रीतिकाल के प्रमुख कवियों का परिचय दीजिए तथा उनकी विशेषता भाषा-शैली के आधार पर बताइये । अथवा बिहारी की समता का कोई अन्य कवि रीति काल में नहीं हुआ । इस काल के कवियों का परिचय दीजिये ।

रीतिकाल के प्रमुख कवियों का परिचय दीजिए तथा उनकी विशेषता भाषा-शैली के आधार पर बताइये । अथवा बिहारी की समता का कोई अन्य कवि रीति काल में नहीं हुआ । इस काल के कवियों का परिचय दीजिये ।

हिन्दी का रीतिकाल सन् 1650 से 1850 तक माना जाता है। केशवदास इसके प्रथम आचार्य कवि हैं। सर्वप्रथम उन्होंने ही रीति-ग्रन्थ का प्रणयन किया। रीतिकाल एक विशेष ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का परिणाम था। वह वैभव एवं पाण्डित्य का काव्य काल है।

रीतिकाल के प्रमुख कवियों का परिचय

रीतिकाल के भीतर श्रृगार रस की प्रधानता रही। कुछ कवियों ने आश्रयदाताओं की स्तुति की और कुछ कवियों ने रसराज हार की मन्दाकिनी में सम्पूर्ण स्नान किया जिसे सुनकर आबालवृद्ध आनन्दातिरेक में डूब गये । रीतिकाल के प्रमुख कवियों का परिचय इस प्रकार है

केशवदास

   ये ओरछे के महाराज रामसिंह के छोटे भाई श्री इन्द्रजीत सिंह के आश्रम में पले । इनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनका परिवार संस्कृत सम्पन्न था। तत्कालीन शासक इन्हें मित्र, मन्त्री और एक महान कवि के रूप में मानते थे, रीति काल के प्रवाह के प्रबल प्रवर्तक के रूप में केशवदास जी को ही स्वीकार किया जा सकता है। इसके पहले इस अलंकार की जो रचनाएँ की गई है वे अत्यन्त कम हैं, इनकी रचनाओं में रामचन्द्रिका कविप्रिया रसिकप्रिया और जहाँगीर कला चन्द्रिका मुख्य है। इनकी भाषा संस्कृत के शब्दों से ओत-प्रोत है, कहीं-कहीं बुन्देलखण्डी मिश्रित व्रज है, इन्होंने मुहावरों का भी प्रयोग किया है, पांडित्य दिखाने के लिए इन्होंने भाषा के प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया है, ये रसिक थे, इनका एक दोहा देखिये
                           केसव-केसव अस करी, जस अरिहूँ न कराहि । 
                           चन्द्रवदन, मृगलोचननी, बाबा कहि कहि जाहिं ।

देव

  ये इटावा के रहने वाले धनाड्य ब्राह्मण थे, इनका पूरा नाम देवदत्त था। इनका जन्म सं. १७३० शुक्ल जी के मतानुसार माना जाता है। इनका कुछ वृत्तान्त नहीं मिलता। इतना अवश्य अनुमानित होता है कि इन्हें कोई अच्छा उदार आश्रयदाता नहीं मिला, जिसके यहाँ रह कर सुख से काल-यापन किया हो। इनके ग्रंथ ५२ से ७२ तक है जिनमें भवानी विलास भाव विलास, अष्टयाम राग रत्नाकर और देव चरित्र मुख्य हैं। ये आचार्य और कवि दोनों रूपों में हमारे सामने आते हैं। इन्होंने अपनी कविता ब्रज भाषा में लिखी है।
                डार हम पलना बिछौना नव पल्लव के । 
                सुमन झंगोला सोहँ तन छवि भारी है ।।
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                  मदन महीमज को बालक बसन्त ताहि । 
                  प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी है ॥ 
 
                             *****    *****

बिहारी

 ये मथुरा के चौबे कहे जाते हैं। इनका जन्म ग्वालियर के पास बसुआ गोविन्दपुर गाँव में सं. १६०० के लगभग माना जाता है। एक दोहे के “अनुसार इनकी बाल्यावस्था बुन्देलखण्ड में बीती और तरुणावस्था में अपनी ससुराल मथुरा में जा बसे । ये जयपुर के मिर्जा राजा जयसिंह के दरबार में रहा करते थे। कहा जाता है कि थे जिस समय जयपुर पहुँचे उस समय महाराज अपनी नवोढ़ा रानी के प्रेम में इतने लीन थे कि महल से बाहर नहीं निकलते थे इस पर विहारी ने निम्नलिखित दोहा भेजा –
                           नहीं पराग नहीं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल 
                           अली कली ही सो विध्यो,   आगे कौन हवाल । 
 
कहते हैं इस पर महाराज बाहर निकले और ऐसे ही सरल दोहों को बनाने को इनसे कहा बिहारी दोहे बनाकर सुनाने लगे और उन्हें प्रति दोहे पर एक अशरफी मिलने लगी। इस प्रकार सात सौ दोहे उन्होंने बनाया जो ‘बिहारी सतसई’ के नाम से प्रसिद्ध है । श्रृंगार रस के ग्रन्थों में इसकी ख्याति बहुत है। इनकी रचना ब्रजभाषा में है। कहीं-कहीं फारसी और प्रांतीय भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग किया है। मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में विद्यमान हैं। इनकी कविता के सम्बन्ध में कहा गया है ।
 
                       सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर । 
                       देखन को छोटो लगे, घाव करै गम्भीर ॥

भूषन

  आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इनका जीवन काल सं. १६७० और मृत्यु १७७२ मानते हैं तथा इन्हें चिंतामणि और मतिराम का भाई बताया गया है। इनके वास्तविक नाम का पता नहीं है। भूषन इनकी उपाधि थी जिसे हृदयराम सोलंकी के पुत्र रुद्रराम सोलंकी ने इन्हें दी थी। ये कई राजाओं के आश्रय में पले थे । पन्ना के महाराजा छत्रसाल ने इनकी पालकी पर ही कंधालगाकर अपनी गुणग्राहकता का परिचय दिया और इन्हें स्वयं कहना पड़ा ‘शिव को बखानी कि बखानी छत्रसाल को’ अन्त में महाराज शिवाजी के दरबार में रहे और शिवाजी ने न केवल इनका सम्मान किया बल्कि इनके एक-एक छन्द पर इन्हें लाखों रूपये पुरस्कार के रूप में दिये ।
  कविवर भूषण के शिवराज भूषण, शिवा बवानी, छत्रसाल दशक भूषण उल्लास, दूषण उल्लास और भूषण हजार छ ग्रन्थ बताये जाते हैं। शिवराज भूषण इनका सबसे वृहद ग्रन्थ है, जिसमें रीतिकाल की परम्परा के अनुसार अलंकारों का उदाहरण दिया गया है। भूषण ऐसे जीव थे कि स्वयं युद्ध के मोर्चे पर जाते थे, वहां की परिस्थिति को अपनी आँखों से देखते थे और फिर छन्दों में पिरोते थे। अतः एव इसमें सत्य निरीक्षण और ओज का परिपाक होना स्वाभाविक था। इनकी कविता का बड़ा व्यापक प्रचार चारों ओर हुआ। शिवा बाबती की रचनाएँ इतनी ओजस्विनी है कि इन्हें पढ़ते-पढ़ते रोम-रोम से ओज टपक पड़ता है। यद्यपि इनकी भाषा अव्यवस्थित है, यत्र-तत्र व्याकरण की अशुद्धियाँ अनेक स्थानों पर हैं। इन्होंने शब्दों को बहुत तोड़ा-मरोड़ा है फिर भी उस युग में लिखी गई उनकी रचनाएँ इतनी ओजपूर्ण है जिनकी समता का कोई कवि नहीं दिखाई देता ।
                    इन्द्र जिमि जम्भ पर, माड़व सुअम्भ पर, 
                    रावन सदम्भ पर, रघुकुल राज हैं। 
                    तेज तम अंश पर, कान्ह जिमि कंस पर, 
                    त्यों  म्लेच्छ वंश पर, शेर शिवराज हैं ।
  इनके अतिरिक्त मतिराम, पद्माकर, घनानन्द, तोषनिधि, लाल विद अनेक कवि इस काल में हुए जिनकी कविताएँ बड़ी ही मार्मिक और ओजस्विनी हैं।

चिन्तामणि

ये तिकवाँपुर जिला कानपुर के रहने वाले थे। इनका आविर्भाव काल 17 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है। इनके द्वारा रचित नौ ग्रन्थध बताये जाते हैं- रसविलास, छन्द विचार, शृंगारमंजरी, कविकुल कल्पतरु, कृष्णचरित, काव्य-विवेक, काव्य प्रकाश, कवित्त विचार और रामायण। इनमें से प्रथम पाँच उपलब्ध हैं। इनके ग्रन्थों में ‘कविकुल कल्पतरु’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना है। इसमें आठ प्रकरण हैं, जिनमें काव्यभेद, काव्यलक्षण, काव्यस्वरुप, गुण-अलंकार, दोष-ध्वनि आदि पर विचार किया जाता है। रीतिग्रन्थकारों में सरल और सुबोध शैली में लिखने वाला चिन्तामणि जैसा और कोई भी दूसरा आचार्य नहीं है।
आचार्यत्व के साथ ही साथ उनका कवित्व भी उत्कृष्ट कोटि का है। वे रसवादी कवि थे। फिर भी इनमें देव और मतिराज जैसे कवियों के समान भावों की गहराई नहीं मिलती। इनकी भाषा परिष्कृत है जिसमें ब्रज का व्यवस्थित रूप देखा जा सकता है।

कुलपति मिश्र

इनके अपने साक्ष्य के अनुसार ये आगरा निवासी माथुर चौबे परशुराम के पुत्र थे। जयपुर के राजा रामसिंह के दरबारी थे। इनका कविता काल 1660-1700 के बीच ठहरता है। इनके द्वारा ‘रस रहस्य’, ‘संग्रामसार’, ‘दुर्गाभक्ति चन्द्रिका’, ‘मुक्ति तरंगिणी’ तथा ‘नखशिख’ ये पाँच ग्रन्थ रचे हुये कहे जाते हैं। इनका महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘रस रहस्य’ है। जो काव्य के सर्वांग का निरूपण करता है। इस ग्रन्थ पर सम्मट के काव्य प्रकाश, विश्वनाथ का ‘साहित्य दर्पण’ तथा केशव की ‘रसिक प्रिया’ का प्रभाव है। आठ वृतान्तों में विभक्त इस ग्रन्थ में काव्य-लक्षण, काव्य प्रयोजन, काव्यहेतु, काव्यभेद, शब्द शक्ति, ध्वनि, गुण, दोष, अलंकार आदि का विवेचन किया गया है। अन्य कवियों की भाँति ये मात्र लक्षण-उदाहरण ही नहीं देते, एक विषय पर पूर्ववर्ती आचार्यों के मतों को उद्धत करते हुये जब अपना मत देते हैं तो उसकी व्याख्या ब्रजभाषा गद्य के द्वारा करते चलते हैं।

भिखारीदास

रीतियुगीन सर्वांग निरूपक आचार्यों में भिखारीदास का नाम प्रमुख है। उत्तर प्रेदश के जिला प्रतापगढ़ स्थित टयोंगा नामक ग्राम के कायस्थ कुल में इनका जन्म हुआ था। इनका कविता काल 1725-1760 के बीच ठहरता है। इनके रचे हुये सात ग्रन्थ उपलब्ध हैं- रस सारांश, काव्य निर्णय, शृंगार निर्णय, छन्दोर्णव पिंगल, शब्दनामकोश, विष्णुपुराण भाषा और शतरंगशतिका। भिखारीदास का महत्व चार ग्रंथों के ही कारण है। ‘रस सारांश’ रस विवेचन सम्बन्धी ग्रंथ है, जिसमें रस के अंगों और नायक-नायिका भेद का निरूपण किया गया है। ‘काव्य-निर्णय’ में प्रयोजन, काव्य कारण, अलंकार, रस, भाव, ध्वनि, गुणीभूतव्यंग्य, गुण, तुक और दोष का विवेचन है। इनके आधार सम्मट, विश्वनाथ, अप्पयदीक्षित, जयदेव तथा भानुदत्त मिश्र हैं। कहीं-कहीं पर केशव और चिन्तामणि का भी प्रभाव है।

आचार्यत्व के साथ ही भिखारीदास का कवित्व भी प्रौढ़ है। शुक्ल जी ने इनके काव्य के कलापक्ष को संयत और भावपक्ष को रंजनकारी बताया है। इनकी रचनाओं में भाषा की व्यवस्था और अभिव्यंजना की क्षमता उत्तम कोटि की मिलती है। यद्यपि इनमें व्यंजना का बाहुल्य है, फिर भी क्लिष्टता नहीं आने पायी है। वास्तव में शब्द- चयन इनकी कविता में कुछ इस प्रकार से हुआ है कि प्रत्येक शब्द के अर्थ में निहित विशिष्ट व्यंग्य सूक्ष्म होता हुआ भी भाव को रसकोटि तक पहुँचाता है। निःसन्देह इनके काव्य में भाव और भाषा अथवा बिम्ब और उसकी अभिव्यक्ति का सहज एवं स्वाभाविक सामंजस्य हुआ है।)

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