भक्तिकाल के कृष्णभक्त शाखा कवियों ने भक्ति की सरिता बताई है ।
कृष्ण भक्ति शाखा के कवियों में अष्टछाप कवियों को महत्वपूर्ण स्थान दिया जा सकता है। इसमें सूरदास, नन्ददास और कुम्भनदास मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त इस शाखा में मीरा और रसखान का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है। इन कवियों के सम्बन्ध में संक्षिप्त रूप से जो विवरण दिया जा रहा है उससे पता चल जायगा कि उनकी काव्य मंदाकिनी का अजस्र स्रोत कहाँ तक प्रभावित हुआ है और रसज्ञों ने उसमें अवगाहन करके कहाँ तक लाभ उठाया है।
भक्तिकाल के कृष्णभक्त शाखा के कवि सूरदास का जीवन परिचय उनके कृतित्व –
सूरदास जी अष्टछाप के कवियों में शिरोमणि कहे जाते हैं । विद्यापति जयदेव की अमृतवाणी ने जिस पियूष धारा का वर्णन किया है उसी को अन्धे कवि सूरदास ने अपनी सुरीली वाणी की तान से मुखरित किया है । सूरदास जी का जन्म सं. १५४० और मृत्यु सं. १६२० है । सूरदास के दीक्षा गुरु श्री बल्लभाचार्य जी थे । उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करके ही भागवतपुराण के आधार पर ‘सूरदास’ की रचना की जिसमें एक लाख से अधिक पद बताये जाते हैं । इसके अतिरिक्त साहित्य लहरी, सूर सारावली, नल-दमयन्ती और ‘ब्याहलो’ मुख्य रचनायें हैं। ‘व्याहलो’ नामक पुस्तक को कुछ लोग सूरदास जी की रचना नहीं मानते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि सूरदास के काव्य में माधुर्य, सरसता और लालित्य प्रधान रूप में मिलता है । साधारणतः सूरदास जी के पदों में विनय, बाललीला, रूप माधुरी, मुरली माधुरी और भ्रमरगीत मुख्य रूप से हैं । इनकी प्रत्येक कवितायें एक से बढ़कर एक हैं । भ्रमरगीत में विरह वर्णन अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँच गया है । सखाभाव में कृष्ण रूपी शाखा के लिए जो भी सूरदास जी ने कहा है, मर्मस्पर्शी है ।
सूरदास जी के पद इतने हृदयग्राही है कि पढ़कर हृदय आनन्द से ओतप्रोत हो जाता है । सूरदास जी की ही लेखन शैली में उसके ही काव्य में कुछ लेख देखिये –
मैया कबहिं बढ़ेगी चोटी ।
किती बार मोहिं दूध पियत भई, पर अजहूँ है छोटी ॥
मुरली तऊ गोपालहिं भावति ।
सुन री सखी ! यद्यपि नन्दनन्दन नाना भाँति नचावत ॥
सूरदास जी के काव्य में भक्ति के अतिरिक्त शान्त, हास्य और अद्भुत रस का पुट भी पाया जाता है । गोपियाँ और उद्धव का सम्बाद बहुत ही सुन्दर बन पड़ा है । ये कहती हैं कि हे ऊपो ! मन दस बीस नहीं है । एक मन था वह श्रीकृष्ण के साथ चिला गया अब आपके योग की आराधना हम किसके मन से करें ? कितना सुन्दर विचार है–
ऊधो मन नाहीं दस-बीस ।
एक हुतो सो गयो श्याम संग को आराधै ईस॥
उर में मन माखन चोर गडे ।
अब कैसेहु निकसेत नहीं ऊधौ, तिरछै है जु अढे ॥
भक्तिकाल के कृष्णभक्त शाखा के कवि नन्ददास का जीवन परिचय उनके कृतित्व –
भक्तिकाल के कृष्णभक्त शाखा के कवि नन्ददास का जन्म सं. १५२५ विक्रमीय है । इनकी रचनाओं के सम्बन्ध में और ‘कवि गढ़िया नन्ददास जहिया’ बिलकुल सत्य ही है । इनके रचे हुए ग्रंथों में रस पंचाध्यायी और भ्रमर गीत मनन करने योग्य हैं। रस पंचाध्यायी में भागवत की कथा का रूपांतर सरस रूप में किया गया है। इन्होंने रोला, दोहा, चौपाई आदि विविध छन्दों का उपयोग किया है । इसकी रचनाओं में भाषा की सजावट और शब्दों के माधुर्य का अच्छा आभास मिलता है । भ्रमरगीत में उद्धव-गोधी संवाद द्वारा निर्गुण पर गुण की विजय दिखाई गई है ।
सोचत ही मन में रह्यो कब पाऊँ इक ठाँउ ।
कहि संदेश नंदलाल को बहुरि रघुपुरी आउ ||
सुनौ ब्रज नागरी ॥
बागुन की परछाँह री माया दरपन बीच ।
गुनतें गुन न्यारे अमन वारि जल कीच ॥
सखा सुन श्याम के ॥
अष्टछाप के इन कवियों में कृष्णदास, परमानन्ददास, कुम्भनदास, हितहरिवंश, स्वामी हरिदास तथा महाप्रभु चैतन्य आदि का नाम भी उल्लेखनीय है ।
भक्तिकाल के कृष्णभक्त शाखा के मौरावाई का जीवन परिचय उनके कृतित्व –
मीराबाई मेवाड़ के राठौर दूदा जी के चौथे पुत्र राम सिंह की. इकलौती पुत्री थीं । मीराबाई का जन्म सं. १५७३ में चौकड़ी नाम के एक गाँव में हुआ था जैसा कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखा है कि विवाह के बोड़े दिनों बाद ही वे विधवा हो गयीं इनके मन में कृष्ण की भक्त हो गई जो धीरे धीरे बढ़ती गई । इन्हें घर वालों ने बहुत कष्ट दिया किन्तु इनकी भक्ति दृढ़ से दृढत्तर होती गई । मीरा की भक्ति माधुर्य भाव की भाँति भी । ये कृष्ण को अपना प्रियतम मानती थी । मीरा का नाम भारत के प्रधान भक्तों में लिया जाता है ।
बसो मेरे नैनन में नन्दलाल ।
मोहनी मूरति साँवरि सूरति मैना बने बाल ॥
भक्तिकाल के कृष्णभक्त शाखा के कवि रसखान का जीवन परिचय उनके कृतित्व –
भक्तिकाल के कृष्णभक्त शाखा के कवि रसखान दिल्ली के पठान सरदार थे । दिल्ली के राजवंश से इनका सम्बन्ध था। कवि रसखान प्रेम वाटिका में लिखा है ।
देखि गदर हित साहिबी, दिल्ली नगर मसान।
जिनहि बादसा वंश की उसक छाँड़ि रसखान ।।
रसखान का पूरा नाम इब्राहीम था इनका रचना काल सं. १६४० के लगभग माना जाता है । रसखान गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के बड़े कृपापात्र शिष्ट थे । दो सौ बावन वैष्णों की वार्ता के अनुसार ये एक अनिये के लड़की पर आसक्त थे । एक दिन इन्होंने किसी को कहते सुना कि भगवान से ऐसा प्रेम करना चाहिए जैसा रसखान का उस बनिये के लड़की से है। इस बात से मरत होकर ये विट्ठलनाथ जी के शिष्य हो गये । इनका प्रेम कृष्ण के प्रति अनन्य तथा अलौकिक था । प्रेम वाटिका के दोहे में इन्होंने स्पष्ट कहा है ।
तोरि मालिनी से हियो, फोर मोहिनी मान ।
प्रेमदेव की छविहि लखि, भये मियाँ रसखानि ॥
भक्तिकाल के कृष्णभक्त शाखा के कवि रसखान के रचनाओं में ‘प्रेम वाटिका’ और ‘सुजान रसखान’ मुख्य हैं । जिनमें प्रेम उमड़ता हुआ दिखाई पड़ता है।
राधिका जी है तो जी. न तो पीछे हलाहल नन्द के द्वारे ।
प्रेम फॉस सो फैसि मरे, सोई जिये सदाहि ।
प्रेम मरम जाने बिना, मरि कोउ जीवत नाहि ॥
भक्तिकाल के कृष्णभक्त शाखा के कवि नरोत्तमदास का जीवन परिचय उनके कृतित्व
शिव सिंह सरीज के अनुसार भक्तिकाल के कृष्णभक्त शाखा के कवि नरोत्तमदास जन्म सं. १६०२ माना गया है । ये सीतापुर के रहने वाले थे । इनकी प्रसिद्धि सुदामा चरित्र को लेकर है । इन्होंने बड़े सुन्दर ढंग से भावों की अभिव्यंजना की है । इनकी भाषा अत्यन्त परिमार्जित है । सुदामा और कृष्ण की सुप्रसिद्ध कथा सरल पद्धति से कही गई है ।
इसके अतिरिक्त कुछ दरबारी कवि भी हुए हैं जिनमें रहीम और नरहरि बन्दीजन मुख्य हैं । टोडरमल और बीरबल भी कवियों की श्रेणी में आ जाते हैं। ये अकबर के दरबार में, साहित्य प्रेमी अकबर के सामने अपनी भावनाओं का प्रदर्शन करते थे ।