भक्तिकाल हिन्दी साहित्य के इतिहास का स्वर्ण युग है। इस कथन की समीक्षा कीजिए।

भक्तिकाल

हिन्दी साहित्य के इतिहास में सं. १३७५ से सं. १७०० तक का काल भक्तिकाल के नाम से प्रसिद्ध है। इस युग में हिन्दी काव्य की सर्वतोमुखी उन्नति हुई। इस युग में अनेक प्रतिभाशाली कलाकार हिन्दी काव्य को अलंकृत करने के लिए अवतरित हुए और उन सबने अपनी प्रतिभा का चमत्कार दिखाया।

कबीरदास

भक्तिकाल के प्रारंभ में सबसे पहले हमें महात्मा कबीरदास के दर्शन होते हैं। इस महाकवि ने सीधी भाषा शैली में मानवजाति को जो अमर संदेश दिया वह भारतीय साहित्यकारों में अनन्तकाल तक प्रतिध्वनित होता रहेगा। उन्होंने पारस्परिक वैमनस्य और पाख को दूर करके धर्म का पावन सन्देश सुनाया तथा आत्मानुभूति के द्वारा ब्रह्म के रहस्य को स्पष्ट किया। उनका प्रभाव रवीन्द्रनाथ, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी, सुमित्रानन्दन पत, महादेवी वर्मा जैसे आधुनिक कवियों पर आज भी देखा जाता है ।

मलिक मुहम्मद जायसी

मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ जैसा प्रेमप्रधान काव्य लिखकर पारस्परिक वैमनस्य को दूर करके समता के आनन्द लोक में विचरण करने का मार्ग दिखाया। उन्होंने राजा रत्नसेन और रानी पद्मावती को तो अमर बना ही दिया, पर साथ ही नागमती के विरह का ऐसा वर्णन किया कि जिसकी तुलना में विश्व का कोई भी वियोग वर्णन नहीं ठहर सकता बारहमासा वर्णन तथा प्रकृति वर्णन में कवि ने अपनी अद्भुत कुशलता दिखाई है। अलाउद्दीन के समक्ष राजा रत्नसेन और पद्यावती की प्रशंसा के द्वारा जायसी ने अपने हृदय की उदारता का भी परिचय दिया है। इस प्रकार पद्मावत में कवि की उदार मनोवृत्ति काव्य का संतुलित भावपक्ष, भारतीय संस्कृति का सूक्ष्म निदर्शन आदि की दृष्टि से जायसी का स्थान हिन्दी में बहुत ऊँचा  है ।

गोस्वामी तुलसीदास

गोस्वामी तुलसीदास को पाकर तो हिन्दी काव्य स्वयं ही गोश्वान्वित हुआ है। इस अमर कवि ने ‘रामचरितमानस’ के रूप में एक ऐसा अमरदीप प्रज्वलित कर दिया है जो अनन्तकाल तक भारतीय साहित्य को दीन करता रहेगा। उसका संदेश मार्गभ्रष्ट मानव को वास्तविक और सही दिशा का ज्ञान करा सकता है। हिन्दू संस्कृति का तो वह ऐसा संदेशवाहक है, जिसने निराशाग्रस्त जनता के मानस में आशा का नवीन संचार किया है। मानस के रूप में एक आदर्श महाकाव्य देकर उन्होंने ‘विनयपत्रिका’ और ‘गीतावली’ के रूप में भावों की जो नदी बहाई है। विभिन्न काव्यशैलियों की दृष्टि से भी उन्होंने हिन्दी साहित्य को सर्वाधिक समृद्ध किया है।

सूरदास

सूरदास की वात्सल्य भक्ति और संगीत के मनमोहक रागों का उद्भव भी इसी काल में हुआ है। जन्मान्य होकर भी अन्त दृष्टि से किसी अनुपम सौन्दर्य का दर्शन करने वाले इस भक्त कवि ने ‘सूर सागर’ के नाम से जिस अमृत सागर को प्रवाहित किया है, उसमें मातृ-हृदय की ममता बाल्की की सरलता और विरह की आकुलता के साथ-साथ संगीत, साहित्य और भाव की त्रिवेणी मिलकर एकरस हो गई है। वैष्णगीतिकाव्य का शास्त्रीय संगीत के रूप में चरमोत्कर्व इसी कलि के द्वारा हुआ भाषा का साहित्यिक रूप में आविष्कार भी इसी महाकवि के हाथों हुआ।

भक्तिकाल हिन्दी साहित्य के इतिहास का स्वर्ण युग

भक्तिकाल के चारों प्रधान कवि हिन्दी कवियों में प्रथम पंक्ति के अधिकारी हैं और प्रत्येक ने हिन्दी साहित्य को चिरस्थायी वस्तु प्रदान की है। साथ ही वीरगाथाकाल और रीतिकाल में कवि राज्याश्रित थे। उन्होंने अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने के लिए ही काव्य रचना की, पर भक्तिकाल के भक्त कवियों की वाणी स्वान्तः सुखाय थी। अतः हृदय से उत्पन्न भावों में और फरमायशी नकली भावों में जो अंतर होता है, वही अंतर भक्तियुगीन काव्य में है। भक्तिकाल का काव्य उद्देश्यपूर्ण है, हृदयहारी है और सत्य रूप में आनन्दप्रद है, जबकि वीरगाथाकालीन साहित्य संदिग्ध है अतः उसके संबंध में कुछ कहना उचित नहीं है। रीतिकालीन काव्य के संबंध में सभी आलोचकों का कहना है कि इसका भावपक्ष अपेक्षाकृत शिथिल है और कलापक्ष अधिक सबल है। पर भक्तिकालीन काव्य में भावपक्ष और कलापक्ष का पूर्ण संतुलन पाया जाता है। दोनों ही पक्ष सशक्त और परस्पर पोषक हैं ।

भक्तिकाल की संगीतात्मकता हिन्दी साहित्य की अमर देन है। संगीत काव्य की रचना के लिए कवि में आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है। संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश के कुछ कवियों में यह आत्मविश्वास था। आदिकाल और रीतिकाल के कवि इससे अछूते रहे। रीतिकालीन कवि तो आश्रयदाता को रिझाने में सब कुछ खो  बैठे थे जब कि भक्त कवियों को दरबार से कुछ भी मतलब नहीं था। इसलिए भक्तिकाल ने वह अपूर्व संगीत साहित्य दिया जो आज भी सुननेवाले को भाव से प्राप्लावित कर देता है।

विभिन्न काव्यरूपों की दृष्टि से भक्तिकाल सबसे अधिक समृद्ध है। इस काल हिन्दी में प्रबंधकाव्य, मुक्तककाव्य, सूरकाव्य, संगीतकाव्य, कथाकाव्य, गीतिनाट्य,गद्य रचनाएँ आदि सभी प्रकार के साहित्य का सृजन हुआ। इससे पहले वीरगाथाकाल और  बाद का रीतिकाल भी इतने अधिक काव्यरूपी से विहीन ही रहा है। भक्तिकाल को उत्कृष्टता का यह एक प्रधान लक्षण है। इस काल के साहित्य में भारतीय संस्कृति का जैसा दर्शन पाया जाता है वैसा हिन्दी में अन्यत्र मिलना असंभव है। इस साहित्य में सगुण-निर्गुण भक्ति, हिन्दू मुस्लिम एकता, गूढ दार्शनिकता और आध्यात्मिकता, आदर्श जीवन, समाज और राज्य का संपूर्ण चित्र आदि सभी बातें साहसिक ढंग में उपलब्ध है।

हित की भावना से युक्त काव्य को साहित्य कहा जाता है। इस दृष्टि से भक्तिकाल का साहित्य ही समाज को उन्नति का मार्ग दिखानेवाला, प्रेरणा देनेवाला और उद्धारक है । वह उपदेष्टा होते हुए भी ‘कान्तासंमित’ उपदेश देनेवाला है अतः कलापूर्ण है। उसके विरुद्ध आदिकाल का साहित्य अतिशय कल्पना के कारण अतिरंजनापूर्ण इतिहास मात्र है, तो रीतिकाल का साहित्य ऐश्वर्य और श्रृंगार की अधिकता के कारण जुगुप्सा प्रेरक बन गया है। ये दोनों ही साहित्य अपने आपको सार्थक नहीं कर पाये हैं, किन्तु भक्तिकाल का साहित्य सच्चे अर्थों में हित की भावना लिए हुए है।

  भाषा की दृष्टि से भी ब्रज और अवधी जैसी सामान्य बोलचाल की भाषाओं को मधुर साहित्यिक रूप देने का कार्य भक्तिकाल ही कर सका है। पूर्वकाल की। भाषा संक्रमण कालीन होने से साहित्यिक भाषा कहलाने की अधिकारिणी नहीं रही है और रीतिकाल में अवधी के तो दर्शन ही नहीं होते। ब्रजभाषा का रूप भी विकृत हो गया है। भक्तिकाल में ही भाषा का व्यवस्थित रूप देखने को मिला है।

भक्तिकाल हिन्दी साहित्य के इतिहास का स्वर्ण युग कथन की समीक्षा

इस प्रकार हिन्दी साहित्य के प्रथम तीन कालों में से भक्तिकाल सभी दृष्टियों से अधिक समृद्ध होने के कारण सुवर्णयुग कहलाने का अधिकारी है। भक्तिकाल हिन्दी साहित्य के इतिहास का स्वर्ण युग है।

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