ज्ञानाश्रयी शाखा भक्ति कालीन निर्गुण काव्यधारा की एक प्रमुख शाखा है, जो विशेष रूप से साधना और ज्ञान के महत्व को उजागर करती है। इस शाखा के कवियों ने ईश्वर की भक्ति को केवल ज्ञान के माध्यम से व्यक्त किया और न कि केवल बाह्य आडम्बरों और धार्मिक कर्मकांडों से। ज्ञानाश्रयी शाखा के काव्य में यह विचार व्यक्त किया गया है कि केवल एक सच्चे साधक को ही ईश्वर का साक्षात्कार हो सकता है, जो शुद्ध ज्ञान और साधना में विश्वास रखता हो।
कबीरदास जी का योगदान
ज्ञानाश्रयी शाखा के सबसे प्रसिद्ध कवि कबीरदास जी थे, जिनके काव्य ने इस शाखा की नींव रखी। कबीर ने अपनी कविता के माध्यम से यह सिद्धांत प्रस्तुत किया कि ईश्वर न तो किसी विशेष रूप में होता है और न ही किसी विशेष धर्म से संबंधित है। वे निर्गुण ब्रह्म की उपासना करते थे और इस विचारधारा को फैलाया। कबीरदास जी ने समाज में व्याप्त जातिवाद, धार्मिक रूढ़िवाद, आडंबरी प्रथाओं और माया के प्रति मोह को चुनौती दी। उनके अनुसार, केवल प्रेम और भक्ति के माध्यम से ही आत्मा परमात्मा से मिल सकती है, और यही उनकी भक्ति का मुख्य आधार था।
कबीर का कहना था कि:
“काशी में हम प्रकट भये, रामानन्द चेताये”
यह पंक्ति यह दर्शाती है कि कबीर ने रामानंद से भक्ति मार्ग को ग्रहण किया, लेकिन उनका विश्वास हमेशा निर्गुण उपासना में था। वे कहते थे कि राम का नाम मात्र एक प्रतीक है, और इसका वास्तविक अर्थ ब्रह्म के सूचक के रूप में है।
ज्ञानाश्रयी शाखा के अन्य प्रमुख कवि
कबीर के अलावा इस शाखा के अन्य महत्वपूर्ण कवि थे:
- दादू-दयाल
- नानकदेव
- मलूकदास
- रैदास
- सुन्दरदास
इन कवियों ने भी निर्गुण ब्रह्म के प्रति अपनी भक्ति को प्रस्तुत किया। दादू-दयाल और रैदास ने भी जातिवाद, धार्मिक आडम्बरों, और समाज में व्याप्त असमानताओं के खिलाफ अपने काव्य के माध्यम से विरोध किया। उनका काव्य लोगों को एकजुट करने, समाज सुधारने और समानता की ओर प्रेरित करने वाला था।
ज्ञानाश्रयी काव्यधारा की विशेषताएँ
निर्गुण ब्रह्म की उपासना
ज्ञानाश्रयी शाखा का मुख्य संदेश निर्गुण ब्रह्म की उपासना था। निर्गुण ब्रह्म वह परम सत्ता है, जो न तो किसी रूप में होती है और न ही किसी गुण में बंधी होती है। यह ब्रह्म प्रत्येक जीव के अंदर विद्यमान है, और उसका अनुभव ही वास्तविक पूजा है। कबीर ने कहा था:“परब्रह्म का तेज़ का, कैसा है उपमान,
कहिवे कूँ सोभा नहीं, देख्या ही परवान।”इस प्रकार, कबीर ने बताया कि शब्दों और रूपों से परे ब्रह्म का कोई सटीक विवरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह केवल अनुभव किया जा सकता है।
मिथ्या आडम्बरों और रूढ़ियों का विरोध
सन्त कवियों ने आडम्बरी धार्मिक प्रथाओं का विरोध किया और स्पष्ट किया कि धार्मिक क्रियाएँ जैसे तिलक, माला, रोजा, नमाज, योग आदि केवल बाह्य कर्मकांड हैं, जो केवल दिखावा करते हैं। कबीर ने इन सभी चीजों का विरोध करते हुए कहा कि ये किसी को भी ईश्वर के निकट नहीं ले जातीं। उनका मानना था कि सच्ची भक्ति तो केवल एकाग्रता, साधना और प्रेम से ही संभव है।
गुरु की महत्ता
सन्त काव्य में गुरु का विशेष स्थान है। अधिकांश सन्त कवियों ने गुरु को ईश्वर से भी ऊपर स्थान दिया। कबीर ने तो गुरु को गोविन्द से भी अधिक महत्वपूर्ण बताया। उनका मानना था कि गुरु ही वह मार्गदर्शक होते हैं जो हमें सत्य की ओर मार्गदर्शन करते हैं। कबीर ने कहा:“गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागू पाय,
बलिहारी गुरु की, जिन गोविन्द दिया मिलाय।”इस पंक्ति से यह स्पष्ट है कि कबीर के अनुसार गुरु की महिमा का कोई मूल्य नहीं हो सकता, क्योंकि गुरु ही हमें ईश्वर से मिलाते हैं।
जाति-पाँति का विरोध
सन्त काव्य का सबसे बड़ा योगदान जातिवाद के खिलाफ था। यह काव्यधारा समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था के विरोध में खड़ी हुई थी। सभी सन्त कवियों ने यह माना कि सभी मनुष्य समान हैं और सभी को ईश्वर की भक्ति का समान अधिकार है। कबीर, रैदास, और अन्य सन्त कवियों ने अपने काव्य में इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया। कबीर ने कहा:“जाति-पाँति पूछै नहि कोई, हरि को भजे सो हरि को होई”इस पंक्ति का तात्पर्य है कि जाति-पाँति से कोई फर्क नहीं पड़ता, जो ईश्वर को भजता है वही ईश्वर के करीब होता है।
प्रेम की महत्ता
सन्त काव्य में प्रेम को सर्वोत्तम भाव माना गया है। प्रेम भक्ति का सबसे शुद्ध रूप है, और यह भक्ति और समर्पण के रास्ते को दर्शाता है। कबीर, रैदास, और अन्य सन्त कवि यह मानते थे कि जो जितना अधिक प्रेम करेगा, वही उतना अधिक ईश्वर के करीब होगा। प्रेम के माध्यम से ही आत्मा ब्रह्म से मिल सकती है।
रहस्यवाद
सन्त काव्य में रहस्यवादी चेतना का भी विकास हुआ। प्रेम और भक्ति के मार्ग में एक गहरा रहस्य छिपा होता है। कबीर और अन्य सन्त कवि प्रेम और भक्ति के जरिए इस रहस्य को उजागर करने की कोशिश करते थे। उनका कहना था कि प्रेम में केवल आत्मसमर्पण ही अंतिम सत्य है।
माया का विरोध
सन्त काव्य में माया के प्रति घृणा स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। माया को महाठगिनी बताया गया है जो हमें सांसारिक मोह-माया में फंसाए रखती है। कबीर ने कहा:“माया महा ठगिनी हम जानी,
तिरगुन पाँस लिए कर डोलै वौले माधुरी वानी।”यहां कबीर माया को एक धोखा देने वाली शक्ति के रूप में चित्रित करते हैं, जो हमें सच्चे ज्ञान से भटका देती है।
लोक-संग्रह की भावना
सन्त काव्य में लोक-संग्रह की भावना प्रबल रूप से दिखाई देती है। इन कवियों का मानना था कि एक अच्छे साधक को समाज से अलग नहीं होना चाहिए, बल्कि वह समाज में रहकर ही मुक्ति प्राप्त कर सकता है। वे यह मानते थे कि समाज में सुधार करने और जीवन के वास्तविक उद्देश्यों को समझने के लिए लोक-संग्रह आवश्यक है। गुरु नानक ने भी यही संदेश दिया:“किंतु करौ अते वण्ड के छकों”
लोक भाषा का प्रयोग
सन्त कवियों ने अपनी कविताओं में लोक भाषा का प्रयोग किया, ताकि उनका संदेश आम जनता तक आसानी से पहुंच सके। इनकी भाषा सरल, सहज और आडम्बरी से मुक्त थी। इस कारण इसे “सधुक्कड़ी” भाषा कहा जाता है, जिसमें कई बोलियाँ जैसे अवधी, ब्रज, पंजाबी, राजस्थानी आदि का मिश्रण था।
ज्ञानाश्रयी शाखा की संक्षिप्त विशेषताएँ
राम-रहीम की एकता का उपदेश
सन्त कवियों ने हिन्दू-मुस्लिम दोनों धर्मों के बीच एकता की बात की और समानता का संदेश दिया।
एकेश्वरवाद की पुष्टि
सभी सन्त कवियों ने एकेश्वरवाद की बात की, जो दोनों धर्मों को एकता की दिशा में ले गया।
सगुण भक्तों की पृष्ठभूमि तैयार करना
इन कवियों ने सगुण भक्ति का आधार तैयार किया, जो बाद में भक्ति आंदोलन के रूप में विकसित हुआ।
जाति-पाँति का विरोध
सन्तों ने जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाई और यह संदेश दिया कि सभी को ईश्वर की भक्ति का समान अधिकार है।
साम्प्रदायिकता का विरोध
इन कवियों ने साम्प्रदायिकता का विरोध किया और समाज में एकता और भाईचारे को बढ़ावा दिया।
स्वतंत्र भाषा का प्रयोग
इनकी भाषा सीधी, सरल और आडम्बरी से मुक्त थी।
हठयोग और सूफी मत का प्रभाव
इनके काव्य में हठयोग, सूफी मत, शंकराचार्य के अद्वैतवाद का प्रभाव देखा जाता है।
इस प्रकार, ज्ञानाश्रयी शाखा ने भक्ति और ज्ञान के अद्भुत संगम के रूप में एक नया काव्य दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, जो आज भी हमारे समाज में एक प्रेरणा स्रोत के रूप में जीवित है।
निष्कर्ष
ज्ञानाश्रयी शाखा भक्ति काव्य की एक महत्वपूर्ण धारा है, जिसने समाज में सुधार, आत्मज्ञान और ईश्वर के साथ गहरे संबंध स्थापित करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस शाखा के कवियों ने न केवल भक्ति और साधना के माध्यम से आत्मा के परमात्मा से मिलन को महत्वपूर्ण माना, बल्कि समाज में व्याप्त आडम्बरों, जातिवाद और धर्म के नाम पर हो रहे भेदभाव के खिलाफ भी मुखर होकर अपनी बात रखी।
कबीरदास, रैदास, गुरु नानक, दादू और अन्य सन्त कवियों ने यह संदेश दिया कि ईश्वर न तो किसी विशेष रूप में है और न ही किसी धर्म या जाति से जुड़ा हुआ। सच्ची भक्ति केवल प्रेम, साधना और ज्ञान के माध्यम से ही संभव है। इन कवियों ने धर्म और जातिवाद के नाम पर होने वाले भेदभाव के खिलाफ एकजुटता का संदेश दिया और यह साबित किया कि हर व्यक्ति को समान रूप से ईश्वर की भक्ति का अधिकार है।
इस शाखा का योगदान न केवल धार्मिक विचारधारा तक सीमित था, बल्कि इसने सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी समाज में गहरी छाप छोड़ी। ज्ञानाश्रयी शाखा का काव्य न केवल एक शुद्ध भक्ति मार्ग को प्रस्तुत करता है, बल्कि यह हमें हमारे भीतर छिपे हुए दिव्य स्वरूप को पहचानने और जीवन के वास्तविक उद्देश्य को समझने का अवसर भी प्रदान करता है।
अंततः, ज्ञानाश्रयी शाखा ने समाज को जागरूक किया कि बाहरी दिखावे और धर्मिक कर्मकांडों से परे जाकर व्यक्ति को अपने भीतर के सत्य को पहचानने की आवश्यकता है, क्योंकि वही असली ईश्वर है।