प्रारम्भिक हिन्दी कहानियों का विवरण
हिन्दी गद्य में कहानी शीर्षक से प्रकाशित होने वाली सबसे पहली रचना रानी केतकी की कहानी है, जो 1803 ई. में इंशा अल्ला खाँ द्वारा लिखी गई। आधुनिक ढंगा कानी केतकी की आरम्भ आचार्य शुक्ल ने सरस्वती पत्रिका के प्रकाशन-काल से माना है। उन्हकहानियों का कहानियों का विवरण इस प्रकार दिया है
इन्दुमती (1900ई.) किशोरी लाल गोस्वामी, गुलबहार किशोरीलाल गोस्वामी, प्लेग की चुड़ैल मास्टर भगवानदास, ग्यारह वर्ष का समय रामचन्द्र शुक्ल, पण्डित-पण्डितानी गिरिजादत्त बाजपेयी, दुलाईवाली बंग महिला । इस प्रकार हिन्दी के प्रथम कहानीकार श्री किशोरीलाल गोस्वामी सिद्ध होते हैं।
उपरोक्त प्रारम्भिक कहानीकारों के अनन्तर हिन्दी में अनेक उच्चकोटि के लेखकों-जयशंकर प्रसाद, प्रेमचन्द, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, विश्वम्भरनाथ शर्मा, ‘कौशिक’, सुदर्शन, पाण्डेय बेचन शर्मा, आचार्य चतुरसेन शास्त्री आदि का आविर्भाव हुआ है। जयशंकर प्रसाद की प्रथम कहानी, ग्राम 1909 ई. में प्रकाशित हुई थी। इसके पश्चात् इन्होने समय-समय पर अनेक कहानियाँ लिखीं।
कहानी-संग्रह ‘छाया’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाशदीप’, ‘आँधी’ और ‘इन्द्रजाल’ प्रकाशित हुए हैं। उनकी आरम्भिक कहानियों पर बंगला का प्रभाव है किन्तु बाद में वे अपनी स्वतन्त्र शैली का विकास कर सके। उनके दृष्टिकोण में भावनात्मकता की रंगीनी होने के कारण उनकी कहानी भी इसी से ओत-प्रोत है। उनमें भावनाओं का सूक्ष्म चित्रण, वातावरण की सघनता एवं शैली की गम्भीरता अधिक है।
मुंशी प्रेमचन्द के द्वारा रचित कहानियों की संख्या तीन सौ से अधिक है जो मानसरोवर के छः भागों में संगृहीत हैं। उनके कुछ स्फुट संग्रह, सप्त-सरोज, नव-निधि, प्रेम-पचीसी, प्रेम-पूर्णिमा, प्रेम-द्वादशी, प्रेम-तीर्थ, सप्त-सुमन आदि शीर्षकों से भी प्रकाशित हुए हैं।
प्रेमचन्दयुगीन हिन्दी कहानी
प्रेमचन्द जी पहले उर्दू में लिखते थे। उनका उर्दू में लिखा हुआ प्रसिद्ध कहानी-संग्रह ‘सोजे-वतन’ 1907 ई. में प्रकाशित हुआ था जो स्वातन्त्र्य भावनाओं से ओत-प्रोत होने के कारण सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया था। 1916 ई. में उनकी हिन्दी में रचित प्रथम कहानी, ‘पंच-परमेश्वर’ प्रकाशित हुई। उनकी कहानियों में ‘पंच-परमेश्वर’ के अतिरिक्त ‘आत्माराम’, ‘बड़े घर की बेटी’, शतरंज के खिलाड़ी, ‘वज्रपात’, ‘रानी सारन्धा’, ‘अलग्योझा’, ‘ईदगाह’, ‘पूस की रात’, ‘सुजान भगत’, ‘कफन’, ‘पण्डित मोटेराम’ आदि अधिक विख्यात हैं। प्रेमचन्द जी की कहानी में जनसाधारण के जीवन की सामान्य परिस्थितियों, मनोवृत्तियों एवं समस्याओं का चित्रण मार्मिक रूप में हुआ है। वे साधारण-से- साधारण बात को भी मर्मस्पर्शी रूप में प्रस्तुत करने की कला में सिद्धहस्त थे।
प्रारंभिक हिन्दी कहानियों का प्रमुख लेखक और उनकी रचनाएँ
जयशंकर प्रसाद जी
प्रसाद जी की रहस्यात्मकता, जटिलता एवं दार्शनिकता से वे मुक्त थे। उनकी शैली में ऐसी सरलता, स्वाभाविकता एवं रोचकता मिलती है जो पाठक के हृदय को उद्वेलित करने में समर्थ हो सके। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का हिन्दी कहानी साहित्य में बहुत ऊँचा स्थान है। उनकी प्रथम कहानी ‘उसने कहा था’ 1915 ई. में प्रकाशित हुई थी जो अपने ढंग की अनूठी रचना है। इसमें किशोरावस्था के प्रेमांकुर का विकास, त्याग और बलिदान से ओत-प्रोत पवित्र भावना के रूप में किया गया है। कहानी का अन्त गम्भीर एवं शोकपूर्ण होते हुए भी इसमें हास्य और व्यंग्य का समन्वय इस ढंग से किया गया है कि उससे मूल स्थायी भाव को कोई ठेस नहीं पहुँची।
गुलेरी जी
गुलेरी जी की दूसरी कहानी ‘सुखमय जीवन’ भी पर्याप्त रोचक व भावोत्तेजक है। इसमें एक अविवाहित युवक के द्वारा विवाहित जीवन पर लिखी गई पुस्तक को लेकर अच्छा विवाद खड़ा किया गया है। जिसकी परिणति एक अत्यन्त रोचक प्रसंग में हो जाती है। ‘बुद्ध का काँटा’ भी एक अच्छी कहानी है।
विश्वम्भर नाथ कौशिक
उर्दू से हिन्दी में आने वाले लेखकों में विश्वम्भरनाथ ‘कौशिक’ भी प्रसिद्ध हैं। उनकी प्रथम कहानी रक्षाबन्धन 1913 ई. में प्रकाशित हुई। विचारधारा की दृष्टि से कौशिक जी प्रेमचन्द की परम्परा में आते हैं। इन्होंने भी समाज सुधार को अपनी कहानी कला का लक्ष्य बनाया। उनकी कहानियों की शैली अत्यन्त सरल, सरस व रोचक है। उनकी हास्य और विनोद से परिपूर्ण कहानियाँ ‘चाँद’ में दुबे जी की चिट्ठियों के रूप में प्रकाशित हुई थीं।
पण्डित बद्रीनाथ भट्ट
पण्डित बद्रीनाथ भट्ट सुदर्शन का भी महत्त्व कहानी कला के ढंग में कौशिक जी के तुल्य माना जाता है। उनकी प्रथम कहानी ‘हार की जीत’ 1920 ई. में सरस्वती में प्रकाशित हुई। तब से उनके अनेक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं; जैसे- ‘सुदर्शन सुधा’, ‘सुदर्श सुमन’, ‘तीर्थयात्रा’, ‘पुष्पलता’, ‘गल्प मंजरी’, ‘सुप्रभात’, ‘चार कहानियाँ’, ‘नगीना’, ‘पनघट’ आदि। उन्होंने अपनी कहानियों में मानवीय भावनाओं एवं मनोवृत्तियों का चित्रण अत्यन्त सरल और रोचक शैली में किया है।
पाण्डेय बेचन शर्मा
पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ का प्रवेश हिन्दी कहानी जगत में 1922 ई. में हुआ। उनकी उग्रता के प्रभाव को ‘उल्कापात’, ‘धूमकेतु’, ‘तूफान’ आदि की संज्ञा दी है। उन्होंने अपनी रचनाओं में राजनीतिक परिस्थितियों, सामाजिक रूढ़ियों और राष्ट्र को हानि पहुँचाने वाली प्रवृत्तियों के प्रति गहरा विद्रोह व्यक्त किया। उनमें वीभत्सता एवं अश्लीलता भी आ गई है किन्तु उनका उद्देश्य जीवन की इस कुरूपता का प्रचार करना नहीं बल्कि उसका अन्त करना है। उनके कहानी संग्रह ‘दोजख की आग’, ‘चिंगारियाँ’, ‘बलात्कार, सनकी अमीर’ आदि प्रकाशित हुए हैं।
ज्वालादत्त शर्मा
ज्वालादत्त शर्मा ने बहुत कम कहानियाँ लिखी हैं परन्तु हिन्दी जगत में उनका अच्छा स्वागत हुआ है। उनकी कहानियों में ‘भाग्य-चक्र’, ‘अनाथ बालिका’ आदि उल्लेखनीय हैं। ‘जनार्दन प्रसाद झा’ ने अपनी कहानियों में ‘करुण रस’ की अभिव्यक्ति बड़े मौलिक ढंग से की है। उनके कहानी संग्रह ‘किसलय, मृदल, मधुमयी’ आदि प्रकाशित हुए हैं। मार्मिकता की दृष्टि से इनकी कहानियों का बहुत ऊँचा स्थान है।
चण्डी प्रसाद हृदयेश
चण्डी प्रसाद हृदयेश का दृष्टिकोण आदर्शवादी था। उनकी कहानियों में हमें सेवा, त्याग, बलिदान, आत्म-शुद्धि आदि उच्च भावनाओं का चित्रण मिलता है। उनकी कहानियाँ भावना प्रधान हैं। उनके कहानी संग्रह ‘नन्दन-निकुंर ‘वनमाला’ आदि नामों से प्रकाशित हुए हैं।
युग के अन्य कहानीकार
इस युग के अन्य कहानीकारों में राधिका प्रसाद सिंह, रायकृष्ण दास विनोदशंकर व्यास, विश्म्भरनाथ जिज्जा, पद्मालाल पुन्नालाल बख्शी, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, कृष्णकान्त मालवीय, प्रभृति का नाम उल्लेखनीय हैं।
राधिका रमण प्रसाद सिंह
राधिका रमण प्रसाद सिंह ने विभिन्न सामाजिक समस्याओं एवं राजनीतिक आन्दोलनों का चित्रण अपनी कहानियों में किया है। इनके कहानी संग्रह ‘गाँधी टोपी’, ‘सावनी सुधा’, ‘गल्प कुसुमांजली’ आदि हैं।
विश्वम्भरनाथ जिज्जा
विश्वम्भरनाथ जिज्जा ने प्रेम एवं रोमांस से परिपूर्ण कतिपय कहानियों की रचना की है। इनमें ‘सौन्दर्य की महिमा’, ‘विदीर्ण हृदय’, ‘परदेशी’ आदि उल्लेखनीय हैं।
पद्मालाल पुन्नालाल बख्खीराम
‘पद्मालाल पुन्नालाल बख्शी ने पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन पर अनेक आदर्शोन्मुखी कहानियाँ प्रस्तुत की हैं। ये कहानियाँ ‘अंजलि और झलमला’ में संगृहीत हैं।
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
‘सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’ की कहानियाँ ‘लिली’, ‘सखी’, ‘सुकुल की बीवी’ और ‘चतुरी चमार’ शीर्षक संग्रहों में संगृहीत हैं।
इस युग के कहानी साहित्य में सामाजिक समस्याओं को ही प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ है। इनमें पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक जीवन की विभिन्न परिस्थितियों एवं समस्याओं का चित्रण हुआ है।
शैली की दृष्टि से इस युग की कहानियाँ प्रायः सुगठित एवं सन्तुलित है। कहानियों के आरम्भ और अन्त चमत्कारिक तथा शीर्षक संक्षिप्त एवं सार्थक हैं। पात्रों का चरित्र-चित्रण स्वाभाविक तथा भाषा सरल पात्रानुकूल एवं परिमार्जित है। इनमें विचार, भाव कला और उद्देश्य लोकरंजन तथा लोकमंगल दोनों पक्षों का समन्वय दृष्टिगोचर होता है।