ज्ञानाश्रयी शाखा का परिचय
ज्ञानाश्रयी शाखा भक्तिकालीन निर्गुण काव्यधारा की एक शाखा है। ज्ञानाश्रयी शाखा के काव्यों में साधना एवं ज्ञान की श्रेष्ठता का भाव अभिव्यक्त हुआ है।
कबीर दास जी इस शाखा के प्रमुख कवि थे। भक्ति काल के आरम्भ में सबसे पहले कबीर की रचना ही कुछ अधिक मिलती है। अतः निर्गुण सम्प्रदाय की ज्ञानाश्रयी शाखा प्रतिष्ठाता कबीर ही कहे जाते हैं। कबीर जैसे बहुमुखी प्रतिभा वाले कवि के लिए वैयक्तिक तथा सामाजिक संचरणों के बीच चलने वाले बिरोध को मिटाकर अन्तनियमों विचारों तथा आस्थाओं के बीच एक सुखद समत्व का भाव स्थापित करने का कार्य उस समय की विचलित सामाजिकता ने दिया जिसे कवर मे पूरा किया । लोक मुक्ति की और उन्होंने बराबर आग्रह किया। उन्होंने कहा :-
“काशी में हम प्रकट भये, रामानन्द चेताये”
उन दिनों रामानन्द भक्ति मार्ग को अधिक प्रशस्त बनाने के लिए जाति-पाति और खान-पान का भी विरोध कर रहे थे। कबीर ने राम नाम तो निश्चित ही रामानन्द से लिया किन्तु उसका अर्थ भिन्न का दिया उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति निर्गुण उपासना की ओर ही रही। कबीर के राम, ब्रह्म के सूचक हो गये कबीर के पन्ध में चार तत्वों का मिश्रण हुआ। भारतीय ब्रह्मवाद, सूफियों का भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों का साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णव मत का अहिंसावाद। कबीर यद्यपि निर्गुण धारा के प्रवर्तक है तथापि उपासना के क्षेत्र में शुद्ध निर्गुण असम्भव है। कहीं-कहीं ब्रह्मा में गुणों का आरोप हो ही गया ।
उपासना के बाहरी डंकोसलों को व्यर्थ का महत्व देने वाले हिन्दू पण्डितों और मुसलमान मुल्लाओं की उन्होंने कड़ी आलोचना की। मुसलमानों की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा –
बकरी पाती खात है, ताकी काही खाल ।
जो बकरी को खात है, ताकी कौन हवाल ।।
ज्ञानाश्रयी काव्यधारा के प्रमुख कवियों के नाम
ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि थे-
(1) कबीरदास,
(2) दादू-दयाल,
(3) नानकदेव,
(4) मलूकदास,
(5) रैदास,
(6) सुन्दरदास आदि।
ज्ञानश्रयी शाखा के दो प्रमुख कवि कबीरदास एवं सुन्दरदास थे। इनकी रचनाएँ क्रमशः ‘बीजक’ (कबीरदास) एवं ‘सुन्दर विलास’ (सुन्दरदास) हैं।
ज्ञानाश्रयी (सन्त) काव्य की प्रमुख विशेशताएँ/प्रवृत्तियाँ
सन्त काव्यधारा के अन्तर्गत भक्ति भावना का प्रवाह आद्योपान्त दिखाई देता है काव्यत्व की दृष्टि से यह काव्यधारा भले ही उच्च स्तरीय न रही हो, किन्तु वैचारिक दृष्टि से इसका महत्त्व बहुत अधिक है) वास्तव में सन्त काव्य एक विद्रोही कवि की मनोभूमि से उद्भूत सहज सरल अभिव्यक्तियों का काव्य है। जैसे सन्त कवि आडम्बरों का विरोध करते थे, वैसे ही उन्होंने अपने काव्य को भी कृत्रिमता और प्रदर्शन की मनोवृत्ति से दूर रखा है। इनकी अभिव्यक्ति सहज और निश्चल है। न इनके यहाँ अलंकार प्रयोग के प्रति आकर्षण है और न परिष्कृत शब्दावली का मोह ही है। सन्त काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों को निम्नांकित रूप में समझा जा सकता है।
निर्गुण ब्रह्म की उपासना
सन्त काव्य की पहली प्रवृत्ति निर्गुण ब्रह्म की उपासना रही है इनका निर्गुण ब्रह्म साधकों के शून्य से पृथक् है। वह सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है और वही प्रत्येक जीवधारी की साँस में समाया हुआ है। वह वर्णन से परे है, उसका केवल अनुभव किया जा सकता है। इसी कारण कबीर ने स्पष्ट कहा था कि-
परब्रह्म का तेज का, कैसा है उपमान,
कहिवे कूँ सोभा नहीं, देख्या ही परवान।।
मिथ्या आडम्बरों और रूढ़ियों का विरोध
सन्त कवियों ने मिथ्या आडम्बरों और रूढ़ियों का विरोध किया है, इसका प्रमुख कारण यह रहा है कि सन्त मन वज्रयानी सिद्धों और हठ योगियों के सिद्धान्तों से पर्याप्त अभावित रहा है इन सिद्धों और योगियों ने सामाजिक बन्धनों और आडम्बरों की कटु आलोचना की है। यही प्रवृत्ति सन्त काव्य के अन्तर्गत मिलती है कबीर ने तिलक छापा, माला, रोजा, नमाज और योग की क्रियाओं को व्यर्थ बतलाया था और जो इन्हें मानते थे, इन्हें कड़ी फटकार देकर उन्हें सही मार्ग पर लाने का प्रयास किया था।
गुरु की महत्ता
सन्त काव्य में सभी सन्तों ने गुरु को विशेष महत्त्व दिया है। अधिकांश सन्तों ने गुरु को ईश्वर के समान माना है। समूचे सन्त काव्य में गुरु के महत्त्व का प्रतिपादन बहुत सरल किन्तु आकर्षक ढंग से हुआ है। कबीर ने तो गुरु को गोविन्द से भी अधिक महत्त्व प्रदान करते हुए कहा था-
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु की, जिन गोविन्द दिया मिलाय ।।
जाति-पाँति का विरोध
सन्त काव्य में जाति-पाँति के नियमों का खुला विरोध देखने को मिलता सभी सन्त यह मान कर चले कि सृष्टि के सभी मनुष्य बराबर हैं। और सभी को समान रूप से ईश्वर का अधिकार है। “जाति-पाँति पूछै नहि कोई, हरि को भजे सो हरि को होई” सिद्धान्त के आधार पर सन्त काव्य का विकास हुआ है। आचार्य शुक्ल के कथानुसार जाति-पाँति के खण्डन के पक्ष में सभी सन्त थे क्योंकि ये छोटी जाति के थे। कबीर स्वयं जुलाहा थे, रैदास चमार थे इसके अतिरिक्त सन्तों ने हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों के लिए एक ही सामान्य भक्ति मार्ग की उद्भावन की थी।
प्रेम की महत्ता
सन्त काव्य में प्रेम के महत्त्व को मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया गया है। यह विवाद का विषय भले ही हो, कि प्रेम तत्व कऱ्हा से आया है किन्तु सन्त कवि इसी तथ्य को सत्य बतलाते थे कि भक्ति के मार्ग में और प्रेम के मार्ग में कोई अन्तर नहीं है। प्रेम का मार्ग स्वार्थ के त्याग, अहंकार के त्याग और समर्पण का मार्ग है। जो जितना समर्पण कर सकता है वह उतना ही बड़ा भक्त बन सकता है।
रहस्यवाद
प्रेम तत्त्व को महत्त्व देने के कारण ही सन्त काव्य में रहस्यवादी चेतना का विकास हुआ है। वैसे तो सन्त काव्य में खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति के पर्याप्त दर्शन होते हैं, किन्तु प्रेम के एकान्त साम्राज्य में पहुँच कर ये और सब कुछ भूल कर ‘जल में कुम्भ में जल है, बाहिर भीतर पानी’ देखने लगते हैं। सभी सन्तों की आत्मा प्रेमानुभूतियों से व्याकुल होकर ईश्वर प्राप्ति के लिए तड़पती रही है कबीर आदि सन्तों की वाणी में जिज्ञासा, उत्सुकता और मिलन आदि रहस्यवाद की सभी अवस्थाओं के दर्शन सरलता से हो जाते हैं।
नामः स्मरण एवं भजन पर जोर
गुरु द्वारा प्राप्त ईश्वर के नाम का स्मरण करने से, लगातार उसका भजन करने से ही मुक्ति सम्भव है। यह धारणा सभी सन्तों की ही रही है। वे मानते रहे हैं कि धार्मिक या आध्यात्मिक पोथियाँ पढ़ने से व्यक्ति माया-मोह के बन्धनों से मुक्त नहीं हो सकता है। इसी भावना के कारण कबीर ने प्रेम का ढाई अक्षर पढ़ने की सलाह दी थी।
मार्मिक उक्तियाँ
सन्त काव्य में प्रेम को महत्त्व देने के कारण शृंगार के विरह पक्ष से जुड़ी हुई अनेक मार्मिक उक्तियाँ देखने को मिलती हैं। सभी सन्तों ने वियोग श्रृंगार का अभिव्यंजन पूरी मार्मिकता के साथ किया है जहाँ मार्मिक अनुभूतियों का अभिव्यंजन है, वहाँ पर सन्त काव्य कलात्मक सौन्दर्य लेकर सामने आया है। कबीर की साखियों में विरहिणी आत्माकी व्याकुलता को भली-भाँति देखा जा सकता है।
उदाहरणार्थ-
बहु दिनन की जोवती बाट तुम्हारी राम।
जिस तरसे पिव मिलन को, मन नाही बिसराम ।।
आय न सकौं तुज्झ पै, सकौ न तुज्झ बुलाए।
जियरा यो ही लेहुगे, विरह तपाय तपाय।
ये वे पंक्तियाँ हैं जिनमें न तो कृत्रिमता है और न प्रदर्शन की प्रवृत्ति ही है। यहाँ तो भावुकता निर्झर सहज ही प्रवाहित होता हुआ दिखाई दे रहा है। ऐसी सरस और मार्मिक उक्तियों के कारण ही सन्त काव्य काव्यत्व से युक्त होकर सामने आया है।
माया का विरोध
माया तत्त्व का विरोध सभी सन्तों ने खुलकर किया है। समूचे भक्ति काल में माया की निन्दा की गयी है। सन्तों ने माया को महाठगिनी बतलाते हुए उससे सावधान रहने की बात कही है। कबीर की ये पंक्तियाँ देखिए जिनमें माया का विरोध स्पष्टतः मुखरित है-
माया महा ठगिनि हम जानी।
तिरगुन पाँस लिए कर डोलै वौले माधुरी वानी ।।
केशव के कमला होइ बैठी, सिव के भवन भवानी।
पंडा के मूरत होई बैठी, तीरथ हूँ में पानी।।
जोगी के जोगिन होई बैठी, राजा के घर रानी।
काहू के हीरा होई बैठी, काहू के कौड़ी कानी।
कहै कबीर सुनो भई साधो, यह सब अकथ कहानी ।।
लोक-संग्रह की भावना
सन्त काव्य में लोक-संग्रह की भावना आद्योपान्त दिखाई देती है इसका प्रमुख कारण यह है कि सभी सन्त साधक बहुश्रुत थे। इन्होंने समस्त सम्प्रदायों का सारतत्त्व लेकर अपनी मान्यताएँ निश्चित की थीं। इतना ही नहीं, सभी सन्त गृहस्थ धर्म और जीवन के पोषक थे। जीवन से पलायन करना ये उचित नहीं मानते थे। इनका विश्वास था कि संसार में रहकर सभी उचित मानवीय कर्म करते हुए भी मुक्ति को प्राप्त किया जा सकता है। इसी मान्यता के कारण सभी सन्तों के काव्य में सामाजिकता और लोक-संग्रह की भावना प्रचुरता से व्यक्त हुई है। गुरु नानक का कथा ‘किन्तु करौ अते वण्ड के छकों अर्थात् कर्म करो और बाँट कर खाओं’ सन्तों की लोक-संग्रह की भावना का ही द्योतक है। समाज सुधार का जो संकल्प इन कवियों ने लिया था, वह भी लोक-संग्रह की भावना के निकट जान पड़ता है।
लोक भाषा का प्रयोग
सन्तों ने साधारण धर्म को स्वीकार करते हुए लोक भाषा का प्रयोग किया है। इनकी भाषा में न तो कहीं आडम्बर है और न कहीं परिष्करण की प्रवृत्ति ही दिखाई देती है। घुमक्कड़ी वृत्ति के कारण इनकी भाषा में विभिन्न प्रान्तीय बोलियों के शब्द भले ही आ गये हों, किन्तु इनकी अभिव्यक्ति सीधी, सरल और स्पष्ट रही है। इसी कारण इनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा गया है। सन्तों की वाणियों में अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, पूर्वी हिन्दी, फारसी, अरबी, संस्कृत, राजस्थानी और पंजाबी आदि भाषाओं के शब्द मिलते हैं।
पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग
सभी सन्तों ने पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग किया है। इनके पारिभाषिक प्रयोगों में शून्य, अवधूत, निरंजन, आकाश, अनहद जैसे शब्दों को लिया जा सकता है। इस प्रकार के शब्दों के प्रयोग के मूल में विशेष ध्यान देने याग्य बात यह है कि ऐसे प्रयोगों से काव्यत्व कम हो गया है और कविता दुरुह हो गयी है। कल्पनात्मकता के अभाव के कारण पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग इनके कथनों को दुरुह बनाता गया है ऐसी स्थिति में यह तो कहा जा सकता है कि ऐसे शब्दों का प्रयोग नाथों और सिद्धों के प्रभाव से आया है। किन्तु काव्य में वह कहाँ तक वांछनीय है यह विचारणीय अवश्य है। फिर भी यह सत्य है कि यदि इनके पारिभाषिक शब्दों का मर्म कोई भी पाठक एक बार जान ले तो अर्थ की अवगति में बाधा नहीं रह जाती है।
उपर्युक्त विवेचनों के आधार पर कह सकते हैं कि सन्त काव्य एक विचित्र और आकर्षक काव्य रहा है। इसमें तत्कालीन अनेक काव्यधाराओं के सिद्धान्त देखने को मिलते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि सन्त काव्य ने भेद को अभेद में बदल दिया है और द्वैत को अद्वैत की भूमिका पर लाकर भेद भाव रहित एक मानवीय संस्कृति की स्थापना की।
ज्ञानश्रयी (संत) शाखा की संक्षिप्त विशेशताएँ
(१) राम रहीम की एकता का उपदेश देकर दो विरोधी धर्मों में ऐक्य स्थापित किया। गुरु को ईश्वर से भी बढ़कर स्थान दिया गया।
(२) एकेश्वरवाद की पुष्टि की गई है जो हिन्दुओं और मुसलमानों को एकता की ओर ले गया ।
(३) इस शाखा के कवियों ने सगुण भक्तों की पृष्ठभूमि तैयार की।
(४) ऊँच-नीच और जाति-पांति के बन्धन को तोड़कर ईश्वर भक्ति की समान अधिकार दिया गया ।
(५) इस शाखा के कवियों में साम्प्रदायिकता का खुलकर विरोध किया।
(६) इनकी भाषा स्वतन्त्र तथा आडम्बर विहीन हुई अतः प्रायः खिचड़ी भाषा सामने आई।
((७) इनका स्वर कटु अवश्य होता था किन्तु मानव जीवन के प्रति इनके हृदय में पीड़ा तथा सहानुभूति थी ।
(८) इनके पथ में हठयोग, सूफी मत का प्रेमभाव, मुसलमान धर्म का ऐकेश्वरवाद तथा शंकराचार्य के अद्वैतवाद को स्थान प्राप्त हुआ।
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