Home रीतिकाल रीतिकाल और उसकी काव्य प्रवृत्तियाँ: विशेषताएँ, शैली और प्रभाव

रीतिकाल और उसकी काव्य प्रवृत्तियाँ: विशेषताएँ, शैली और प्रभाव

by Sushant Sunyani

‘रीति’ शब्द का अर्थ निश्चित प्रणाली, ढंग और नियम होता है। इसी आधार पर रीतिकाल वह युग है, जिसमें हिन्दी काव्य का विकास एक सुव्यवस्थित शैली और प्रणाली के तहत हुआ। भक्तिकाल के बाद आया यह युग (संवत् 1700-1900) विशेष रूप से श्रृंगार रस और कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए जाना जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस काल में रीति-ग्रंथों की व्यापकता को देखते हुए इसे ‘रीतिकाल’ नाम दिया, जबकि डॉ. रामकुमार वर्मा ने इसे ‘कलाकाल’, और आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ‘श्रृंगारकाल’ कहा।

इस काल को तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया जाता है, जिसमें श्रृंगार रस, वीर रस और नीति परक काव्य का प्रभाव देखने को मिलता है। भूषण जैसे वीर रस के कवि, गिरिधर और वृंद जैसे नीति परक दोहे व कुण्डलियाँ लिखने वाले कवि, तथा श्रृंगार प्रधान काव्य रचनाओं ने इस काल को समृद्ध बनाया। साथ ही, प्रबंध काव्य और चरित्र काव्य की परंपरा भी इस युग में विकसित हुई।

रीतिकाल को हिन्दी साहित्य का गौरवशाली युग माना जाता है, क्योंकि इसमें काव्य की कलात्मकता, भाषा की माधुर्यता और अलंकारों की समृद्धता अपने चरम पर रही। आगे इस लेख में हम रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियों, इसके साहित्यिक योगदान और प्रभावों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

रीतिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

रीतिकाल का साहित्य मध्यकालीन दरबारी संस्कृति का प्रतीक है। राज्याश्रय में पली इस श्रृंगारी कविता में रीति और अलंकार का प्राधान्य हो गया है। जो कवि दरबारी संस्कृति को त्याग सके, उनकी कविता में ‘प्रेम की पुकार’ का स्वरूप रीति से मुक्त है। संक्षेप में, रीतिकालीन साहित्य की मुख्य प्रवृत्तियाँ ये हैं-

(१) श्रृंगारिकता

श्रृंगार-वर्णन रीतिकाव्य का प्रमुख प्रतिपाद्य है। यद्यपि रीतिकालीन कवियों का प्रमुख वर्ण्य-विषय नायिकाभेद, नख-शिख, श्रृंगार रस, अलंकार आदि का लक्षण प्रस्तुत करना है, फिर भी उनके माध्यम से श्रृंगार का प्रतिपादन किया है। “साँचा चाहे जैसा भी रहा हो इसमें ढली श्रृंगारिकता ही ।” श्रृंगार रस को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-संयोग और वियोग । दर्शन, श्रवण, स्पर्श और संलाप संयोग श्रृंगार में पाये जाते हैं। उक्त भावों को हाव- अनुभाव के रूप में व्यक्त किया जा सकता है। बिहारी ने लिखा है-

बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय ।

सौंह करै भौंहन हँसे दैन कहे नटि जाय ।।

श्रृंगार का अन्य पक्ष है वियोग । इसमें पूर्वाराग, मान, प्रवास और करुण आते हैं। प्रायः सभी रीति- कवियों ने वियोगिनी की दसों दशाओं का मनोरम वर्णन किया है। घनानन्द ने लिखा है-

यह कैसो संयोग न जानि परै,

जु वियोग न क्यौहूँ बिछोहत है ।

झूठि बतियान के पत्यानते है के,

अब न घिरत ‘घन आनन्द’ निदान कौं ।

अधर लगे हैं आनि, करकै पयान प्रान,

चाहत चलन ये संदेसौ ले सुजान कौं ।

(२) नारी-सौन्दर्य-चित्रण

रीतिकाल में नारी के रूप-चित्रण को बहुत महत्व दिया गया है। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, “श्रृंगारकालीन काव्य में ‘नारी’ कोई व्यक्ति या समाज के संघटन की इकाई नहीं है, बल्कि सब प्रकार की विशेषताओं के बन्धन से यथासम्भव मुक्त सविलास का एक उपकरण मात्र है ।” देव ने कहा है-

कौन गनै पुर वन नगर कामिनि एकै रीति ।

देखत हरै विवेक को चित्त हरै करि प्रीति ।।

(३) आलंकारिकता

इस काल की कविता में अलंकरण का बाहुल्य है। इसी विशेषता को लक्ष्य करके मिश्रबन्धुओं ने इसका नाम ‘अलंकृत काल’ रखा था । कविता का प्रमुख विषय श्रृंगार होने के कारण रूप-आकार की सजावट भी अनिवार्य थी ।

इस काल में वीरकाव्य के रचयिता भूषण की कविता में भी अलंकारों की प्रधानता स्पष्ट है। उन्होंने अतिशयोक्ति के माध्यम से छत्रपति शिवाजी और वीर छत्रसाल की वीरता का वर्णन किया है। रीतिवद्ध कवियों ने तो कहीं- कहीं अलंकारों को जबरन दूँस दिया है।

( ४) भक्ति और नीति

रीति काव्य में ‘भक्ति और नीति सम्बन्धी सूक्तियाँ भी पर्याप्त हैं, पर इनके आधार पर हम इन कवियों को न तो भक्त कह सकते हैं और न उन्हें राजनीति-निष्णात । इस बात का भिखारीदास की नीचे की पंक्तियों में स्पष्ट संकते हैं-

रीझि हैं सुकवि जो तो जानो कविताई

न तो राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो है ।

(५) लक्षण ग्रंथों की प्रचुरता

इस काल के कवियों ने रीति या शास्त्र की भूमिका पर अपनी कविता की रचना की है। केशवदास ने सर्वप्रथम शास्त्रीय पद्धति पर रस और अलंकारों का निरूपण ‘रसिकप्रिया’ और ‘कविप्रिया’ में किया, किन्तु चिन्तामणि त्रिपाठी से लक्षण ग्रंथों की अखण्ड परम्परा चलती रही। इन ग्रंथों में रीतिबद्ध कवियों ने काई मौलिक उ‌द्भावना नहीं की है, वरन् संस्कृत के काव्यशास्त्र के विवेचन को भाषा में पद्यवद्ध कर दिया है, केवल लक्ष्य-ग्रन्थ लिखने वाले कवियों ने रीति का कसाव कुछ ढीला कर दिया है। किन्तु फिर भी रीति की परिपाटी का ज्ञान हुए बिना इनकी कविता को अच्छी तरह नहीं समझा जा सकता है।

(६) वीररस की कवित

श्रृंगार के साथ-साथ इस काल में कुछ वीररस की भी उत्कृष्ट रचनाएँ हुईं, जो अपना विशेष महत्व रखती हैं। भारतीय जनता ने मुगलों के अत्याचारों से पीड़ित होकर इनके विरुद्ध सिर उठाया । कविवर भूषण ने अपने उत्कृष्ट वीर-काव्य का आलम्बन छत्रपति शिवाजी को बनाया । यथा-

तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर ।

त्यों म्लेच्छ वंस पर सेर सिवराज हैं ।।

भूषण, लाल, सूदन, प‌द्माकर आदि कवियों ने वीररस की कविता का सृजन किया। केशवदास, मतिराम आदि कवियों ने भी वीररस की शास्त्र सम्मत कविता प्रस्तुत की है।

(७) पराश्रयिता की भावना

रीतिकवि एवं आचार्य का व्यक्तित्व आजीविका और भावाभिव्यक्ति के लिए आश्रयदाता की कृपादृष्टि पर अवलम्बित है। उनके द्वारा किये गये नायिका-भेद तथा उसके विस्तार-प्रसार में उनकी निजी स्फुरण की न्यूनता है।

(८) शैली

रीतिकाल की शैली कविता के विषय के अनुरूप ही थी। इस काल में मुक्तक शैली प्रधान थी । प्रबन्ध शैली में अनेक काव्य लिखे गये, किन्तु वे विशिष्ट न बन सके । रीतिबद्ध कवियों की चतुराई मुक्तक शैली में ही प्रकट हुई है। इन कवियों में दोहा, कवित्त, और सवैया का प्राधान्य रहा। प्रायः रीतिकवि ने अपने काव्य में मध्यकालीन साहित्य की वर्णन-शैली का प्रयोग किया है।

(९) भाषा

भाषा की दृष्टि से इस काल में ब्रजभाषा ही प्रमुख साहित्यिक भाषा रही। रीतिबद्ध कवियों में ब्रजभाषा का सुन्दर रूप देव में है। बिहारी आदि अन्य रीतिबद्ध कवियों की ब्रजभाषा पर प्रादेशिक भाषाओं की छाप है। बिहारी की भाषा में राजस्थानी, बुन्देलखण्डी, अवधी इत्यादि के प्रयोग मिलते हैं। पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है, “घनानंद और ठाकुर ने ब्रजभाषा को बहुत शक्ति दी है। ब्रजभाषा का इन कवियों ने परिमार्जन करके तत्सम शब्दों का प्रयोग करके उसे सुसंस्कृत एवं शक्तिशाली बनाया और दो सौ वर्षों तक वह हिंदी साहित्य- क्षेत्र में एकछत्र राज्य करती रही ।”

निष्कर्षतः

यह कहा जा सकता है कि रीतिकालीन साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ भौतिकवादी दृष्टिकोण से युक्त हैं, जिनमें श्रृंगारिकता, आत्मप्रदर्शन, विलासिता तथा जिजीविषा की भावना देखी जा सकती है ।

Read More : रीति काल की उत्पत्ति और विकास पर अपने विचार व्यक्त कीजिए और यह स्पष्ट कीजिए कि इसका ‘रीति काल’ नाम क्यों रखा गया ?

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