घनानंद का जीवन परिचय ghananand ka jivan parichay
काव्य की दृष्टि से घनानन्द कृष्णोपासक भक्त कवियों की पंक्ति में हैं पर कल – विभाजन की दृष्टि से इनकी गणना रीतिकालीन कवियों में की जाती है। काल इनका जीवन वृत्त भी अन्य कवियों के समान दूसरे कवियों की रचनाओं एवं इतिहासकारों की खोजों के आधार पर ही अवलम्बित है। इस प्रकार अनुमान ही के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने उनका जन्मकाल, रचनाकाल और मृत्युकाल निश्चित किया है, जिसके फलस्वरूप विद्वानों के मतों में वैषम्य है। आलोचकों ने घनानन्दजी को काव्य की ‘साक्षात् रसमूर्ति कहा है।
घनानंद का जन्म
घनानन्द जी जन्म संवत् १७४६ और मृत्यु संवत् १७९६ के आसपास माना जाताहै। लाला भगवान ‘दीन’ ने उनका जन्म संवत् १७४५ के लगभग और मृत्यु-संवत् १७९६ के आसपास माना है पर रामचन्द्र शुक्ल और बियोगी हरि ने घनानंद का जन्म संवत् १७४६ के लगभग माना है। श्री शम्भु प्रसाद बहुगुना का अनुमान है कि घनानन्द का जन्म संवत् १६३० में और मृत्यु संवत् १६६० में हुई थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि उनके जन्म और मरण के संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है।
घनानन्द जाति के भटनागर कायस्थ थे और दिल्ली के रहनेवाले थे लेकिन पं. जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ ने घनानन्द को बुलंदशहर का निवासी बतलाया है। वे दिल्ली के तत्कालन बादशाह मुहम्मदशाह के मीर मुंशी और फारसी के अच्छे ज्ञाता थे ।
घनानंद का साहित्यिक रचनाएँ –
बहुत खोज के पश्चात् अनुसंधानकर्त्ताओं को घनानन्द की अनेक कृतियां मिली हैं जिनके सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने घनानन्द की निम्नलिखित कृतियों का उल्लेख किया है –
(१) सुजानहित
(२) कृपाकंद निबंध
(३) वियोगी बलि
(४) इश्कलता
(५) यमुना यश
(६) प्रीतिपावस
(७) प्रेम-पत्रिका
(८) प्रेम-सरोवर
(९) बृजविलास
(१०) रसवंत
(११) अनुभव चंद्रिका
(१२) रंगबधाई
(१३) प्रेमपद्धति
(१४) वृषभानुपुर सुषमा
(१५) गोकुल गीत
(१६) नाम माधुरी
(१७) गिरिपूजन
(१८) विचार सार
(१९) दानधहा
(२०) भावना प्रकाश
(२१) कृष्ण कौमुदी
(२२) धाम चमत्कार
(२३) प्रिया प्रसाद
(२४) वृन्दावन मुद्रा
(२५) ब्रजस्वरूप
(२६) गोकुल चरित्र
(२७) प्रेम पहेली
(२८) रसनायश
(२९) गोकुल विनोद
(३०) ब्रजप्रसाद
(३१) मुरलिका) मोद
(३२) मनोरथ मंजरी
(३३) ब्रज व्यवहार
(३४) गिरिगाथा
(३५) वृज वर्णन
(३६) छंदाष्टक
(३७) त्रिभंगी छंद
(३८) कवित्त संग्रह
(३९) स्फुट
(४०) पदावली
(४१) परमहंस वंशावली ।
सच तो यह है कि घनानन्द की रचनाओं की संख्या अनिश्चित है और जो रचनाएँ मिलती हैं, उनमें कुछ तो संदिग्ध हैं। इसका कारण यह है कि उन कविताओं में घनानन्द और आनन्दचन का प्रयोग मिलता है। अतएव सभी कविताओं को किसी एक कवि की रचना मान लेना युक्ति-संगत नहीं है। ‘अव तक दोनों एक ही माने जाते रहे हैं पर दोनों के पृथक होने की बहुत संभावना है।’ आनन्दधन एक जैनधर्मी कवि थे और राधाकृष्ण के भक्त होने के कारण उन्होंने जो पद लिखे, वे सब गेय हैं। इस जैन कवि की कविता में वह मार्मिकता नहीं है जो वृन्दावनवासी घनानन्द के कवित्त सवैयों में है और ‘कवित्त सवैया लिखने वाले घनानन्द और पद लिखनेवाले आनन्दधन की काव्य शैली में स्पष्ट पार्थक्य है। घन आनन्द के कवित्त सवैयों में विरोध की प्रवृत्ति, भाषा की प्रांजलता और लाक्षणिक वक्रता का जैसा विधान पाया जाता है वैसा पदावली में हीं।’ सुतरां दोनों को पृथक्-पृथक् कवि मानना ही समीचीन है।
घनानन्द के कवित्तों, सवैयों, दोहों आदि के पाँच संग्रह हमें देखने को मिले हैं-
१. रसकाना और घनानन्द (सुजानसागर) श्री अमीर सिंह |
२. घनानन्द कवित पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ।
३. पनानन्द ग्रन्थावली पं विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ।
४. घनानन्द और आनन्द धन- पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ।
५. घनानन्द शभु प्रसाद बहुगुना ।
घनानन्द अपने युग के स्वछन्द प्रवृत्तिवाले कवि थे और ‘सुजान’ की उपेक्षा के कारण उनका हृदय प्रेम प्रलाप कर उठा। इसी सिलसिले में उन्होंने लगभग छ सौ कवित्त और सबैचे लिख डाले । इन रचनाओं में उनके हृदय का दर्द मुखरित है।
परन्तु इनमें उच्छ खलता नहीं, प्रत्युत् गंभीरता है। वस्तुतः वियोग की वेदना को अंकित करने में उस युग का कोई भी कवि उनकी बराबरी नहीं कर सकता, क्योंकि विरह की मार्मिक और तात्विक अनुभूति उन्हें थी। विरह-वर्णन में उन्होंने तत्कालीन पद्धति का अनुकरण नहीं किया। भाव पक्ष के समान उनका कलापक्ष भी सबल था।
उन्होंने विशेषतया कोमल एवं सरस शब्दों को भावाभिव्यक्ति का साधन बनाया था किन्तु भाषा की शक्ति को विदेशी शब्दों को अपनाने की अपेक्षा बोलचाल के शब्दों, मुहावरों, कहावतों तथा अनुभूतिजन्य नवीन व्यंजनाओं द्वारा बढ़ानेवाले इने गिने ही कवि थे, किन्तु भाषा की वह मसृणता, वह सजीवता, वह व्यावहारिक शुद्धता बिहारी में भी नहीं है जो घनानन्द में उनकी सबसे बड़ी विशेषता के रूप में, है। और यह विशेषता, विरह कवि की पवित्र भावनाओं से युक्त घनानन्द के काव्य में, रीतिकाल की अस्वाभाविकता की मरुभूमि में हरी-भरी भूमि के समान, आनन्द देनेवाली है |
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