रचनाओं की चर्चा की गई है, वे सब धार्मिक है केवल जैन साहित्य के भीतर कुछ लोक रस परक साहित्य की चर्चा अवश्य की गई है। ऐसे साहित्य के भीतर विक्रमोवंशीय के कुछ अपभ्रंश पद शार्ङ्गधर पद्धति, प्रबोध चिन्तामणि, कुमारपाल प्रतिबोध आदि ग्रंथ है, जिनकी चर्चा पहले भी की जा चुकी है। इसमें श्रृंगार बीर, नीति आदि के दोहे हैं। जिनका सम्बन्ध रीतिकालीन धारा से है ।

उपसंहार-शुरू-शुरू में यह प्रश्न किया गया है कि वह अपभ्रंश साहित्य जो ‘हिन्दी’ भी नहीं, हिन्दी प्रदेशवर्ती भी नहीं, अधिकांशत ‘हिन्दी’ समकालीन भी नहीं- का उल्लेख हिन्दी साहित्य के इतिहास में क्यों किया गया है ? मैं समझता हूँ कि उक्त विवरण से इस प्रश्न का यथेष्ट उत्तर हो गया होगा। फिर भी यदि कुछ कहना ही हो तो कहा जा सकता है कि परवर्ती हिन्दी साहित्य भाषा एवं साहित्य दोनों की दृष्टि से अपभ्रंश प्रभावपन्न है । परिनिष्ठित अपभ्रंश के साथ पुरानी हिन्दी का जिसमें ब्रज, अवधी, बुंदेली, बधेली, राजस्थानी आदि की गणना की जाती है-घनिष्ठ सम्बन्ध तो है, परन्तु उसे बहुत निकट का सम्बन्ध नहीं कह सकते ।

भाषा की दृष्टि से तो चक्करदार सम्बन्ध हैं, पर साहित्य की दृष्टि से बिलकुल सीधा । साहित्य दृष्टि का अभिप्राय है-काव्य रूप, बंध, प्रवृत्ति एवं (अवशिष्ट) पद्धति । आधुनिक युग का आरम्भ होने से पूर्व हिन्दी कविता के प्रधानतः छः अंग थे- (i) डिंगल त्रियों की वीरगाथाएँ, (ii) निर्गुणियाँ सन्तो की वाणियाँ, (iii) कृष्ण-भक्त या रागानुगा भक्ति मार्ग के साधकों के पद, (iv) राम भक्त या वैधी भक्ति-मार्ग के उपासकों की कविताएँ, (v) सूफी साधना से पुष्ट मुसलमान कवियों के तथा (vi) ऐहिकता परक हिन्दू कवियों के रोमांस और रीति काव्य द्विवेदीजी की स्थापना है कि ये छहों धाराएँ, अपभ्रंश कविता का स्वाभाविक विकास है । रीतिकाल देश भाषा काल की रचनाओं का सम्बन्ध पश्चिमी अपभ्रंश से तथा भक्तिकाल का बहुत पूर्वी अपभ्रंश से सम्बन्ध है । यह तो हुआ प्रवृत्ति की दृष्टि से ।

‘बंध’ की दृष्टि से देखें, तो स्पष्ट है कि अपभ्रंश साहित्य में तीन प्रकार के बंध मिलते हैं-

(i) दोहा बंध, (ii) पद्धड़िया बंध तथा (iii) गेय पद बंध ।

अपभ्रंश के तीन बंध :

(i) दोहा बंध – यह अपभ्रंश का अपना छंद है, ठीक उसी प्रकार जैसे ‘गाथा’ प्राकृत का । अपभ्रंश साहित्य में इनका प्रयोग चार प्रकार से हुआ है। (अ) निर्गुण प्रधान और धार्मिक उपदेश मूलक दोहे, (ब) श्रृंगारी दोहे, (स) नीति विषयक दोहे, (द) वीररस के दोहे । अंतिम तीनों प्रकार के उदाहरण एक हेमचन्द्र में मिल सकते हैं और उनकी चर्चा पहल हो चुकी है।

(ii) पद्धड़िया बंध-इसका भी परिचय पहले दिया जा चुका है। इस बंध के भीतर ‘पद्धरी’ एवं ‘अलिल्लह’ दोनों छंदों को लिया जाता है। ये दोनों के दोनों 16 मात्रा के ही होते है। पहले का प्रयोग स्वयम्भू आदि में और दूसरे का जिनदत्त सूरि के रसायन-रास में उपलब्ध होता है। पश्चिमी भारत में 16 मात्रा वाले पद्धरी एवं अलिल्लह जैसे छंदों की आठ-आठ पंक्तियों पर धत्ता देने की प्रथा प्रचलित थी, और पूर्व भारत में चरित काव्यों के लिए दोहा-चौपाई की। सरहपा पहला सिद्ध है, जिसने दोहा, चौपाई का प्रयोग किया। प्रथम प्रकार की झलक पृथ्वीराज रासो एवं कीर्तिलता आदि में तथा द्वितीय प्रकार का रामायण, पद्मावत आदि में उपयोग मिलता है । चरित्र काव्यों के अतिरिक्त संतों ने अपने मुक्तकों में भी ‘रमैनी’ संज्ञा से चौपाइयों का प्रयोग किया है ।

(iii) यह बंध परिनिष्ठित नहीं ग्राम्य अपभ्रंश में मिलता है। (क) रासक डोम्बिका भादि इसी श्रेणी की रचनाएँ हैं। हिन्दी में केवल वीर राजाओं के नाम पर लिखे जाने के कारण ये काव्य भी ‘रासक’ या ‘रासो’ नाम से बोधित होने लगे, ठीक उसी प्रकार जैसे शार्दूलविक्रोडित से भरे रहने के कारण प्राकृत भाषा में निबद्ध नाटिका ‘सदृक’ (ख) दूसरे प्रकार के गेय काव्य बौद्ध सिद्धों के है, जिनकी परम्परा सूर, कबीर आदि में दृष्टिगोचर होती है । (इ) प्राकृत पैंगलम् से छप्पय, कुण्डलिया, रोला, उल्लाला आदि और भी छंदों का पता चलता है, जिसकी परम्परा हिन्दी मे सुरक्षित है ।

काव्यरूप, बंद एवं प्रवृत्ति के अतिरिक्त कथन पद्धति (उलटबाँसी आदि) भी हिनदी साहित्य में उतर आई है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि हिन्दी साहित्य अपभ्रंश साहित्य का ही परिवर्ती विकास है, फिर घनिष्ठ सम्बन्ध का प्रश्न ही नहीं उठता । एक बात और भी है कि जिस प्रकार अंग्रेजी एवं फ्रेंच साहित्यिक इतिहासकार पुरानी अंग्रेजी और पुरानी फ्रेन्ज को पृथक नहीं रखते, उसी प्रकार यदि हिन्दी साहित्यकार भी हिन्दी साहित्य के इतिहास में अपभ्रंश साहित्य की चर्चा करें, तो इसमें जरा भी अनौचित्य नहीं भाषित होना चाहिए ।

देशभाषा काव्यधारा

नामकरण की ग्राह्यता

अभी-अभी जिस अपभ्रंश काव्यधारा की चर्चा हुई है, उसकी सीमा 9 वीं सदी स लेकर 14 वीं सदी तक स्वीकृत की गई है। इस प्रकार ‘आदिकाल’ को निर्दिष्ट सीमा से परे जाकर भी ‘आदिकाल’ के भीतर उसकी चर्चा हिन्दी साहित्य का भाषा और साहित्य की दृष्टि से विकास दिखाने के लिये की गई है। साथ-साथ संक्षिप्त रूप में निर्दिष्ट सीमा के भीतर के कवियों की भी चर्चा की गई है। डॉ. राम अवध द्विवेदी आचार्य शुक्ल के ‘अपभ्रंश काल’ को ‘आदिकाल’ संज्ञा से बोधित कराने के पक्ष में है और ‘देशभाषा काव्य’ की ‘वीरगाथा काल’ नाम से । सुझाव बहुत दूर तक ठीक है, पर परम्परा ने अपभ्रंश को कभी हिन्दी कहा नहीं । यदि परम्परा का त्याग कर तर्क बुद्धि का सहारा लें, तो बात ठीक जान पड़ेगी । इस पुस्तक में आचार्य हजारीप्रसाद जी द्वारा सुझाया हुआ नाम ‘आदिकाल’ निर्दिष्ट सीमा के भीतर ली जाने वाली अपभ्रंश एवं देशभाषा-निबन्ध सामग्री की परिधि के लिये किया गया है । इन दोनों में से अपभ्रंश काव्यधारा का पूर्णतः परिचय दे दिया गया । सम्प्रति देशभाषा काव्यधारा का परिचय दिया जा रहा है।

इस धारा के नाम के सम्बन्ध में जिस प्रकार नाना मंतवाद हैं, उसी प्रकार देशभाषा काव्यधारा के आरम्भ-काल के सम्बन्ध में भी अनेक मतवाद है। कुछ लोग संवत् 1050 से, कुछ लोग सन् 1000 से तथा कुछ लोग 1200 से भी आरम्भ मानने के पक्ष में हैं। शुक्लजी के अनुसार हम सुविधा के लिए 1050 से 1375 संवत् तक ही इसकी परिधि मानते हैं ।

यह पहले ही कहा जा चुका है कि इस काल में दो प्रकार की रचनाएँ प्रमुख रूप से हुई-अपभ्रंश की एवं देशभाषा की। पहले का परिचय दिया जा चुका है। इस काल की सामग्री का और ढंग से भी विभाजन किया गया है-असंदिग्ध एवं संदिग्ध । हिन्दी प्रदेश के बाहर निर्मित होने वाला अपभ्रंश साहित्य असंदिग्ध तथा भक्ति काल से पूर्व हिन्दी की सीमा में निर्मित होने वाला साहित्य संदिग्ध। यह संदिग्ध साहित्य भी दो प्रकार का है- (i) प्रबन्ध काव्य एवं (ii) वीर गीत काव्य । देशभाषा काव्य के भीतर आचार्य शुक्ल ने 8 पुस्तकों की चर्चा की है- (1) खुमान रासो, (2) वीसलदेव रासो, (3) पृथ्वीराज रासो, (4) भट्ट केदार कृत जयंचन्द प्रकाश, (5) मधुकर कवि कृत जयमयंक जस चंद्रिका, (6) परमाल रासो, (7) खुसरो की पहेलियाँ तथा, (8) विद्यापति की पदावली । इनमें से प्रथम छः का सम्बन्ध वीर-गाथाओं से है और पिछली दो का स्वतन्त्र भावनाओं से । भाषा की दृष्टि से पिछली दो की चर्चा इस काल की तीसरी धारा में की जायेगी ।

राजनीतिक परिस्थिति

इस धारा की प्रवृत्तियों को ठीक से हृदयङ्गम करने के लिए इस काल की (राजनीतिक) परिस्थिति से परिचित हो जाना आवश्यक है। हर्षोत्तर काल में उत्तर भारत की केन्द्रीय शक्ति नष्ट हो गई थी और अनेक छोटे-छोटे राज्य खण्ड स्थापित हो गए । ऐसी खण्ड-खण्ड शक्तियों में तोमर, राठौर, चौहान, चालुक्य चन्देल तथा गाहड़वाल आदि थे। सन् ई. 1000 के आस-पास गाहड़वाल अधिक शक्तिशली हो रहे थे। इनकी राजधानियाँ दिल्ली, कन्नोज, अजमेर, धार, मालवा एवं कालिञ्जर आदि थे। हिन्दी साहित्य का इतिहास इन राज्यों की स्थापना के बाद आरम्भ होता है । ये राज्य परस्पर छोटे-छोटे कारणों से लड़ते रहते थे । इन दिनों उत्तरा-पथ रणचण्डी की रक्त पिपास शान्त करने में सतत् प्रत्नशील था । युद्ध का कारण केवल शौर्य-प्रदर्शन था और कभी भी परकीय कन्या का लोभ एवं पारस्परिक द्वेषजन्य रोष भी होता था । इस आंतरिक कलह के अतिरिक्त बाह्य आक्रमण भी मुसलमानों द्वारा किया जा रहा था। पहले का बीज ‘काम’ एवं दूसरे का ‘अर्थ’ था । अर्थ एवं काम सदा युद्ध को जन्म देते ही हैं। उत्तराखण्ड की असंगठित शक्तियाँ बाह्य आक्रमणों को रोकने में निरन्तर अशस्त रहा करती थीं। ये आंतरिक एवं बाह्य आक्रमण पठानों के राज्य-स्थापन तक प्रायः बाराबर चलते रहते थे ।

वीरगाथाओं का अर्थ

साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब होता है, यही कारण होता है कि तत्कालीन साहित्य लड़ाइयों से भरा हुआ है। इस प्रकार के साहित्य- निर्माता कविजन अपने आश्रयदाताओं की रूचि का अनुसरण कर सदा रचना किया करते थे । शांतिपूर्ण वायुमण्डल में वे ही कविगण नीति, श्रृंगार, भक्ति एवं वीर रस के छींटे दरबार में छोड़ा करते थे। पर युद्ध के अवसर पर इस प्रकार की चमत्कारिक रचना करने का अवसर नहीं रहा। उन कवियों को स्वयं युद्ध स्थली में जाना पड़ता और उन्हें उत्तेजित करने के लिए ओजस्विनी कविताएँ सुनानी पड़ती थीं । युद्ध-विरति के बाद अपने आश्रय दाता की प्रशंसा में बड़ी-बड़ी वीरगाथाएँ रचनी पड़ती थी। इस काल में ऐसी ही वीरगाथाएँ प्राप्त होती हैं ।

इस प्रभाव के कारण रासो ग्रंथों की रचना हुई एवं वीर काव्य रचना हुई इनका हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं ।

इतना ही नहीं नरपति नाल्ह एवं जगनिक ने आल्हा खण्ड की रचना की जो बहुत प्रसिद्ध हुई । इसके अतिरिक्त निम्नलिखित कवियों की रचनाएँ उल्लेखनीय रहीं-

(1) भट्ट केदार,

(2) मधुकर,

(3) विद्यापति,

(4) अमीर खुसरो ।

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