अपभ्रंश काव्य भारतीय साहित्य के विकास में एक महत्वपूर्ण चरण रहा है। यह संस्कृत और प्राकृत से विकसित होकर हिंदी व अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं की आधारशिला बना। अपभ्रंश साहित्य मुख्य रूप से जैन, बौद्ध, और नाथ संप्रदायों से जुड़ा हुआ है, जिसमें धार्मिक, नैतिक, लौकिक और रहस्यवादी प्रवृत्तियाँ देखने को मिलती हैं। इस साहित्य में पुराण, चरित काव्य, कथा काव्य और मुक्तक काव्य की समृद्ध परंपरा रही है, जिसने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा प्रदान की
अपभ्रंश काव्य साहित्य के अन्तर्गत निम्नलिखित साहित्य का समावेश किया जाता है:
जैन साहित्य
जैन साहित्य में धार्मिक एवं ऐच्छिक रूप दोनों शामिल हैं। इसमें प्रबंध काव्य एवं मुक्तक काव्य की रचना हुई। जैन साहित्य को दो भागों में विभाजित किया गया है:
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रहस्यात्मक साहित्य – इसमें रहस्यवादी और दार्शनिक तत्वों को शामिल किया जाता है।
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उपदेशात्मक साहित्य – इसमें नैतिकता और धार्मिक उपदेशों पर आधारित काव्य शामिल हैं।
जैनत्तर साहित्य
इसमें निम्नलिखित तीन प्रमुख शाखाएँ सम्मिलित की जाती हैं:
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बौद्ध साहित्य – जिसमें बौद्ध धर्म के सिद्धांत और शास्त्र सम्मिलित हैं।
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नाथ साहित्य – नाथ संप्रदाय द्वारा रचित साहित्य, जिसमें उनके रहस्यमय और दार्शनिक ग्रंथ शामिल हैं।
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बौद्धेत्तर साहित्य – धार्मिक और लौकिक साहित्य दोनों का समावेश।
अपभ्रंश साहित्य का विभाजन
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पुराण साहित्य – उदाहरण: पउम चरिउ (जैनों द्वारा रचित पुराण)।
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चरित काव्य – उदाहरण: करकण्डचरिउ (जैनों द्वारा रचित ऐतिहासिक काव्य)।
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कथा काव्य – उदाहरण: भविसयत्त कहा (जैनों द्वारा रचित कथा काव्य)।
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जैन धर्म संबंधी ग्रंथ – उदाहरण: पाहुण्ड दोहा (जैन मुनियों द्वारा रचित रहस्यवादी एवं उपदेशात्मक काव्य)।
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बौद्ध धर्म संबंधी ग्रंथ – उदाहरण: सिद्धों के पद एवं दोहे।
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लौकिक काव्य – उदाहरण: हेमचंद्र के दोहे, जिनमें लोक रस की प्रधानता होती है।
जैन अपभ्रंश साहित्य के प्रमुख प्रकार
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धार्मिक प्रवृत्तियाँ – यह साहित्य धार्मिकता से प्रेरित होता है और इसे दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया गया है:
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प्रबंध वर्ग: इसमें पौराणिक, चरितात्मक और कथात्मक ग्रंथ सम्मिलित होते हैं।
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मुक्तक वर्ग: इसमें उपदेशात्मक और रहस्यात्मक ग्रंथ सम्मिलित होते हैं।
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लौकिक प्रवृत्तियाँ – यह साहित्य श्रृंगार, नीति एवं शौर्य रस की प्रधानता को व्यक्त करता है।
प्रबंध धारा
प्रबंध काव्यबद्ध साहित्य में छंदबद्ध कविताएँ शामिल होती हैं, जिन्हें पद्धरी या कड़वक कहा जाता है। इसमें 16 मात्राओं का प्रयोग किया जाता है। इस शैली के प्रमुख कवि चतुर्मुख थे, जिनका उल्लेख हरिषेण ने अपनी धम्मपरीक्वा में किया है।
त्रिविध प्रबंध धारा
प्रबंध काव्य के तीन प्रमुख विभाजन हैं:
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पुराणात्मक प्रबंध – इसमें राम कथा पर आधारित ग्रंथ शामिल होते हैं, जैसे पउम चरिउ।
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चरित काव्य – जिसमें ऐतिहासिक और प्रेम कथाएँ होती हैं, जैसे करकण्डचरिउ।
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कथा काव्य – कथा-आधारित ग्रंथ जैसे भविसयत्त कहा।
प्रमुख अपभ्रंश कवि और उनके ग्रंथ
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स्वयम्भू – इन्हें अपभ्रंश के सर्वप्रथम महाकवि माना जाता है। इनकी चार प्रमुख रचनाएँ हैं:
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पउमचरिउ
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रिट्टशेमि चरिउ
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पश्चिमी चरिउ
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स्वयम्भू-छंद
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पुष्पदंत – ये दसवीं शताब्दी के कवि थे। इनकी तीन प्रमुख रचनाएँ हैं:
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तिसडि महापुरिसगुणालंकारु
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णयकुमार चरिउ
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जसहर चरिउ
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मुक्त धारा
मुक्तक साहित्य को दो प्रमुख भागों में बाँटा जाता है:
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रहस्यात्मक मुक्तक – जिसमें रहस्यवादी एवं आध्यात्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है। प्रमुख रचनाकार:
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जोइंदु (परमात्म प्रकाश, योगसार)
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रामसिंह मुनि (पाहुड़ दोहा)
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उपदेशात्मक मुक्तक – नैतिकता और व्यवहारिकता पर बल देने वाला साहित्य। प्रमुख रचनाकार:
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देवसेन
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जिनदत्त सूरि
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लौकिक रचना
लौकिक रस प्रधान रचनाएँ जैन साहित्य में भी मिलती हैं। हेमचंद्र कृत व्याकरण में संकलित दोहे इस श्रेणी में आते हैं। इनमें श्रृंगार रस, वीर रस एवं नीति संबंधी दोहे मिलते हैं। यह साहित्य रीतिकालीन हिंदी कविता की परंपरा को समझने में सहायक होता है।
बौद्ध सिद्ध और उनका अपभ्रंश साहित्य
बौद्ध धर्म के दो प्रमुख संप्रदाय हीनयान और महायान थे। बाद में तांत्रिक बौद्ध धर्म वज्रयान के रूप में विकसित हुआ। 800 से 1200 ई. तक बिहार और असम में यह प्रभावी था।
चौरासी सिद्धों का योगदान
बौद्ध धर्म के चौरासी सिद्धों ने अपभ्रंश भाषा में महत्वपूर्ण साहित्य रचा। उनके पद और दोहे रहस्यवादी एवं आध्यात्मिक विचारधारा से प्रभावित थे। इन सिद्धों का साहित्य अपभ्रंश के माध्यम से हिंदी भाषा के विकास में सहायक हुआ।
अपभ्रंश साहित्य: भारतीय भाषाओं के विकास में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका
अपभ्रंश साहित्य भारतीय भाषाओं के विकास का एक महत्वपूर्ण चरण था, जिसने हिंदी सहित कई आधुनिक भारतीय भाषाओं के स्वरूप को आकार देने में गहरा प्रभाव डाला। यह साहित्य न केवल भाषाई परिवर्तन का प्रतीक था, बल्कि धार्मिक, लौकिक, नैतिक और रहस्यवादी प्रवृत्तियों से भी समृद्ध था।
अपभ्रंश साहित्य का महत्व
अपभ्रंश साहित्य का उद्भव संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के बीच के संक्रमण काल में हुआ। यह साहित्यिक धारा विशेष रूप से जैन और बौद्ध धर्म से प्रभावित थी, जिसमें धार्मिक, नैतिक और दार्शनिक विचारों को प्रमुखता दी गई। अपभ्रंश भाषा में लिखे गए कई ग्रंथों ने हिंदी भाषा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे हिंदी साहित्य की प्रारंभिक धारा प्रभावित हुई।
हिंदी साहित्य पर अपभ्रंश साहित्य का प्रभाव
अपभ्रंश साहित्य की शैली, विषयवस्तु और शब्दावली का प्रभाव हिंदी साहित्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। कई प्रारंभिक हिंदी कवियों और लेखकों ने अपभ्रंश साहित्य की परंपरा को अपनाते हुए अपनी कृतियों की रचना की। विशेष रूप से संत साहित्य, भक्ति काव्य और लोक साहित्य में अपभ्रंश भाषा के अवशेष पाए जाते हैं।
निष्कर्ष
अपभ्रंश साहित्य भारतीय भाषाओं के विकास का एक महत्वपूर्ण चरण था, जिसने हिंदी सहित कई अन्य भाषाओं को प्रभावित किया। यह न केवल भाषा के स्वरूप को गढ़ने में सहायक था, बल्कि उस समय की सांस्कृतिक और सामाजिक प्रवृत्तियों को भी दर्शाता है। हिंदी साहित्य के विकास में इसकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है, और आज भी इसके प्रभाव को साहित्यिक कृतियों में देखा जा सकता है।