भारत एक अत्यंत विविधतापूर्ण देश है, जहाँ सैकड़ों भाषाएँ, बोलियाँ, संस्कृतियाँ और परंपराएँ सह-अस्तित्व में हैं। इसकी अनूठी पहचान इसकी भाषाई और सांस्कृतिक बहुलता से जुड़ी हुई है। भारत में न केवल 22 आधिकारिक रूप से मान्यता प्राप्त भाषाएँ हैं, बल्कि 1,600 से अधिक स्थानीय बोलियाँ भी प्रचलित हैं। प्रत्येक क्षेत्र की अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक धरोहर, पारंपरिक रीति-रिवाज और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है, जो इसे अन्य क्षेत्रों से अलग बनाती हैं।
इतनी अधिक भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के कारण, प्रशासनिक और राजनीतिक चुनौतियाँ उत्पन्न होती थीं। स्वतंत्रता के बाद, भारत को एक सशक्त राष्ट्र बनाने के लिए एक संगठित प्रशासनिक ढांचे की आवश्यकता थी, जो देश की विविधता को स्वीकार करते हुए भी राष्ट्रीय एकता को बनाए रख सके। इस संदर्भ में, भारतीय राज्यों का भाषाई आधार पर पुनर्गठन एक महत्वपूर्ण कदम था, जिसने शासन प्रणाली को अधिक प्रभावी और सुचारू बनाया।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1947 में भारत की स्वतंत्रता से पहले, देश ब्रिटिश शासन के अधीन था और इसे मुख्यतः दो प्रमुख प्रशासनिक इकाइयों में विभाजित किया गया था – ब्रिटिश प्रांत और रियासतें। ब्रिटिश प्रांत सीधे ब्रिटिश सरकार द्वारा शासित होते थे, जबकि रियासतें भारतीय राजाओं और नवाबों के अधीन थीं, जो ब्रिटिश सत्ता के प्रति वफादार थे। यह विभाजन प्रशासनिक सुविधा के आधार पर किया गया था, न कि सांस्कृतिक, भाषाई या सामाजिक कारकों को ध्यान में रखकर।
ब्रिटिश प्रशासन ने भाषाई या सांस्कृतिक विभाजनों को मान्यता नहीं दी, जिससे शासन संबंधी कई समस्याएँ उत्पन्न हुईं। अलग-अलग भाषाएँ बोलने वाले लोग एक ही प्रशासनिक इकाई में थे, जिससे संचार की कठिनाइयाँ बढ़ीं और प्रशासनिक कुशलता प्रभावित हुई। इसके अलावा, कई क्षेत्रों में स्थानीय भाषा की उपेक्षा की गई और प्रशासन अंग्रेज़ी या अन्य प्रमुख भाषाओं में संचालित किया जाता था, जिससे जनता और सरकार के बीच की दूरी और बढ़ गई।
ब्रिटिश शासन ने भारत की विविधता को ध्यान में रखे बिना केवल अपनी सुविधा के अनुसार प्रांतों का निर्माण किया। उदाहरण के लिए, बंगाल, मद्रास और बॉम्बे प्रेसीडेंसी जैसे बड़े प्रशासनिक क्षेत्रों में कई भाषाएँ बोली जाती थीं, जिससे स्थानीय प्रशासनिक आवश्यकताओं की उपेक्षा होती थी।
स्वतंत्रता के बाद पुनर्गठन
स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद, भारत के सामने एक बड़ी चुनौती यह थी कि वह अपने प्रशासनिक ढाँचे को इस तरह से पुनर्गठित करे जिससे देश की विविधता को सम्मान मिले और प्रशासनिक दक्षता भी सुनिश्चित की जा सके। तत्कालीन सरकार को यह समझ में आ रहा था कि यदि भाषाई पहचान को मान्यता नहीं दी गई, तो जनता के असंतोष और अशांति की संभावनाएँ बढ़ सकती हैं।
स्वतंत्रता के बाद भाषाई पहचान के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग तेज हो गई। सबसे महत्वपूर्ण घटना तेलुगु भाषी राज्य की मांग थी, जिसने पूरे देश में भाषाई पुनर्गठन की दिशा में पहला बड़ा कदम रखा। तेलुगु भाषी लोगों ने एक अलग राज्य की माँग की, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि प्रशासन और शिक्षा उनकी मातृभाषा में हो। इस आंदोलन की प्रमुख घटना पोट्टि श्रीरामुलु का अनशन था, जिन्होंने आंध्र प्रदेश के गठन की माँग को लेकर 1952 में अनशन किया और उनकी मृत्यु के बाद यह आंदोलन और तेज हो गया।
जनता के भारी दबाव और व्यापक विरोध प्रदर्शनों के कारण, 1953 में भारत सरकार ने आंध्र प्रदेश को भारत का पहला भाषाई राज्य घोषित किया, जो विशेष रूप से तेलुगु भाषी लोगों के लिए बनाया गया था। इस कदम ने अन्य भाषाई समूहों को भी प्रोत्साहित किया और धीरे-धीरे पूरे देश में भाषाई राज्यों की माँग बढ़ती गई।
आंध्र प्रदेश के गठन के बाद, भारत सरकार ने इस मुद्दे को व्यापक स्तर पर हल करने के लिए राज्य पुनर्गठन आयोग (States Reorganisation Commission – SRC) का गठन किया, जिसका उद्देश्य पूरे देश में राज्यों की सीमाओं को भाषाई आधार पर पुनः निर्धारित करना था। इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर, 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पारित किया गया, जिसके तहत भारत के कई राज्यों की सीमाओं को भाषाई आधार पर पुनर्गठित किया गया।
इस ऐतिहासिक फैसले से भारत में प्रशासनिक स्थिरता आई, लोगों को अपनी मातृभाषा में शिक्षा और सरकारी सेवाओं का लाभ मिला, और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिला। हालाँकि, यह प्रक्रिया पूरी तरह से निर्बाध नहीं थी और कई स्थानों पर विरोध और विवाद भी देखने को मिले। इसके बावजूद, भारत ने एक बहुभाषी राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान को बनाए रखते हुए भाषाई विविधता को सम्मान दिया।
राज्य पुनर्गठन आयोग और 1956 का अधिनियम
1953 में, भारत सरकार ने राज्य पुनर्गठन आयोग (States Reorganisation Commission – SRC) का गठन किया ताकि राज्यों के पुनर्गठन की व्यवहारिकता की जांच की जा सके। यह आयोग तीन सदस्यों का था, जिसमें प्रमुख रूप से न्यायमूर्ति फज़ल अली थे, जिनके साथ हृदयनाथ कुंजरू और के. एम. पणिक्कर भी थे। इस आयोग का मुख्य उद्देश्य देश के प्रशासनिक पुनर्गठन के लिए एक व्यवस्थित ढांचा तैयार करना था।
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया कि राज्यों का पुनर्गठन भाषाई आधार पर किया जाना चाहिए ताकि प्रशासन सुगम हो और नागरिकों को अपनी मातृभाषा में सरकारी सेवाएँ प्राप्त करने की सुविधा मिले। इस रिपोर्ट के आधार पर, 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पारित किया गया, जिसके तहत भारत के कई राज्यों की सीमाओं को भाषाई आधार पर पुनर्गठित किया गया। इस अधिनियम के परिणामस्वरूप, भारत को 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित किया गया।
यह ऐतिहासिक फैसला भारत की राजनीतिक और प्रशासनिक संरचना के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इससे न केवल प्रशासनिक स्थिरता आई, बल्कि भाषाई समुदायों के बीच संतुलन स्थापित करने में भी मदद मिली। हालाँकि, यह प्रक्रिया पूरी तरह से निर्बाध नहीं थी और कई स्थानों पर विरोध और विवाद भी देखने को मिले। इसके बावजूद, भारत ने एक बहुभाषी राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान को बनाए रखते हुए भाषाई विविधता को सम्मान दिया।
भारतीय राज्यों के भाषाई आधार पर विभाजन के कारण

1. भाषाई पहचान की सुरक्षा
भारत में 22 अनुसूचित भाषाएँ और 1,600 से अधिक बोलियाँ हैं। राज्यों को भाषाई आधार पर संगठित करने से स्थानीय भाषाओं और सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा हुई। इससे लोग अपनी भाषा को शिक्षा, साहित्य और प्रशासन में बढ़ावा दे सके, और किसी प्रमुख भाषा समूह के प्रभुत्व का डर समाप्त हुआ।
2. सुचारू शासन और प्रशासन
भाषाई पुनर्गठन ने शासन को अधिक प्रभावी बनाया। इसने यह सुनिश्चित किया कि लोग सरकारी संस्थानों के साथ अपनी मातृभाषा में संवाद कर सकें, जिससे प्रशासन में सुधार हुआ। कानून, नियम और आधिकारिक दस्तावेज आम जनता के लिए अधिक सुलभ हो गए।
3. क्षेत्रीय असमानताओं को कम करना
भाषाई विभाजन से पहले, कई क्षेत्र भाषा संबंधी भिन्नताओं के कारण उपेक्षित महसूस करते थे। अल्पसंख्यक भाषाएँ बोलने वाले लोग सरकारी सेवाओं तक पहुँचने या निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में भाग लेने में कठिनाई महसूस करते थे। पुनर्गठन ने संतुलित विकास और सभी भाषाई समुदायों के समान प्रतिनिधित्व को बढ़ावा दिया।
4. राष्ट्रीय एकता को मजबूत करना
भारत को विभाजित करने के बजाय, भाषाई पुनर्गठन ने राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया क्योंकि इसने भाषाई संघर्षों को कम किया और लोगों को अपने राज्य में आत्मीयता का अनुभव कराया। जब भाषाई समूहों को अपनी प्रशासनिक इकाइयाँ मिलीं, तो वे हाशिए पर रहने की भावना से मुक्त हुए, जिससे शांति और स्थिरता बनी रही।
5. क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षा को बढ़ावा
भाषा शिक्षा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पुनर्गठन से पहले, कई छात्रों को उस भाषा में सीखना पड़ता था जिसमें वे सहज नहीं थे, जिससे उनके सीखने के परिणाम प्रभावित होते थे। भाषाई राज्यों के गठन से क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षा को बढ़ावा मिला, जिससे साक्षरता दर में वृद्धि और शैक्षणिक प्रदर्शन में सुधार हुआ।
भाषाई राज्य विभाजन के प्रमुख परिणाम
1. नए राज्यों का गठन
राज्य पुनर्गठन अधिनियम (1956) के तहत कई नए राज्यों का गठन हुआ। प्रमुख घटनाक्रम इस प्रकार हैं:
- आंध्र प्रदेश (1953) – पहला भाषाई राज्य (तेलुगु भाषी लोग)
- महाराष्ट्र और गुजरात (1960) – मराठी और गुजराती बोलने वालों के लिए बनाए गए
- पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश (1966) – पंजाबी और हिंदी भाषी लोगों के आधार पर विभाजन
2. क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा
राज्य पुनर्गठन से क्षेत्रीय भाषा विकास को बढ़ावा मिला, जिससे शिक्षा, प्रशासन और मीडिया में स्थानीय भाषाओं को शामिल किया गया। राज्य सरकारों में आधिकारिक कार्य स्थानीय भाषाओं में होने लगे, जिससे शासन आम जनता के लिए अधिक सुलभ हो गया।
3. आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता
प्रशासनिक सीमाओं को भाषाई समूहों के साथ संरेखित करके, राज्य क्षेत्रीय आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित कर सके। इससे स्थानीय उद्योगों, कृषि और व्यापार को राज्य-विशेष संसाधनों और क्षमताओं के आधार पर विकसित करने में मदद मिली।
भाषाई विभाजन की चुनौतियाँ
1. अधिक राज्यों की मांग
भाषाई राज्यों की सफलता ने आगे और राज्यों की मांग को जन्म दिया, जिससे निम्नलिखित राज्यों का गठन हुआ:
- झारखंड (2000)
- छत्तीसगढ़ (2000)
- उत्तराखंड (2000)
- तेलंगाना (2014) भाषाई आधार पर छोटे राज्यों की मांग जारी है, जो प्रशासनिक और शासकीय चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है।
2. भाषाई संघर्ष
पुनर्गठन ने कुछ संघर्षों को कम किया, लेकिन इससे नई तनावपूर्ण स्थितियाँ भी उत्पन्न हुईं। सीमा विवाद जैसे महाराष्ट्र-कर्नाटक के बीच बेलगाम क्षेत्र को लेकर संघर्ष आज भी जारी है। कुछ राज्यों ने भाषा आधारित आरक्षण नीतियाँ लागू की हैं, जहाँ प्रवासी लोगों की तुलना में स्थानीय भाषा बोलने वालों को नौकरियों और शिक्षा में प्राथमिकता दी जाती है।
3. क्षेत्रीयता बनाम राष्ट्रवाद
एक बड़ी चुनौती क्षेत्रीय पहचान पर अधिक जोर देना है, जिससे कभी-कभी राष्ट्रीय एकता में दरार पैदा हो जाती है। क्षेत्रीय राजनीतिक दल अक्सर स्थानीय हितों को राष्ट्रीय हितों से ऊपर रखते हैं, जिससे क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिलता है। कुछ मामलों में, यह अलगाववादी आंदोलनों को भी जन्म देता है।
4. भाषाई अल्पसंख्यकों की चुनौतियाँ
यहाँ तक कि भाषाई राज्यों के भीतर भी, अल्पसंख्यक भाषा बोलने वालों को समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, कर्नाटक में तमिल भाषी लोग और गुजरात में मराठी भाषी लोग शिक्षा में भाषा बाधाओं, सरकारी सहायता की कमी और सांस्कृतिक उपेक्षा जैसी समस्याओं से जूझते हैं।
5. राज्यों के बीच आर्थिक असमानताएँ
कुछ राज्य आर्थिक रूप से विकसित हुए, जबकि कुछ पिछड़ गए। भाषाई विभाजन कभी-कभी लोगों को बेहतर अवसरों के लिए प्रवास करने में बाधा बनता है, क्योंकि वे नई जगहों की भाषा नहीं जानते। समृद्ध राज्य अक्सर आर्थिक रूप से कमजोर राज्यों की सहायता के लिए बाध्य महसूस करते हैं।
6. भाषाई पहचान का राजनीतिक शोषण
कई राजनीतिक दल वोटबैंक की राजनीति के लिए भाषाई पहचान का उपयोग करते हैं, जिससे समाज में विभाजन पैदा होता है। इससे प्रवासी समुदायों के प्रति भेदभाव की नीति अपनाई जाती है, जिससे सामाजिक अशांति और आर्थिक अस्थिरता हो सकती है।
भारत में भाषाई राज्यों का भविष्य

लोकतांत्रिक और आर्थिक बदलावों के साथ, भाषाई राज्यों का भविष्य बहस का विषय बना हुआ है। कुछ विशेषज्ञ सुझाव देते हैं कि भारत को आर्थिक व्यवहार्यता के आधार पर प्रशासनिक विभाजन की ओर बढ़ना चाहिए, न कि केवल भाषाई सीमाओं पर निर्भर रहना चाहिए।
नए राज्यों की माँग – झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के गठन के बाद, अन्य क्षेत्रों से भी अलग राज्यों की माँग उठ रही है, जिनमें विदर्भ, गोरखालैंड और हरित प्रदेश प्रमुख हैं।
आर्थिक विकास बनाम भाषाई पहचान – कई अर्थशास्त्री मानते हैं कि यदि राज्य आर्थिक आधार पर बनाए जाएँ, तो प्रशासन अधिक प्रभावी हो सकता है।
प्रौद्योगिकी और वैश्वीकरण का प्रभाव – इंटरनेट और डिजिटल संचार के कारण भाषाओं की बाधाएँ कम हो रही हैं, जिससे भविष्य में राज्यों का स्वरूप बदल सकता है।
इसलिए, भारत में राज्यों की भाषाई व्यवस्था का भविष्य समय के साथ बदल सकता है।
निष्कर्ष
भारतीय राज्यों को भाषाई आधार पर विभाजित करने का निर्णय बेहतर प्रशासन, सांस्कृतिक संरक्षण और सामाजिक समरसता सुनिश्चित करने के लिए किया गया था। हालाँकि, इस प्रणाली में कुछ चुनौतियाँ भी रही हैं। भारत को आगे बढ़ते हुए क्षेत्रीय और भाषाई मुद्दों को सुलझाने के लिए नए तरीके खोजने की आवश्यकता है, ताकि राष्ट्रीय एकता को बनाए रखा जा सके।