हिन्दी साहित्य का काल विभाजन एक अत्यंत विचारणीय और जटिल विषय है, क्योंकि साहित्यिक धारा निरंतर प्रवाहमान रहती है और इसका विभाजन करना बहुत कठिन है। फिर भी अध्ययन की सुविधा और साहित्य की विभिन्न प्रवृतियों को स्पष्ट रूप से समझने के लिए साहित्यकारों ने विभिन्न कालों में हिन्दी साहित्य का विभाजन किया है। विभिन्न इतिहासकारों ने इस विभाजन को अलग-अलग आधारों पर प्रस्तुत किया है, जिसके कारण काल विभाजन पर मतभेद भी पाए जाते हैं।
1. काल विभाजन के प्रमुख आधार
हिन्दी साहित्य के काल विभाजन का आधार मुख्य रूप से साहित्य की विशेष प्रवृतियों और रचनाओं की विशेषताओं पर आधारित है। किसी विशेष काल में जो साहित्यिक प्रवृत्तियाँ या विषय विशेष रूप से प्रमुख रहते हैं, उन्हें ध्यान में रखते हुए उस काल का नामकरण और विभाजन किया जाता है। उदाहरण स्वरूप, यदि किसी काल में विशेष रूप से भक्तिरचनाएँ प्रबल होती हैं, तो उस काल को भक्तिकाल कहा जाता है। इसी तरह, साहित्य के विभिन्न प्रकार के रस, भावनाओं और रचनाओं के आधार पर काल विभाजन किया गया है।
2. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का काल विभाजन
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को हिन्दी साहित्य का काल विभाजन करने में प्रमुख स्थान प्राप्त है। उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास को चार भागों में विभाजित किया है, जो इस प्रकार हैं:
- आदिकाल (वीरगाथाकाल): 1050 से 1375 तक
- पूर्वमध्यकाल (भक्तिकाल): 1375 से 1700 तक
- उत्तरमध्यकाल (रीतिकाल): 1700 से 1900 तक
- आधुनिककाल (गद्यकाल): 1900 से वर्तमान तक
रामचन्द्र शुक्ल का यह काल विभाजन हिन्दी साहित्य की शैलियों, काव्यधाराओं और रचनाओं के आधार पर अत्यधिक व्यवस्थित और वैज्ञानिक है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि हर काल में विशिष्ट प्रकार की साहित्यिक रचनाएँ उत्पन्न हुईं, हालांकि सभी प्रकार की रचनाएँ हर काल में मौजूद रहीं, परंतु उनकी संख्या कम होने के कारण वे प्रमुख नहीं रही। जैसे भक्तिकाल और रीतिकाल में वीर रस की रचनाएँ हुईं, लेकिन ये दोनों काल विशिष्ट रूप से अपने-अपने काव्य रूप में प्रतिष्ठित थे।
3. डॉ. श्यामसुंदरदास का योगदान
डॉ. श्यामसुंदरदास ने शुक्ल जी के काल विभाजन में एक सुधार किया और वीरगाथाकाल का समय 25 वर्ष घटा दिया। उन्होंने इसे 1050 से 1375 तक माना, जबकि शुक्ल जी ने इसे 1050 से 1400 तक रखा था।
4. मिश्रबन्धुओं का काल विभाजन
मिश्रबन्धुओं ने शुक्ल जी के काल विभाजन की आलोचना करते हुए एक अलग विभाजन प्रस्तुत किया, जो इस प्रकार था:
- आदि प्रकारणकाल: 700 से 1560 तक
- प्रौढ़ माध्यमिककाल: 1561 से 1680 तक
- कलाकाल: 1689 से 1889 तक
- परिवर्तनकाल: 1890 से 1925 तक
- वर्तमानकाल: 1926 से 1945 तक
- नूतनकाल: 1945 से वर्तमान तक
चतुरसेन शास्त्री ने इस विभाजन को ध्यान में रखते हुए, 760 से 1600 तक के काल को अपभ्रंश युग माना। इसके अलावा, अयोध्याप्रसाद सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने शताब्दियों के आधार पर काल विभाजन किया और इसे चार भागों में बाँटा:
- 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी तक
- 14वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक
- 17वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक
- 19वीं शताब्दी से वर्तमान तक
5. डॉ. रामकुमार वर्मा का काल विभाजन
डॉ. रामकुमार वर्मा ने हिन्दी साहित्य का काल विभाजन कुछ अलग ढंग से प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, हिन्दी साहित्य को पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है:
- संधिकाल: 750 से 1000 तक
- चारणकाल: 1000 से 1375 तक
- भक्तिकाल: 1375 से 1700 तक
- रीतिकाल: 1700 से 1900 तक
- आधुनिककाल: 1900 से अब तक
उनका यह विभाजन हिन्दी साहित्य की धार्मिक, सांस्कृतिक, और भाषाई स्थिति के आधार पर था, जिसमें उन्होंने संधिकाल में धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण के साथ अपभ्रंश और प्राचीन हिन्दी साहित्य की संधि मानी।
6. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का काल विभाजन
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य के काल विभाजन में कुछ सुधार करते हुए इसे निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया:
- प्रस्तावनाकाल: 800 से 1000 तक
- आदिकाल: 1000 से 1400 तक
- भक्तिकाल: 1400 से 1550 तक
- रीतिकाल: 1600 से 1880 तक
- आधुनिककाल: 1880 से अब तक
उन्होंने आदिकाल की भाषा को साहित्यिक भाषा नहीं माना और भक्तिकाल को ही वास्तविक हिन्दी साहित्य का आरंभ माना। उनके अनुसार, लोकभाषा में साहित्य रचनाएँ 8वीं से 10वीं शताब्दी तक हुईं, लेकिन आदिकाल की भाषा अभी भी साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित नहीं हो सकी थी।
निष्कर्ष
हिन्दी साहित्य के काल विभाजन पर विभिन्न विचारकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से विचार व्यक्त किए हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के द्वारा प्रस्तुत किया गया काल विभाजन अधिक व्यवस्थित और वैज्ञानिक प्रतीत होता है। इन दोनों ने काल विभाजन के लिए निश्चित आधारों पर विचार किया है, जिससे उनका विभाजन अधिक स्वीकार्य और उपयुक्त जान पड़ता है। शुक्ल जी ने 10वीं शताब्दी से हिन्दी साहित्य का प्रारंभ माना, जबकि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे प्रस्तावनाकाल से जोड़ा। इन दोनों विभाजनों को हिन्दी साहित्य के अध्ययन में अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जा सकता है।