महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य के महान रचनाकारों में से एक थे, जिनका जन्म 1864 ई. में उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के दौलतपुर गाँव में हुआ था। उन्होंने हिन्दी साहित्य को एक नई दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके परिणामस्वरूप उनके नाम पर “द्विवेदी युग” का नामकरण किया गया। 1903 ई. में वे प्रतिष्ठित “सरस्वती” पत्रिका के संपादक बने और 1920 ई. तक इस पत्रिका का सफल संपादन किया।
महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रमुख रचनाएँ
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य में गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में उत्कृष्ट योगदान दिया। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं:
- काव्यमूंजूषा
- सुमन
- कान्यकुब्ज
- अबला विलाप
- गंगालहरी
- ऋतुतरंगिणी
- कुमार सम्भवसार (अनूदित)
द्विवेदीयुगीन काव्य: हिन्दी भाषा और साहित्य का स्वर्ण युग
द्विवेदी युग में गद्य और पद्य दोनों विधाओं का व्यापक विकास हुआ। इस काल में हिन्दी भाषा के रूप में खड़ी बोली को विशेष मान्यता मिली। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा के प्रति समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया, जिससे खड़ी बोली को साहित्य में एक सशक्त पहचान मिली।
औपनिवेशिक शासन के दौरान हिन्दी भाषा को लेकर कई भ्रांतियाँ उत्पन्न हुईं। ब्रिटिश सत्ता ने हिन्दी को हिन्दुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा के रूप में स्थापित करने की कोशिश की। यह विभाजन आगे चलकर राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द और राजा लक्ष्मण प्रसाद के प्रयासों में भी देखा गया। हालाँकि, भारतेन्दु युग में हिन्दी और उर्दू के बीच समन्वय स्थापित करने की कोशिश की गई, लेकिन यह संघर्ष पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा को व्याकरणिक एकरूपता देने और तत्सम, तद्भव एवं विदेशी प्रचलित शब्दों को अपनाकर हिन्दी को अधिक सहज और प्रभावी बनाने का प्रयास किया। उनके प्रयासों से हिन्दी भाषा एक व्यापक और लोकप्रिय स्वरूप में उभरकर सामने आई।
गद्य और पद्य का समन्वय: चम्पू काव्य का विकास
द्विवेदी युग में चम्पू काव्य का विकास हुआ, जिसमें गद्य और पद्य दोनों का समन्वय किया गया। इस युग में प्रबंध काव्य और मुक्तक काव्य दोनों की रचनाएँ हुईं। प्रमुख प्रबंध काव्यों में यशोधरा, प्रियप्रवास, जयद्रथवध, पंचवटी, मिलन, पथिक, और स्वराज शामिल हैं। इन काव्य रचनाओं में तत्कालीन समाज और संस्कृति की झलक मिलती है।
महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘सरस्वती’ पत्रिका का योगदान
द्विवेदी युग का नामकरण महावीर प्रसाद द्विवेदी के अद्वितीय योगदान के आधार पर किया गया। उन्होंने “सरस्वती” पत्रिका के संपादन के माध्यम से हिन्दी साहित्य को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। इस पत्रिका ने हिन्दी नवजागरण को जन-जन तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1900 ई. में “सरस्वती” पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ और 1903 ई. में द्विवेदी जी इसके संपादक बने।
डॉ. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक “आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी” और “हिन्दी नवजागरण” में इस पत्रिका का विस्तृत विश्लेषण किया है। उन्होंने यह प्रमाणित किया कि सरस्वती पत्रिका ने हिन्दी भाषा और साहित्य के उत्थान में एक मील का पत्थर स्थापित किया।
द्विवेदी जी की प्रेरणा और हिन्दी साहित्य पर प्रभाव
महावीर प्रसाद द्विवेदी के साहित्यिक योगदान से प्रेरणा लेकर मैथिलीशरण गुप्त, गोपालशरण सिंह, गयाप्रसाद शुक्ल ‘स्नेही’ आदि कवि आगे बढ़े। द्विवेदी जी की प्रेरणा से ही मैथिलीशरण गुप्त ने “साकेत” नामक महाकाव्य की रचना की। खड़ी बोली के प्रचार-प्रसार में “सरस्वती” पत्रिका की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।
हिन्दी भाषा के परिष्कार में द्विवेदी जी का योगदान अमूल्य था। शुक्ल जी लिखते हैं कि “खड़ी बोली के पद्य विधान पर द्विवेदी जी का पूरा-पूरा प्रभाव पड़ा। बहुत से कवियों की भाषा अव्यवस्थित और शिथिल होती थी। द्विवेदी जी ऐसे कवियों की कविताओं की भाषा को सुधारकर ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित करते थे, जिससे कवि शुद्ध भाषा लिखने की ओर प्रेरित हुए।”
द्विवेदी युग की काव्यगत विशेषताएँ
द्विवेदी युग का प्रमुख योगदान हिंदी साहित्य को एक नया दिशा और स्वरूप देने में था। महावीर प्रसाद द्विवेदी के नेतृत्व में यह युग साहित्य, विशेष रूप से काव्य, में एक महत्वपूर्ण मोड़ लेकर आया। द्विवेदी युग में हिंदी कविता को नया आत्मविश्वास मिला और खड़ी बोली को काव्य की भाषा के रूप में स्थापित किया गया। इस युग की काव्यगत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- खड़ी बोली का प्रचार और प्रसार:
द्विवेदी जी के समय में खड़ी बोली का अत्यधिक प्रचार हुआ। पहले उर्दू और हिंदी के बीच जो भेदभाव था, उसे खत्म करने की कोशिश की गई। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली को काव्य के लिए उपयुक्त और प्रभावी भाषा के रूप में स्थापित किया। उन्होंने इसे समृद्ध और शुद्ध बनाने के लिए तत्सम, तद्भव और विदेशी शब्दों का संतुलित प्रयोग किया, जिससे यह आम जनता के बीच और अधिक लोकप्रिय हो पाई। - भाषा का परिष्कार और शुद्धता:
द्विवेदी युग में काव्य भाषा की शुद्धता और परिष्कार पर विशेष ध्यान दिया गया। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य में खड़ी बोली के शुद्ध रूप को स्थापित करने के लिए तत्सम और तद्भव शब्दों का प्रयोग किया। उन्होंने विदेशी और अपशब्दों से भाषा को साफ किया और उसे शास्त्रीय रूप में ढालने का प्रयास किया। यह शुद्ध और सरल भाषा सशक्त विचारों और भावनाओं को प्रस्तुत करने के लिए उपयुक्त मानी गई। - प्रबन्ध काव्य का विकास:
द्विवेदी युग में प्रबन्ध काव्य, विशेषकर महाकाव्य और खण्डकाव्य शैलियों का प्रचलन हुआ। महाकाव्य की शैली में ‘प्रियप्रवास’, ‘यशोधरा’ जैसी रचनाएँ सामने आईं, जबकि खण्डकाव्य की रचनाएँ जैसे ‘जयद्रथवध’, ‘पंचवटी’, और ‘मिलन’ ने काव्य की विविधता को प्रदर्शित किया। इन रचनाओं में काव्य के शास्त्रीय और नैतिक गुणों का उल्लेख किया गया, और ये समाज में आदर्शों को स्थापित करने के प्रयास थे। - मुक्तक काव्य का विकास:
द्विवेदी युग में मुक्तक काव्य को भी प्रोत्साहन मिला। इस युग के कवियों ने अपनी भावनाओं और विचारों को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने के लिए मुक्तक काव्य की रचनाएँ कीं। मुक्तक काव्य में कोई विशेष रूप या संरचना नहीं होती, जो कवि को अपनी अभिव्यक्ति में अधिक स्वतंत्रता देता है। - सामाजिक और सांस्कृतिक जागरण:
द्विवेदी युग की कविताओं में समाज के उत्थान और जागरूकता का संदेश मिलता है। इस युग में कवि न केवल साहित्य की रचनाएँ कर रहे थे, बल्कि समाज की जड़ों तक जाकर उसकी कमजोरियों और सुधार की आवश्यकता को भी महसूस कर रहे थे। ‘अबला विलाप’ जैसी रचनाएँ नारी की स्थिति और उसकी पीड़ा को उजागर करती हैं, जबकि अन्य रचनाएँ सामाजिक असमानता और अंग्रेजी शासन के खिलाफ जागरूकता फैलाती हैं। - भावनात्मकता और संवेदनशीलता का चित्रण:
द्विवेदी युग की कविताओं में भावनाओं और संवेदनाओं का गहरा चित्रण किया गया। कवि अपनी रचनाओं में प्रेम, विरह, शोक, उत्साह, संघर्ष, आदि जैसे विभिन्न मानवीय भावनाओं का सरल और सशक्त रूप से चित्रण करते थे। इन कविताओं में मानवीय पक्ष और संवेदनाओं का उजागर किया गया, जिससे पाठक इन रचनाओं से गहरे स्तर पर जुड़ सकें। - चम्पूकाव्य का विकास:
द्विवेदी युग में चम्पूकाव्य की शृंगारी शैली का भी विकास हुआ। यह एक ऐसी काव्यशैली है जिसमें गद्य और पद्य का मिश्रण होता है। इस काव्यशैली में शृंगारिक भावनाओं और नीतिपरक उपदेशों का संगम होता था, जिससे यह युग मनोरंजन और शिक्षा का संतुलन प्रस्तुत करता था। - साहित्य में शास्त्रीयता का पालन:
इस युग में कविता का निर्माण शास्त्रीय नियमों के तहत हुआ। द्विवेदी जी ने काव्यशास्त्र के नियमों को पालन करते हुए कविता की संरचना और शास्त्रीयता को महत्त्व दिया। इससे काव्य में व्यवस्थितता और आदर्श रूप का अनुसरण हुआ। कविता में छंद, यति, अलंकार, और शास्त्रीय रूपों का पालन किया गया। - काव्य में यथार्थ का चित्रण:
द्विवेदी युग की कविताओं में समाज के यथार्थ का चित्रण किया गया। यह युग न केवल समाज के आदर्शों की बात करता था, बल्कि उसने समाज की वास्तविक समस्याओं, जैसे दीन-हीनता, सामाजिक असमानता, और आर्थिक विषमताओं को भी उजागर किया। इन रचनाओं के माध्यम से सामाजिक सुधार का संदेश दिया गया। - काव्य में प्रेरणा और आदर्श:
द्विवेदी युग के काव्य में समाज और व्यक्ति के लिए प्रेरणा और आदर्श की भावना प्रमुख थी। कवि अपने साहित्य के माध्यम से आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देते थे और समाज को बेहतर बनाने की दिशा में मार्गदर्शन करते थे। इस युग में काव्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं था, बल्कि वह समाज में जागरूकता और सुधार की दिशा में भी काम करता था। - नारी जीवन और समस्याओं का चित्रण:
द्विवेदी युग में नारी जीवन और उसकी समस्याओं पर विशेष ध्यान दिया गया। कवि नारी की पीड़ा, शोषण और संघर्षों को अपनी कविताओं में व्यक्त करते थे। ‘अबला विलाप’ जैसी रचनाएँ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, जिसमें नारी के दर्द और उसकी स्थिति को सामने रखा गया। यह काव्य महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और उनकी स्थिति में सुधार की दिशा में एक कदम था। - राष्ट्रीयता और स्वाधीनता का संदेश:
द्विवेदी युग में काव्य ने राष्ट्रीयता और स्वाधीनता का संदेश भी दिया। यह समय ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष का था, और कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से भारतीय जनता में स्वतंत्रता संग्राम की भावना जगाने का काम किया। यह युग भारतीय संस्कृति और गौरव को पुनर्जीवित करने का प्रयास था।
इस प्रकार, द्विवेदी युग ने हिंदी काव्य को शास्त्रीयता, शुद्धता, समाज जागरूकता, और भावनात्मक गहराई के साथ एक नई दिशा दी। यह युग न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था, बल्कि सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय जागरूकता के क्षेत्र में भी इसका योगदान अविस्मरणीय था।
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