दसवीं शताब्दी में पूर्व ही बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा का प्रचार भारत के पूर्वी भागों में बहुत अधिक था। ये बिहार आसाम तक फैले थे और चौरासी सिद्ध इन्हीं में से हुए हैं, जिनका चमत्कारों से जनता को अब तक है। ये बौद्ध सिद्ध तान्त्रिक होते थे और अपने अलौकिक चमत्कारों से जनता को आतंकित किये हुए थे सिद्धों से तात्पर्य वज्रयानी परम्परा के सिद्धाचार्यों से है। ये विभिन्न प्रकार की साधनाओं से निष्णात, अलौकिक सिद्धियों से सम्पन्न और चमत्कारपूर्ण अति प्राकृतिक शक्ति से पूर्ण थे । इनकी साधना कृच्छाचार की साधना थी। वस्तुतः बौद्ध धर्म अंतिम दिनों में मंत्र-तंत्र की साधना में बदल गया था। इन सिद्धों ने जनता में अपने मत के प्रचार के लिए संस्कृत के अतिरिक्त अपभ्रंश मिश्रित देशभाषा में भी रचनाएँ लिखीं। इनकी रचनाओं में रहस्यमार्गी एवं योग की प्रवृत्तियों का प्राधान्य है। इनकी रचनाओं का एक संग्रह म.पं. हरप्रसाद शास्त्री ने बौद्ध गान और दोहा से नाम के बंगाच्छरों में प्रकाशित कराया । पूर्वी प्रयोगों की अधिकता देखकर उन्होंने इसकी भाषा को पुरानी बंगला कहा है । वस्तुतः यह साहित्य अपभ्रंश भाषा है। राहुलजी ने अपनी हिन्दी काव्यधारा में इन सिद्धों की रचनाओं को प्रकाशित करके हिन्दी के विद्वानों का ध्यान इनकी ओर आकृष्ठ किया । इन सिद्धों में सबसे पुराने सरह हैं (इनका सरोजबज नाम भी है) जिसका समय राहुलजी के अनुसार संवत् 817 है। डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य ने इनका समय सं 690 निश्चित किया है। राहुलजी ने इन सिद्धों की भाषा लोकभाषा के अधिक समीप देखकर इसे हिन्दी का प्राचीन रूप माना है। इसी मत के आधार पर काशीप्रसाद जायसवाल ने सिद्ध किया कि सरहपा के अतिरिक्त शवरपा, भूसुकपा, लुइपा, लिरुपा डोंब्रिपा, दारिकपा, गुंडरिपा, कुकुरिपा, कयरिपा, कण्हपा, गौरपक्षा, तिलोपा, शांतिपा इत्यादि सिद्धों की रचनाएँ प्राप्त है। इनमें से अधिकांश सिद्ध लगभग 9वीं शताब्दी में हुए ।
सिद्ध साहित्य से तात्पर्य सिद्धों द्वारा रचित साहित्य से ही है। इस साहित्य का सर्वप्रथम पता सन् 1907 ई. में श्री हरप्रसाद शास्त्री को नेपाल में मिला था । इसके पश्चात् श्री राखालदास, श्री प्रबोधचंद बागची, श्री विधशेखर शास्त्री, श्री राहुल सांस्कृत्यायन, श्री सुकुमार सेन, श्री धर्मवीर भारती इत्यादि ने सिद्ध साहित्य पर महत्त्वपूर्ण कार्य किए है । सिद्ध-साहित्य मूलतः दो काव्यों रूपों में उनलब्ध है-दोहा-कोष और चर्यापदत । प्रथम से दोहे से युक्त चतुष्पदियों की कड़वक शैली मिलती है और द्वितीय में तांत्रिक चर्या के समय गाये जहाँ वाले पद प्राप्त होते हैं। सरहपा, कण्हपा, तिलोपा आदि के दोहा कोश प्राप्त है। चर्या पदों का संग्रह एकत्र रूप में प्राप्त है। इसमें विभिन्न सिद्धाचर्यों की रचनाएँ संग्रहित हैं। चर्यापदों का संकलन मुनिदत्त ने किया । इसकी पुष्टि तिब्बतों अनुवाद से भी होती है। सिद्ध-साहित्य में सामान्य रूप से महासुख, सहजमृत, स्वकसबिति इत्यादि के साम्प्रदायिक उपदेश ही अधिक दिए गए हैं। इन लोगों को प्रज्ञा और उपाय के योग से ही महासुख की प्राप्ति स्वीकृत की हैं। इसी से निर्वारण के शून्य, विज्ञान और महासुख-ये तीन विभाग ठहराए गए हैं। इन्होंने निर्वाण-सुख को सहवास-सुख के ही समानान्तर बताया है। इन्होंने शक्ति सहित देवताओं के युगबद्ध स्वरूप की कल्पना की। यंत्र-मंत्र अश्लील मुद्राओं की मूर्तियों को स्थिति आज भी मिलती है। रहस्यात्मक प्रवृत्ति की वृद्धि होने के कारण साधकों का समाज श्रीसमाज कहा गया और भैरवीचक्र को श्रीवृद्धि-साधना चल पड़ी। इस सिद्धि के लिए किसी नीच शक्ति (स्त्री) का सहवास आवश्यक मान लिया गया । इस प्रकार धर्म के नाम पर दुराचार पनपने लगा। ये लोग रहस्यमयी प्रवृत्ति के अनुसार काआ तख्तर पंच बिडाल । चंचलचीए पइट्ठा काल और गंगा जमुना माझे बहइ के नाई का कथन कर चले । शून्य और विज्ञान के भी वचन इन्होंने कहे हैं-
शून्य-कूल खरें सोतें उजाश्र। सरहा मनइ गअणे समाज ।।
विज्ञान-भावण होइ अभावण जाइ । अइस संबोहें को पति आइ ।।
सरहपा लुई मणाइ बढ़ दुलख बिणणा, तिधातुए विलइ ऊह लागेणा । – लुईपा
सिद्धि साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
सिद्धों की रचनाओं को देखने से पता चलता है कि इनकी शैली संध्या पा उलटबासी शैली है। ऊपर से इन रचनाओं का बड़ा कुत्सिक अर्थ निकलता है, किन्तु सम्प्रदाय के जानकार उसके मूल एवं साधनात्मक अर्थ को समझ सकते हैं। इनकी रचनाओं में निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं-
(1) अन्तरसाधना पर जोर तथा पंडितों को फटकार –
पंडित सउल सत्त बक्खणई । देहरि बुद्ध बसंत जाणई ।
अमणागमण णतेनबिखणडडिअ । तोविं णिलज्ज भणई हउँ पण्डिअ ।।
– सरहपा
(2) दक्षिण मार्ग छोड़कर वाममार्ग का उपदेश-
ये सिद्ध वाममार्गी प्रवऽत्तियों को प्रश्रय देते थे और उसी का प्रचार करते थे। वामामर्ग का उपेदश देखिये-
नाद न बिन्दु न रवि न राशि मण्डल । चिअराअ सहाबे मूलक ।।
उजु रे सजु जाइ मा लेहु रे बंक। निअहि बोहिमा जहु रे लंक । – सरहपा
(3) वारुणी प्रेरित अन्तर्मुक साधना पर जोर-
इन सिद्धों ने लोक विरुद्ध आचार- विचार बना रखे थे। ये अपने मार्ग में वारुणी का तथा अन्तर्मुक-साधना का महत्व वर्णन करते हैं-
संहजे थिर करि वरूणी साध । जे अजराणर होई दिट कांघ ।।
दशमि दुआरत चिह्न देखड्या । आइल गराहक अपणे बहिआ ।।
चउशिठ बड़िए देह पसारा । पइडल गदाहक नाहिं निसारा । यिरूपा
(4) रहस्यमार्गियों
रहस्यमार्गियों की सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार ये सिद्ध लोग अपनी बानी को पहली या उलाटबासो के रूप में रखते थे। ये अपनी वाणियों के सांकेतिक अर्थ भी बताया करते थे । इनकी वाणी को अटपटी वाणी कह सकते हैं। यही शैली आगे चलकर निर्गुण मार्गी सन्तों ने अपनाई। कबीर ने इसे उलटबासी कहा है। इसका रूप सूरदास के द्रष्टकूटों में भी देखने को मिल जाता है। इस प्रकार आदिकाल की प्रवृत्तियों का परवर्ती साहित्य में विकास हुआ है। इस अटपटी वाणी का एक उदाहरण लीजिए-
बेंग संसार बाड़हिल जाअ । दुहिल दुधकि बेटे समाअ ।।
बदल विआएल गबिआ बाँझे। पिटा दुहिए एतिना सांझे ।।
जो सो बुज्भी सो धनि बुधी जो सो चोर सोई साधी ।
निते निते षिआला षिहेषम जजुअ, डेंडपाएर गीत बिरले बुझअ ।
– तांतिपा
(5) तांत्रिक एवं भ्रष्ट रूप
इन सिद्धों की योग तन्त्र की साधनाओं में मद्य तथा स्त्रियों के विशेषतः डोमिनी, रजनी आदि के अबाध, सेवन के महत्त्व का प्रतिपादन हुआ है। एक उदाहरण देखे-
गंगा जउना माझे बड़ई नाई ।
तहि बुड़िलि मांतगि पोइआ लीले पर कराइ ।।
पाहतु डोंबी, बाहलो, डोंबी बाट त फइल उछारा ।
सद्गुरु पाअ-पए जाइब तुणु निणउरा । कण्हपा
शुक्लजी ने अपने इतिहास में बौद्ध धर्म के तांत्रिक एवं भ्रष्ट रूप का विवेचन इस प्रकार किया-बौद्ध धर्म ने जब तांत्रिक रूप धारण किया, तब उसमें पाँच ध्यानी बुद्धों और उनकी शक्तियों के अतिरिक्त अनेक बोधिसत्वों की भावना की गई, जो सृष्टि का परिचालन करते हैं। वंज्रयान में आकर ‘महासुखवाद’ प्रवर्तन हुआ । प्रजा और उपाय के योग इस महासुख की दशा की प्राप्ति मानी गई। इसे आनन्द स्वरूप अमरत्व की समझिए । निर्वाण के तीन रूप अवश्य ठहराए गए-शून्य विधान और महासुख-वज्रयान में निर्माण के सुख का स्वरूप ही सहवास-सुख के समान बताया गया । शक्तियों सहित देवताओं के युगबद्ध स्वरूप की भावना चली और उसकी नग्न मूर्तियाँ सहवास की अनेक अश्लील मुद्राओं में बनने लगीं, जो कहीं-कहीं अब भी मिलती है। रहस्य या गुह्य की प्रवृत्ति बढ़ती गई और गुह्य समाज या श्री समाज स्थान-स्थान पर होने लगे। ऊँचे नीचे कई वर्गों की स्त्रियों को लेकर मद्यपान के साथ वीभत्स विधान वज्रयानियों की साधना के प्रधान अंग थे। सिद्धि प्राप्त करने के लिए किसी स्त्री का (जिसे शक्ति, योगिनी या महामुद्रा कहते थे) योग या सेवन आवश्यक था ।” कहने का तात्पर्य यह हैं कि वज्रयान ने धर्म के नाम दुराचार फैलाया ।
(6) शान्त और श्रृंगार रस
इस साहित्य में मूलतः शान्त और श्रृंगार रस की रचना ही मिलती है। काव्य की कसौटी पर कसने से निराशा ही हाथ आती है। सर्वत्र उपदेश ही प्रमुख है । हिन्दी का सन्त साहित्य इस साहित्य से अधिक प्रभावित हुआ है। सन्तों की तरह ही ये सिद्ध भी शास्त्रागम की निन्दा करते थे और शास्त्रिज्ञानियों को मूर्ख बताते थे-
सत्यागम बहु पढ़ई सुण बढ़ किं पिण जाणई । कण्हपा
(7) सिद्धों के अधिकांश उपदेश जीवन की सामान्य सरणियों, मांग की ऋतुजा के विरोधी हैं। इसी से ये साहित्य के अन्तर्गत ग्रहीत नहीं है। हाँ भाषा की दृष्टि से इस साहित्य का महत्त्व अवश्य है। भाव की तरह ही इस साहित्य की भाषा भी कुतूहल जनक और चाक्विक्य उत्पन्न करने वाली है। सीधी जनता पर प्रभाव जमाने के लिए इन्होंने अटपटी भाषा का सहारा लिया है। यह भाषा मन्त्रस्वभाव वाली, गुह्य और प्रतीकात्मक थी। यह सन्ध भाषा के नाम से प्रख्यात है। प्रारम्भ में यह भी विवादग्रस्त ही था कि यह भाषा ‘संधा-भाषा’ अथवा संध्या भाषा’ है। श्री हर प्रसाद शास्त्री और स्त्री विनयतोष भट्टाचार्य ने इसे संध्या भाषा मानकर इसका अर्थ संध्या के समान अस्पष्ट भाषा (आलो-अँधारी भाषा) किया। इस प्रकार इसे अन्धकार और प्रकाश के बीच थोड़ा स्पष्ट और अस्पष्ट बताने का काम बहुत दिनों तक चलता रहा ।
(8) प्रतीक मूलतः
अर्थसाम्यगत, साधर्म्यमूलक और चर्यागत होते हैं । औपम्यमूलक प्रतीकों से विभिन्न रूपकों की योजना होती है और विरोधमूलंक प्रतीकों का पर्यवसान उलटबासियों में मिलता है। सन्त-साहित्य में उलटबासियाँ खूब मिलती हैं।
हिन्दी साहित्य पर प्रभाव
सिद्ध साहित्य न केवल महत्त्वपूर्ण रहा, अपितु उसका प्रभाव परवर्ती साहित्य पर भी पड़ा। सिद्धों का प्रभाव स्पष्ट रूप से संत साहित्य के प्रादुर्भाव पर देखा जा सकता है। कबीर इस साहित्य से प्रभावित थे । कर्मकाण्ड की निन्दा, आचरण की शुद्धता, संध्या भाषा, उलटबासियाँ रहस्यमयी उक्तियाँ, रूपक और प्रतीक प्रधान शब्दावली कबीर को सिद्धों से ही मिली थी। सूर के दृष्टकूट भी इसी प्रभाव के सूचक है। दोहा और गीत शैली भक्तिकाल में और बाद में भी खूब फली-फूली। यह सब आदिकालीन साहित्य की देन है। सिद्धों में चर्यगीतों से गेयपद शैली की विकास हुआ। कबीर, सूर तुलसी, मीरा भारतेन्दु ने गेय पदों की भरपूर रचना की है। इस क्रम में डॉ. शिवकुमार वर्मा ने लिखा है कि “चारण साहित्य तत्कालीन राजनीतिक जीवन की प्रतिच्छाया है, परन्तु यह सिद्ध साहित्य सदियों से आनेवाली धार्मिक और सांस्कृतिक विचारधारा का एक स्पष्ट उल्लेख है । इसने हमारे धार्मिक विश्वास की श्रृंखला को और भी मजबूत किया है। आगे पूर्व मध्यकाल एवं उत्तर मध्यकाल में जो गोपी-लीला एवं अभिसार के वर्णन मिलते हैं, सिद्ध साहित्य में उसका पूर्व रूप देखा जा सकता है। सिद्धों की उलझी हुई उक्तियों को कबीर उलटवासियों का प्रेरक समझना चाहिए।”
भाषा की दृष्टि से भी सिद्ध साहित्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। संत साहित्य का आदि इन सिद्धों का, मध्य नागपंथियों का और पूर्व विकास कबीर से आरम्भ होने वाली संत परम्परा में नानक, नादू और मलूक आदि को मानना चाहिए। भक्तों के अवतारवाद का महायान शाखा का विशेष प्रभाव है। डॉ. हजारीप्रसाद का कहना है कि भक्तिवाद पर सिद्धों का प्रभाव है, ईसाई मत का कोई प्रभाव नहीं है। सिद्ध साहित्य का मूल्यांकन करते हुए हिन्दी के एक प्रसिद्ध विद्वान आलोचक ने लिखा है- “जो जनता नरेशों की स्वेच्छाचारिता, पराजय या पतन से त्रस्त होकर निराशावाद के गर्ग में गिरी हुई थी, उसके लिए इन सिद्धों की वाणी ने संजीवनी का कार्य किया। निराशावाद के भीतर से आशावाद का संदेश देना, संसार की क्षणिकता में उसके वैचित्य का इन्द्रधनुषी चित्र खींचना-इन सिद्धों की कविता का गुण था और उसका आदर्श था । जीवन की भयानक वास्तविकता की अग्नि से निकालकर मनुष्य का महासुख के शीतल सरोवर में अवगाहन करना ।
“डॉ. रामकुमार वर्मा के विचार इस सम्बन्ध में अवलोकनीय हैं- “सिद्ध साहित्य का महत्व इस बात में बहुत अधिक है कि उससे हमारे साहित्य के आदि रूप की सामग्री प्रमाणित ढंग से प्राप्त होती है। चारणकालीन साहित्य तो केवल मात्र तत्कालीन राजनीतिक जीवन की प्रतिच्छाया है। यह प्रसिद्ध सिद्ध साहित्य शताब्दियों से आने वाली धार्मिक और सांस्कृतिक विचारधारा का स्पष्ट उल्लेख है । भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी यह साहित्य का महत्त्वपूर्ण काल है।”