प्रेमाख्यान परम्परा- भारत में प्रेमाख्यानों की परम्परा अत्यन्त प्राचीन एवं पुष्ट है, महाभारत तथा अनक पुराणों में निहित प्रेमाख्यान परम्परा के आधार पर कुछ विद्वान तो यहाँ तक कहने लगे हैं कि प्रेमाख्यान की परम्परा भारत की देन है और यह परम्परा यहीं से फारस आदि विदेशों को गई है। जो भी हो, भारतीय तथा पाश्चात्य प्रेमाख्यानों की अनेक प्रवृत्तियाँ समान हैं तथा भारत के लिए परम्परा कोई नवीन वस्तु नहीं है। यह परम्परा संस्कृत और प्राकृत से होती हुई अपभ्रंश में आयी। अपभ्रंश में यह चरित काव्यों के रूपों में खूब पनपी। हिन्दी प्रेमाख्यान परम्परा पर अपभ्रंश के चरित काव्यों का गहरा प्रभाव है।
देश में हिन्दू और मुसलमान जब एक साथ शान्तिपूर्वक रहने लगे, तब दोनों सम्प्रदायों में कुछ ऐसे व्यक्ति आये जिनके हृदय में मानवता के प्रति प्रेम था । हिन्दी भाषियों में ऐसे विचार वाले अनेक सन्त कवि हुए जिन्होंने इस बात का अधिक प्रयत्न किया कि मानव मानव के प्रति अधिक उदार हो, धर्मसहिष्णु हो क्योंकि सबसे भीतर एक ही खुदा और परमात्मा का वास है, बाह्यआड़म्बर के भीतर लोग वर्गबाद की सीमा में इस बुरी तरह से घिर रहे थे कि मानव मानव को भूल रहा था उसका बोध कराने का प्रयत्न ऐसे सन्त कवियों ने किया, जिसका प्रभाव लोगों पर पड़ा किन्तु उसकी वाणी अटपटी थी वे अनपढ़ थे।
निर्गुणापासक भक्तों की दूसरी शाखा प्रेममार्गी सूफी कवियों की है जिन्होंने लौकिक प्रेम बन्धन के द्वारा उस प्रेम तत्व के रहस्य का समझने का प्रयत्न किया जो आत्मा और परमाता का मिलन है। ये प्रेमी सन्त जात-पाँत और सम्प्रदाय की दूषित प्रवृत्ति से युक्त समाज को अपने अलौकिक प्रेम की अनुभूति को रूपकों द्वारा व्यक्त करके शान्ति, प्रेम और ऐक्य का सन्देश दे रहे थे ऐतिहासिक दृष्टि से सूफी मार्ग का प्रारम्भ वीरगाथा काल से हो हो गया था ।
प्रेममार्गी शाखा का आधार भूत तत्व अलौकिक प्रेम का सन्देश रहा है। आत्मारूपी पुरुष ईश्वररूपी स्त्री से मिलने का प्रयत्न करना है और प्रिय के वियोग में कातर रहता है। भारतीय सिद्धान्त ईश्वर को पुरुष और आत्मा को स्त्री मानता है।
सूफी कवियों की रचनायें हिन्दी साहित्य की अमर निधि हैं। ये संसार के उत्तम साहित्य के समक्ष रखी जा सकती हैं। कोई भी साहित्य इन्हें अपने को पाकर धन्य समझेगा इन कवियों ने अपनी रचनायें प्रबन्ध काव्य के रूप में ही की हैं सभी ने अवधी भाषा और दोहे चौपाइयों का प्रयोग किया है। गाँवों में इन प्रेम काव्यों का अच्छा प्रचार हुआ । इन प्रेम कथा में श्रृङ्गार रस प्रधान है। इसमें वियोग श्रृगार के बड़ी ही मार्मिक चित्र मिलते हैं। जो कथाएँ इस समय काव्यबद्ध की गयीं वे मौलिक रूप से भारतीय थीं। और जन-साधारण में लोककथाओं के रूप में चली आ रही थीं। इन सूफियों के काव्य को हम हिन्दी का पहला रोमांस काव्य कह सकते हैं।
प्रेममार्गी शाखा के कवि और उनकी रचनाएँ
पं. रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार नूरमोहम्मद प्रणीत अनुराग बाँसुरी से इन काव्यों की परम्परा आरम्भ होती है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्य की परम्परा का क्रम संवत् 1516 से लेकर संवत् 1912 तक माना है। इन विद्वानों ने अनेक ग्रन्थों के नाम भी गिनाये हैं। जायसी के पूर्व लिखित केवल दो आख्यान काव्य उपलब्ध हैं- मृगावती और मधु मालती। शेष उपलब्ध नहीं है।
मुल्ला दाऊद सुफी परम्परा के सबसे प्राचीन (सन् 1379) कवि हैं। इन्होंने नूरक और चन्दा नामक प्रेम कथा लिखी। इसके उपरान्त संवत् 1591 में शेख कुतुबन ने अवधी भाषा में दोहा-चौपाई छन्द में ‘मृगावती’ की रचना की। कहा जाता है कि इसी ग्रन्थ के माध्यम से हिन्दी साहित्य में सूफी मत का समावेश हुआ। कुतुबन के बाद मंझन कृत मधु मालती की गणना की जाती है। (इसके बाद जायसी कृत ‘पद्मावत’ का क्रम आता है। जहाँगीर के समय में उसमान ने चित्रावली की रचना की। हिन्दी साहित्य में सम्भवतः अंग्रेजों का स्पष्ट उल्लेख इसी पुस्तक में मिलता है।
दक्खिनी खड़ी बोली में भी कुछ प्रेमाख्यानक काव्य लिखे गये। इनमें इब्नु निशाती कृत ‘धूलबान’ और तहसीनुद्दीन कृत ‘किस्सए काम रूप और कला’ प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।
प्रमुख प्रेमाख्यानक काव्य- भक्ति काव्य में लिखे गये प्रमुख प्रेमाख्यानक काव्य ये हैं-
(1) लखम सेन-पद्मावती कथा- दामो, सन् 1459।
(2) सत्यवती कथा- ईश्वरदास कायस्थ, सन् 1501 ।
(3) मृगावती – कुतुबन, सन् 1503।
(4) पद्मावत – मालिक मोहम्मद जायसी, सन् 1530-401
(5) मधु मालती – मंझन, सन् 1545।
(6) ढोला मारु रा दौहा – लेखक अज्ञात, सन् 1473।
(7) माधवानल कामकंदला रचनाकार एवं रचना काल अज्ञात है।
(8) चित्रावली – उसमान सन् 1613।
(9) रूपमंजरी – अष्टछाप कवि नन्ददास सन् 1568।
इनके अलावा अनेक असूफी प्रेम काव्य उपलब्ध हैं। प्रेमाख्यानों की परम्परा व तालिका काफी विशाल एवं समृद्ध है। भक्ति काल के बाद भी यह परम्परा चलती रही। कवि नसीर ने प्रेम दर्पण की रचना सन् 1917 में की। इस प्रकार यह परम्परा 14 वीं शती से लेकर 20 वीं शती तक प्रवहमान रही। इन प्रेमाख्यानक काव्यों को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है- (1) आध्यात्मिक प्रेमपरक काव्य तथा (2) विशुद्ध लौकिक प्रेम काव्य।
आध्यात्मिक प्रेम काव्यों के भी दो भाग किए जा सकते हैं- (क) सूफी कवियों द्वारा लिखित प्रेम काव्य – चन्दायन, मृगावती, मधुमालती, पद्मावत, चित्रावली, इन्द्रावती (नूरमुहम्मद) (ख) असूफी कवियों द्वारा लिखित प्रेम काव्य ।
प्रेममार्गी काल के कवियों में जायसी के अतिरिक्त कुतुबन तथा मंझन का नाम विशेष उल्लेखनीय है । कुतुबन ने मृगावती नामक काव्य की रचना की जो प्रेम कथा है और दोहों तथा चौपाइयों से पूर्ण है। इस कथा के द्वारा कवि ने प्रेम मार्ग के त्याग, और कष्ट का वर्णन करके साधक को अलौकिक मार्ग की झाकी दिखाई है। मंझन के सम्बन्ध में कुछ ज्ञात नहीं है। इनके द्वारा रचित ‘मधुमालती’ की एक अपूर्ण प्रति मिली है मृगावती के समान यह भी एक प्रेम कथा है। यह दोहा चौपाई में है। कुछ लोगों का भ्रम है कि इन सूची प्रबन्ध काव्यों से दोहे चौपाई लिखने की प्रथा का आविष्कार हुआ किन्तु यह असंगत है। अपभ्रंश काव्यों में इस प्रकार की प्रथा पाई जाती है। सूफी कवियों की सबसे बड़ी सम्पत्ति उनकी विरह भावना है। जिसके हृदय में विरह है उसके लिए यह संसार स्वच्छ दर्पण के समान है। इस दर्पण में परमात्मा के अनेक रूप प्रतिफलित होते रहते हैं।
नन विरह-अंजन जिन सारा । विरह रूप दर्पण संसार ॥
कोटि मोहि बिरला जस कोई । जाहि शरीर न विरह दुःख होई ॥
रतन की सागर सागरहिं, जगमनो जग कोई ।
चंदन कि वन-वन ऊपजै, विरह कि तन तन होई ॥
प्रेममार्गी शाखा की प्रमुख विशेषताएं
सूफी कवियों द्वारा लिखित प्रेमाख्यानक काव्यों की सामान्य प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित प्रकार हैं-
(1) उद्देश्य प्रेम का प्रचार
इन कवियों में एक भी कवि ने यह कहीं भी नहीं लिखा है कि वह आध्यात्मिक निरूपण या इस्लाम का प्रचार करने के लिए ग्रंथ की रचना कर रहा है। किसी ने यशोकांक्षा से प्रेरित होकर, किसी ने प्रेमरस की मादक धारा प्रवाहित करने के लिए इन ग्रन्थों की रचना की थी।
(2) कथानक रूढ़ियों का प्रयोग
इन कवियों ने प्रायः एक सी उन कथानक रूढ़ियों का प्रयोग किया है जो पूर्ववती भारतीय या फारसी कथा-काव्यों में समान रूप से व्यवहृत होती चली आती थीं, यथा- स्वप्न दर्शन, चित्र-दर्शन, श्रवण-दर्शन, प्रथम दर्शन आदि से प्रेमोत्पत्ति होना, तोता मैना हंस आदि के द्वारा सन्देशों का आदान-प्रदान, नायक का छद्मवेश में नायिका की खोज में निकलना, मन्दिर या फुलवारी में नायक-नायिका का मिलन होना, नायिका के पिता से नायक का संघर्ष और अन्त में विवाह आदि।
(3) हिन्दुओं की लोक कथाओं का आधार
इन प्रेम-गाथा-काव्यों की रचना प्रायः हिन्दु समाज में प्रचलित प्रेम कथाओं के आधार पर हुई है। इनमें इतिहास और कल्पना का सुन्दर सम्मिश्रण हुआ है।
(4) मसनवी शैली का प्रयोग
प्रेममार्गी कवियों की ये रचनाएँ भारतीय चरित काव्यों की शैली पर न होकर (सर्गबद्ध शैली) फारसी की मसनवी शैली पर लिखित ग्रन्थों की शैली पर है।
(5) ज्ञान-प्रदर्शन की भावना
विभिन्न विषयों के सम्बन्ध में मान-प्रदर्शन के किसी अवसर को इन कवियों ने नहीं छोड़ा है। यही कारण है कि इन ग्रन्थों में हमको दार्शनिक सिद्धान्तों, नीति परक नियमों, शकुन विचार, पाक शास्त्र, युद्ध शास्त्र, अश्व सम्बन्धी ज्ञान आदि का विस्तृत उल्लेख मिलता है। ऐसे स्थलों पर प्रायः कथा का विकास अवरुद्ध हो जाता है और पाठक ऊबने लगता है। द्रष्टव्य यह भी है कि यह ज्ञान प्रायः अधकचरा एवं अधूरा होता है।
(6) हठयोग का प्रभाव
इन ग्रन्थों पर हठयोग साधना का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। इन्होंने योग-साधना के चमत्कारों का भी वर्णन किया है।
(7) हिन्दू संस्कृति का निरूपण
प्रेम-गाथाओं के काव्य को लिखने वाले कवि प्रायः मुसलमान सूफी थे। इन्हें हिन्दुओं के धार्मिक सिद्धान्तों, आचार-विचारों, प्रचलित रीति-रिवाजों का सामान्य ज्ञान था। इन कवियों ने इनके सहज स्वाभाविक वर्णन किए हैं। इन वर्णना से प्रतीत होता है कि इन कवियों के मन में हिन्दू संस्कृति के प्रति रागात्मक लगाव था।
(8) अलौकिक प्रेम की व्यंजना
इन प्रेम गाथाओं में लौकिक प्रेम (इश्के मजाजी) के द्वारा अलौकिक प्रेम (इश्के हकीकी) की व्यंजना की गई है। इन गाथाओं में चित्रित प्रेम के द्वारा परमात्मा के प्रति जीवात्मा के मिलन के साधना मार्ग की कठिनाइयों का निरूपण है। जायसी ने इसी दृष्टि से पद्मावत के अन्त में समस्त गाथा को अन्योक्ति कहा है।
(9) अस्पष्ट दाशनिक चिन्तन
इन गाथाओं में प्रायः समस्त दार्शनिक चिन्तन पद्धतियों की चर्चा मिलती है परन्तु वह सब सुनी-सुनाई बातों के आधार पर है। इन्हें देखकर हम यह नहीं कह सकते हैं कि कवि किस चिन्तन-पद्धति का अनुयायी है। एक बात स्पष्ट है, इन गाथाओं में सूफी मत की अपेक्षा भारतीय दर्शन को अधिक अपनाया गया है।
(10) प्रेम और सौन्दर्य का वर्णन
इन गाथाओं में स्वच्छन्द प्रेम का वर्णन है- परन्तु सर्वत्र सामाजिक मर्यादा का ध्यान रखा जाता है।
इन कवियों ने प्रेम का जो निरूपण किया है वह एकदम भारतीय प्रेम-पद्धति के अनुसार है। आरम्भ में नायक (आत्मा) को प्रियतम (ईश्वर) की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील दिखाया है। यह पारसी प्रेम पद्धति है। बाद में, उपसंहार में, नायिका के प्रेमोत्कर्ष को दिखाया है। जायसी ने पद्मावत में पद्मावती के सतीत्व तथा उत्कट पति-प्रेम को दिखाकर भारतीय प्रेम-पद्धति का पूर्ण निर्वाह कर दिया है। इन प्रेम-काव्यों में निरूपित प्रेम का स्वरूप सर्वत्र संयत एवं मर्यादित है।
(11) प्रबन्ध शैली का प्राधान्य
ये प्रेमाख्यानक काव्य चरित काव्यों की शैली के कथा-काव्य हैं। केवल पद्मावत को महाकाव्य कहा जा सकता है। ये समस्त काव्य किसी कथानक विशेष को लेकर चलते हैं। अतः इनकी शैली मूलतः प्रबन्धात्मक ही रही है। इनमें वस्तु-वर्णन का निर्वाह विशेष रूप से द्रष्टव्य है।
(12) अवधी भाषा का प्रयोग
इन प्रेमगाथा काव्यों में प्रायः पूर्वी-अवधी का प्रयोग किया गया है। उसमान और नसीर पर भी अवधी पर भोजपुरी का प्रभाव है तथा नूर मुहम्मद की भाषा पर ब्रज भाषा का प्रभाव है।
(13) दोहा चौपाई-पद्धति
प्रायः सभी प्रेम-गाथा काव्यों की रचना दोहा- चौपाई में हुई है। दोहा-चौपाई शैली सम्भवतः अवधी भाषा के सर्वधा उपयुक्त है। महाकवि तुलसीदास ने भी इन कवियों से प्रेरणा ग्रहण करके रामचरितमानस की रचना अवधी में दोहा-चौपाई में की।
(14) साम्प्रदायिक प्रतिबद्धता का अभाव
इन सूफी कवियों ने किसी सम्प्रदाय या मतवाद का खण्डन-मण्डन नहीं किया, उन्होंने तो अपनी बात को सीधे सरल रूप में व्यक्त करके मानव हृदय को स्पर्श करने का सफल प्रयत्न किया है। यही कारण है कि इन कवियों की अभिव्यक्ति-पद्धति सर्वथा ऋजु सरल है।
(15) मानव हृदय के सूक्ष्म भावों की मार्मिक व्यंजना
इन कवियों ने मानव-हृदय में गहरी पैठ दिखाई है। रति एवं शोक स्थायी भावों के अत्यन्त मार्मिक एवं सावयव वर्णन किये हैं।
(16) श्रेष्ठ प्रकृति वर्णन
इन कवियों ने भारत की प्रकृति के सुरम्य रूपों को चित्रित किया है। वर्णन प्रायः परम्परा युक्त हैं-परन्तु इनसे ये काव्य ग्रन्थ भारतीय जलवायु के अनुरूप बन गए हैं।
(17) रहस्यवाद की सरस अभिव्यक्ति
सूफी कवियों ने अज्ञात के प्रेम की अभिव्यक्ति की है। इस अभिव्यक्ति के द्वारा भावात्मक रहस्य भावना का स्वयंमेव समावेश हो गया है। इन सूफी कवियों ने अद्वैत सिद्धान्त का रहस्यवाद की आधारशिला मानते हुए भी उसके साथ अपने हृदय की मधुर भावना को संयोग कर दिया है। इस प्रकार उन्होंने प्रेम मूलक-भावना प्रधान रहस्यवाद की काव्यमयी सरस अभिव्यंजना की है।
(18) हिन्दु संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति का समन्वय
डॉ. रामकुमार वर्मा के शब्दों में, “हिन्दू और मुसलमान संस्कृतियों का प्रेमपूर्ण सम्मिलन ही प्रेम काव्य की अभिव्यक्ति है। हिन्दु धर्म के प्रधान आदर्शों को मानते हुए भी सूफी सिद्धान्तों के निरूपण में इन कवियों की कुशलता है। इन दो भिन्न संस्कृतियों के एकीकरण ने प्रेम काव्य को सजीवता और साथ-साथ लोकप्रियता प्रदान की। फलस्वरूप जिस प्रकार संत-काव्य की परम्परा धार्मिक काल के बाद भी चलती रही, उसी प्रकार प्रेम-काव्य-की परम्परा भी धार्मिक काल के बाद भी साहित्य में दृष्टिगोचर होती रही।” हिन्दू संस्कृति के आदर्शवाद और मुसलमान संस्कृति के सूफी मत के सिद्धान्तों से प्रेम-काव्य को परिपुष्ट किया गया।