केशवदास का साहित्यिक परिचय दीजिए ।

केशवदास का जीवन परिचय

केशवदास समय विभाग के अनुसार भक्तिकाल में आते हैं पर संस्कृत साहित्य से इतने प्रभावित रहे कि तत्कालीन हिन्दी काव्य-धारा से पृथक होकर वे चमत्कारी कवि हो गए तथा हिन्दी में रीतिग्रन्थों की परम्परा के आदि आचार्य माने गए । केशवदास जाति के धनाढ्य ब्राह्मण थे। वे कृष्णदत्त के पौत्र और काशीनाथ के पुत्र थे ।

केशवदास का जन्म

केशवदास का जन्म संवत् १६१२ में और मृत्यु १६७४ के निकट हुई। उनके पितामह पं. कृष्णदत्त मिश्र ओरछा-नरेश रुद्रप्रताप के यहाँ पुराणवृत्ति पर नियुक्त थे और इनकी मृत्यु के बाद उनके (केशवदास) पिता पं. काशीनाथ और बड़े भाई पं. बलभद्र मिश्र भी क्रमशः इसी ओरछा नरेश के दरबार में रहे।

इस समय मधुकरशाह गद्दी पर बैठे थे। उनके बाद उनके पुत्र रामशाह गद्दी पर बैठे पर उन्होंने राज्य का समस्त भार अपने अनुज इन्द्रजीत सिंह के ऊपर छोड़ दिया। इन्द्रजीत सिंह ने आचार्य केशवदास को अपना गुरु माना और भेंट में उन्हें अनेक गाँव दिये । अतएव यह स्पष्ट है कि केशवदास को महाराज इन्द्रजीत सिंह का आश्रय प्राप्त था। इस प्रकार आर्थिक चिन्ता से मुक्त होने के कारण उन्हें अध्ययन करने का काफी मौका मिला । संस्कृत के ऊँचे पण्डित होने के कारण उन्होंने संस्कृत  साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया । वस्तुतः पाण्डित्य उन्हें अपनी वंश परम्परा से प्राप्त हुआ था। वे एक रसिक व्यक्ति भी थे। रामचन्द्रिका, रसिकप्रिया आदि काव्य ग्रन्थों के अध्ययन से यह पता चलता है कि वे विष्णु के किसी रूप के भी सच्चे भक्त न थे बल्कि केशवदास भक्त न होकर एकमात्र रसिक थे ।

केशवदास के रचित सात पुस्तकें प्राप्त हैं

  • रामचन्द्रिका,
  • कविप्रिया,
  • रसिकप्रिया,
  • विज्ञानगीता छन्द,
  • रतन बावनी,
  • वीरसिंह देवचरित्र,
  • जहाँगीर जस चन्द्रिका |

लाला भगवान ‘दीन’ ने उनकी तीन और पुस्तकों की चर्चा की है लेकिन यह भी स्वीकार किया है कि उनमें से दो अप्राप्य हैं और वे ये हैं-

(क) छन्दशास्त्र का कोई एक ग्रन्थ

(ख) राम अलंकृत मंजरी और

(ग) नखशिख।

इनमें दीनजी ने नखशिख’ नामक पुस्तक को देखा था जो कोई महत्त्वपूर्ण पुस्तक नहीं है। ऊपर की सात कृत्तियों में प्रथम चार पुस्तकेही अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं |

रीतिकाल के प्रवर्तक के रूप में केशवदास

रीति ग्रन्थों का प्रवर्तक किसको माना जाय ? इस संबंध विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है । कुछ विद्वान केशव को रीतिकाल का प्रवर्तक मानते हैं तथा कुछ ने चिन्तामणि त्रिपाठी को रीतिग्रन्थों का प्रवर्तक माना है। डॉ. श्यामसुन्दर दास ने केशवदास की रीति ग्रन्थों की परम्परा का आचार्य बताते हुए लिखा है- “यद्यपि समय विभाग के अनुसार केशवदास भक्तिकाल में पड़ते हैं और यद्यपि गोस्वामी तुलसीदास आदि के समकालीन होने या ‘रामचन्द्रिका’ आदि ग्रंथ लिखने के कारण ये कोरे रीतिकाल के कवि नहीं कहे जा सकते, परन्तु उन पर पिछले काल के संस्कृत साहित्य का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि अपने काल की हिन्दी काव्य धारा से पृथक होकर वे चमत्कारी कवि हो गये और हिन्दी में रीति ग्रन्थों के परम्परा के आदि आचार्य कहलाये । केशव के पूर्व के कुछ रीतिग्रन्थों का उल्लेख करते हुए आप आगे लिखते हैं, यद्यपि केशव के पहले भी कृपाराम, गोप, मोहनलाल आदि ने रीति साहित्य के निर्माण का प्रारम्भ किया था, पर उनकी रचनाएँ केशवदास के सर्वतोमुखी प्रयास के सामने एकांगी हो गई हैं। परंतु पं. रामचन्द्र शुक्ल रीति ग्रन्थों की सुष्ट परम्परा के प्रवर्तक के रूप में चिंतामणि त्रिपाठी को मानते है ।

शुक्लजी का इस संबंध में कहना है कि “हिन्दी रीति ग्रंथों की अविरल और अखण्डित परम्परा का प्रवाह केशव की ‘कविप्रिया’ के 50 वर्ष पीछे चला और वह भी एक भिन्न आदर्श को लेकर-केशव के आदर्श को नहीं ।’ आगे शुक्लजी लिखते हैं कि “हिन्दी रीति ग्रन्थों की अखण्ड परम्परा चिंतामणि त्रिपाठी से बली, अतः रीतिकाल का प्रारम्भ उन्हीं से मानना चाहिए।” हिन्दी लक्षणकारों ने केशव के आदर्श को अपनाकर भिन्न आदर्श को न अपनाया इस बात को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं- “केशव के दिखाये हुए पुराने आचार्यों (भामह, उद्भट आदि) के मार्ग पर चलकर परवर्ती आचार्यों के चरित्कृत मार्ग पर चली, जिसमें अलंकार का भेद हो गया था ।” हिन्दी रीति ग्रन्थों की अखण्ड परम्परा चिन्तामणि त्रिपाठी से चली, अतः रीतिकाल का प्रारम्भ उन्हीं से मानना चाहिए। उन्होंने संवत् 1600 के कुछ आगे-पीछे ‘काव्य विवेक’ कविकुल कल्पतरु’ और ‘काव्य प्रकाश’ ये तीन ग्रंथ लिखकर काव्य के सब अंगों का पूरा निरूपण किया । पिंगल या छंद शास्त्र पर भी एक पुस्तक लिखीं । इस प्रकार शुक्लजी ने तीन तर्क प्रस्तुत करके केशव को रीतिकाल का प्रवर्तक मानने में आपत्ति प्रकट की है। ये तीन तर्क क्रमशः इस प्रकार हैं –

(1) पहला कारण तो यह है कि केशव की ‘रसिक प्रिया’ के 50 वर्ष बाद तक हिन्दी साहित्य के कोई लक्षण-ग्रंथ नहीं लिखा गया। यदि उनके बाद रीति ग्रंथों की परम्परा निरंतर चलती रहती तो इसका उनसे प्रादुर्भाव मानकर उन्हें प्रवर्तक कहा जा सकता था ।

(2) चिन्तामणि के बाद भी रीति ग्रंथों की जो परम्परा चली, यह केशव के दिखाए मार्ग पर न चलकर चिन्तामणि के मार्ग पर चली। अतः केशव इस परम्परा के

प्रवर्तक नहीं माने जा सकते ।

(3) तीसरे चिन्तामणि के बाद उन्हीं के मार्ग पर रीति ग्रन्थों की परम्परा चल पड़ी । इसलिए केशव को चिंतामणि के मुकाबले में रीति ग्रंथ परम्परा का प्रवर्तक नहीं माना जा सकता । चिन्तामणि ने जिन परवर्ती संस्कृत आचार्यों का आधार ग्रहण किया, उसी के अनुसरण रीतिकाल के परवर्ती लक्षणकारों ने भी किया । इस प्रकार केशव को रीतिग्रंथों का प्रवर्तक नहीं माना जा सकता ।

रीतिकालीन साहित्य पर केशव का प्रभाव

इसमें कोई सन्देह नहीं कि केशव ने जिस रीति-शैली की काव्य रचना का प्रवर्तन किया था, उसी की परम्परा का अनुसरण कर नीति युग का समस्त काल प्रभावित हुआ । अब यह बात अलग है कि किसी ने अलंकारों को प्रमुखता दी तो किसी ने रस को और किसी ने ध्वनि को तो किसी ने तीनों को । इस सम्बन्ध में डॉ. पीताम्बर दत्त बड़ध्वाल का मत ध्वातव्य है । डॉ. बड़ध्वाल ने लिखा है कि इस दिशा में सबसे पहला विस्तृत और गम्भीर ग्रन्थ केशव का था और यद्यपि उनके मत को हिन्दी में साहित्य शास्त्र पर लिखने वालों ने आधार रूप से ग्रहण नहीं किया फिर भी उन्होंने लोगों की प्रवृत्ति की एक विशेष दिशा की ओर पूर्णतया मोड़ दिया । इसलिए वे रीति प्रवाह के प्रवर्तक और प्रधान आचार्य माने जाते हैं ।

केशव संस्कृत साहित्य ही नहीं, वरन् साहित्य शास्त्र के भी मर्मज्ञ थे । उन्होंने अपने सभी ग्रन्थों की रचना के लिए संस्कृत साहित्य शास्त्र का गम्भीरता से अवगाहन किया था और हिन्दी में उनके अंग-उपांगों की स्थापना की थी, जो आगे के परवर्ती अचार्यों और कवियों के मार्गदर्शक बने ।

केशव में जिस आचार्य परम्परा का सूत्रपात हुआ, उसमें प्रमुख हैं-भूषण, जलवन्तसिंह, भिखारी दास, मतिराम, कुलपति मिश्र, देव तथा पद्माकर । जसवन्तसिंह ने केशव से प्रभाव ग्रहण कर अलंकारों में एक लक्षण ग्रंथ की रचना की, जिसमें 108 अलंकारों का विवेचन है । आचार्य भिखारीदास द्वारा निरूपित अलंकारों पर भी आचार्य केशव का पर्याप्त प्रभाव दिखाई पड़ता है । मतिराम ने रस और अलंकार निरूपण दोनों क्षेत्रों में केशव का प्रभाव ग्रहण किया था । इसके रस-विवेचन के ग्रंथ ‘रसराज’ पर ‘रसिक प्रिया’ का प्रभाव स्पष्ट है । अलंकार ग्रन्थ ‘ललित ललाम’ में तो अलंकारों के लक्षणों, उदाहरणों तथा वर्गीकरण आदि तक पर केशव का स्पष्ट प्रभाव है । कुलपति और ‘पद्याकर’ भी केशव से निर्विवाद रूप से प्रभावित थे । केशव के समान ही देव आचार्य और कवि दोनों थे । देव पर केशव के प्रभाव का विवेचन करते हुए डॉ. विजयपाल सिंह ने लिखा है कि “देव का आचार्य पक्ष ही नहीं, अपितु कवित्व पक्ष भी केशवदास से प्रभावित हुआ है” इतना ही नहीं देव और भिखारीदास जैसे महाकवियों ने केशव को अपनी श्रद्धांजली’ अर्पित की है । किन्तु किसी ने चिंतामणि को आचार्य कवि के रूप में स्मरण नहीं किया है ।

अतः उपर्युक्त तर्क के आधार पर यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि केशव ने काव्यशास्त्र के लक्षणों और नियमों की परम्परा का पालन करने वाली ‘रीति शैली’ की काव्य-रचना की प्रवृत्ति का प्रवर्तन भी किया और प्रभावित भी किया । आचार्यत्व ही दृष्टि से रीतिकाल का कोई भी आचार्य कवि केशव की तुलना में नहीं ठहर सकता । वे रीतिकाल के प्रथम एवं सर्वोत्तम आचार्य थे । सर्वोतम से तात्पर्य उनकी भौतिक सूझबूझ से है, उनका अधिक अनुकरण होने से नहीं ।

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