हिन्दी साहित्य के आदि काल की प्रमुख प्रवृत्तियों का विवेचन करते हुए आदि काल के नामकरण की चर्चा कीजिए ।

हिन्दी साहित्य के आदि काल

 आदि काल के नामकरण के बारे में विद्वानों में व्यापक मतभेद है। युद्धों में वीरता अथवा शीर्थ-प्रदर्शन की विशेष प्रवृत्ति को लक्ष्य करके तथा वीर रस प्रधान चरित-काव्यों की बहुलता देखकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आदिकाल का नामकरण वीरगाथा का किया किन्तु परवर्ती विद्वानों को शुक्ल जी का यह मत मान्य नहीं हुआ। शुक्ल जी ने जिन बारह ग्रन्थों के आधार पर नामकरण किया है, वे हैं –

१. खुमान रासो (दलपत विजय, सं. ११८० १२०५),

२. बीसलदेव रासो (नरपति नाल्ह, सं. १२९२),

३. पृथ्वीराज रासो, (चन्दबरदाई, सं. १२२५ १२४९),

४. जयचन्द्र प्रकाश भट्ट केदार, सं. १२२५),

 ५. जयमक जस चन्द्रिका (मधुकर कवि, सं. १२४०),

६. परमा रासो (जगनिक, सं. १२३०),

७. खुसरो की पहेलियों आदि (अमीर खुसरो सं. १२३०)

८. विद्यापति पदावली (विद्यापति सं. १४६०),

९. विजयपाल रासो (नल्लसिंह भट्ट, सं. १३५०),

१०. हमीर रासो (शारंगधर सं. २३५७),

११. कीर्तिलता (विद्यापति, सं. १४६०),

१२. कीर्तिपताका (विद्यापति, सं. १४६०) ।

हिन्दी साहित्य के आदि काल के नामकरण की चर्चा

 इनमें से अधिकतर ग्रन्थों का नामोल्लेख ही मिलता है, जिनका कहीं अस्तित्व नहीं है। चन्दवरदाई कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ एवं नरपति नाल्ह कृत ‘वीसलदेव रासो’ भी अप्रमाणिक माने गये हैं। इनके अतिरिक्त शुक्ल जी ने सिद्ध एवं जैन मतावलम्बियों के साहित्य को धार्मिक एवं उपदेशात्मक साहित्य कहकर अपने विवेचन में सम्मिलित नहीं कियाँ । अतः शुक्ल जी से मतभेद प्रकट करते हुए राहुल सांकृत्यायन ने इस युग का नाम ‘सिद्ध सामन्त युग’ रखा तो डॉ. रामकुमार वर्मा ने ‘चारण-काल’ नाम देना उपयुक्त समझा। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस युग का नाम ‘आदि काल’ रखा जो अधिक तर्क संगत जान पड़ता है। वस्तुतः यह युग भाषा और भाव की दृष्टि से विविधता लिये हुए है। इस युग में साहित्य की विविध धारायें, विभिन्न विचार एवं भाव सरणियाँ, अनेक प्रकार की रचना पद्धतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। उन सब का समावेश ‘आदि काल’ नामकरण में हो जाता है। ‘आदिकाल’ का प्रमुख काव्य चारण व भाटों द्वारा अपने आश्रयदाताओं की प्रशस्ति में लिखे गये वीरगाथात्मक काव्य-ग्रंथ हैं जिन्हें ‘रासो’ ग्रन्थ कहा जाता है। ये चारण काव्य प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। इन्होंने अपने आश्रयदाता राजाओं और सामन्तों के वंश, शौर्य और यश आदि का अलंकृत भाषा में अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करने में अपनी काव्य प्रतिभा का भरपूर उपयोग किया अपने आश्रयदाता राजाओं के यशोगान के लिए लिखा गया काव्य ‘चारण काव्य’ कहलाया जो आदि काल की प्रमुख काव्य-पद्धति है। वीरगाथाकालीन चारण काव्य में युद्ध का जैसा सजीव चित्रण अलंकृत एवं चित्रोपम ओजपूर्ण भाषा में मिलता है वैसा अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। इसका कारण यह है कि वे कवि अवसर आने पर स्वयं युद्ध क्षेत्र में अपना रण-कौशल प्रदर्शित करते थे, ओजपूर्ण सशक्त भाषा में वीर पुरुषों के शौर्य वर्णन के अतिरिक्त वीरांगनाओं के युद्ध-कौशल एवं उनके हृदयगत वीरभावों का जैसा सजीव और सुन्दर चित्रण वीरगाथाकालीन काव्य में मिलता है, वह विश्व साहित्य को अपूर्व देन है ।

 आदि काल के चारण-काव्य में वीर रस की प्रधानता पाई जाती है। वीर रस की जैसी अजन धारा इस काव्य में प्रवाहित है, वह अपने आप में अनूठी है।वीर-रस के साथ ही श्रृंगार रस की धारा भी अबाध रूप से प्रवाहमान रहती है, क्योंकि आदि काल में युद्धों का एक प्रमुख कारण नारी और उसका सौन्दर्य रहा है, अतः इस काल के साहित्य में ‘नायिका-भेद’ एवं ‘नखशिख वर्णन के साथ नारी के सर्वांगीण अपूर्व सौन्दर्य का कलापूर्ण चित्रण करने की विशेषता पाई जाती है। वीररस के सहायक रोड, बीभत्स और भयानक रसों का भी निर्वाह इन रचनाओं में हुआ है।

हिन्दी साहित्य के आदि काल की भाषा शैली

आदि काल की वीरगाथाओं की रचना मुख्यतः डिंगल भाषा में हुई जो चारण कवियों की एक विशिष्ट काव्य-भाषा शैली है। द्वित्ववर्ण प्रधान डिंगल भाषा गुण की सृष्टि करने में सफल सिद्ध हुई है। व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध होने पर भी इस काल की भाषा में भावों की सशक्त व्यंजना कर पाने की क्षमता विद्यमान है। उस समय की अपभ्रंश मिश्रित भाषा पिंगल के नाम से भी जानी जाती है। वीरगाथा का की कविता में दूरी तोमर नाराच छप्पय गाया, आर्या, सड़क, रोला, उन्हाला और कुण्डलिया आदि छन्दों का प्रयोग बड़े कलात्मक ढंग से हुआ है जो ओजगुण प्रधान डिंगल भाषा की प्रभाव वृद्धि में सहायक सिद्ध हुआ है। राधाकाल के कवियों ने रूपक उत्प्रेक्षा आदि परम्परागत अलंकारों के प्रयोग के साथ अतिशयोक्ति अलंकार का सबसे अधिक प्रयोग किया है। इसके कारण। उनकी कृतियों की विषय वस्तु कल्पना की ऊँची उड़ान लिए अतिरंजनात्मक हो गई है तथा उनकी ऐतिहासिकता भी संदिग्ध हो गई है, फिर भी ये कृतियाँ अपने युग की सामन्ती सभ्यता और संस्कृति का चित्र बड़े प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती है।

 वीरगाथा काल के प्रमुख कवि चन्दबरदाई है। इनके द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो’ हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। इसकी प्रामाणिकता के विषय में विद्वानों में मतभेद है। यद्यपि प्रक्षित अंश जुड़ जाने से इसकी प्रामाणिकता संदिग्ध हो गई है तथापि यह ग्रन्थ अपने युग की संस्कृति का संजीव चित्र उपस्थित करता है। काव्य-कौशल की दृष्टि से इस ग्रन्थ का बहुत महत्व है। “पृथ्वीराज रासो’ के अतिरिक्त ‘बीसलदेव रासो’, ‘खुमाण  रासो’, ‘जयचन्द्र प्रकाश’, ‘हम्मीर रासो’ ‘विजयपाल रासो’ तथा ‘परमार रासो’ (आल्हा-खण्ड) इस युग की उल्लेखनीय कृतियाँ हैं ।

चारण-काव्य के अतिरिक्त सिद्ध और नाथ साहित्य का सृजन भी इस काल में हुआ । राहुल सांकृत्यायन ने चौरासी सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है, जिनमें सरहपा से साहित्य आरम्भ होता है। राहुल जी ने इनका समय ७६९ ई. माना है। इन सिद्धों में सरहपा, लुइपा, शबरपा, कण्हपा आदि हिन्दी के प्रमुख सिद्ध कवि हैं

नाथ- साहित्य के आरम्भकर्ता गोरखनाथ (८४५ ई.) माने जाते हैं। 

डॉ. बड़थ्वाल ने ‘गोरखबानी’ नाम से इनकी रचनाओं के एक संकलन का सम्पादन किया है। नाथ- साहित्य के अन्य उल्लेखनीय कवि चौरंगीनाथ, गोपीचन्द,चुणकरनाथ, भरथरी आदि हैं।

जैन मुनियों द्वारा रचित जैन-काव्य भी इस काल में उपलब्ध होता है । इस काव्य की भाषा पर अपभ्रंश का प्रभाव है। स्वयंभू द्वारा रचित ‘पउमचरिउ’, पुष्पदन्त कृत ‘पद्म पुराण’ आदि इसके प्रसिद्ध ग्रन्थ है। प्रकार हिन्दी साहित्य का आदिकाल विविध साहित्यिक प्रवृत्तियों, विविध काव्य रूपों एवं शैलियों की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण काल है।

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