“यदा यदा हि धर्मस्य.. .’ के सिद्धान्त के अनुसार अवतार की कल्पना, गीता से हो चुकी थी। राम को आदि कवि बाल्मीकि ने अंशवतार मान लिया था । कृष्ण का भी अवताराण गीता के समय में हुआ और भगवतपुराण ने उसे दृढ़ता प्रदान की ।
बल्लभाचार्य ने सगुण को ही ब्रह्म का वास्तविक रूप माना । कृष्ण लीला के पदों की यह परम्परा हिन्दी में विद्यापति ने सर्वप्रथम अपनाई बंगाल में इसका गान चण्डीदास ने किया। जिस भाँति समस्त उत्तर भारत में कश्मीर से बंगाल तक कृष्ण काव्य के नायक रूप में आये।
कृष्ण भक्ति काव्य पर स्पष्ट रूप में दो प्रभाव दिखाई पड़ते हैं एक तो बल्लभ सम्प्रदाय के अनुसार श्री कृष्ण के बाल स्वरूप की आराधना तथा दूसरी गीत पद्धति फल यह हुआ कि राधा-कृष्ण विषयक प्रेम का वर्णन ही इन कवियों के काव्य का मुख्य विषय हो गया, श्रीकृष्ण की मधुर मूर्ति ही इनके काव्य का विषय बन गई ।
कृष्ण भक्ति परम्परा में अष्टछाप के कवियों का नाम विशेष उल्लेखनीय है,
- सूरदास,
- कृष्णदास,
- नन्ददास,
- परमानन्ददास,
- कुम्भनदास,
- छीतस्वामी,
- चतुर्भुज,
- गोविन्दस्वामी
ये अष्टछाप के कवि हुए।
इन कवियों में सूरदास जी जन्म सं. १५४० और मृत्यु सं. १६२० मानी जाती है। ये चन्दबरदाई के वंशज माने जाते हैं। कृष्णभक्त कवियों में सूरदास जी का सर्वप्रथम स्थान है। इस शाखा में मीराबाई और रसखान का नाम भी उल्लेखनीय है।
कृष्ण भक्ति काव्य की विशेषताए
(१) श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं के चित्रण की प्राथमिकता दी गई ।
(२) वात्सल्य और श्रृंगार की प्रधानता रही।
(३) माधुर्य भाव की प्रधानता ही इस शाखा की विशेषता है।
(४) वर्णन की स्वाभाविकता और मनोवैज्ञानिकता कृष्ण काव्य की प्रमुख विशेषता है ।
(५) भाषा, भाव और शैली का सामंजस्य दिखाई पड़ता है।
(६) मानवीय भावनाओं का इस शाखा के कवियों ने अत्यन्त स्वाभाविक तथा मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है।
(७) उद्धव-गोपी संवाद के द्वारा ज्ञान मार्ग की दुरूहता पर व्यंग्य किया। गया है।
(८) प्रायः सभी कवि गायक थे तथा उनकी रचनाएँ अधिकांश गेय हैं । कृष्ण भक्ति का प्रचार गा-गाकर किया गया है।
सारांश यह है कि कृष्ण भक्ति काव्य में वर्णन का स्वाभाविकता, भाषा, भाव, शैली का सामंजस्य स्पष्ट रूप में दिखाई पड़ता है और मानवीय भावनाओं का भी आदर किया गया है। साथ ही ज्ञान मार्ग की दुरूहता बताई गई है।