द्विवेदी युग को हिंदी साहित्य के जागरण और सुधार काल के रूप में जाना जाता है। इस युग का नामकरण प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर हुआ। यह काल भारतीय इतिहास में ब्रिटिश शासन के दमन और कूटनीति से प्रभावित था, जहाँ साहित्य दो धाराओं में विकसित हुआ— अनुशासनवादी और स्वच्छंदतावादी। अनुशासनवादी धारा साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर केंद्रित थी, जबकि स्वच्छंदतावादी धारा में मानवीय और प्राकृतिक चित्रण को अधिक महत्व दिया गया।
द्विवेदी युग: हिंदी साहित्य में नवजागरण का युग
द्विवेदी युग को हिंदी साहित्य के जागरण और सुधार काल के रूप में जाना जाता है। इस युग का नामकरण प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर हुआ। यह काल भारतीय इतिहास में ब्रिटिश शासन के दमन और कूटनीति से प्रभावित था, जहाँ साहित्य दो धाराओं में विकसित हुआ— अनुशासनवादी और स्वच्छंदतावादी। अनुशासनवादी धारा साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर केंद्रित थी, जबकि स्वच्छंदतावादी धारा में मानवीय और प्राकृतिक चित्रण को अधिक महत्व दिया गया।
महावीर प्रसाद द्विवेदी और सरस्वती पत्रिका
महावीर प्रसाद द्विवेदी 1903 से 1920 तक प्रतिष्ठित ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक रहे। उनके संपादन काल में भाषा के मानकीकरण, व्याकरणिक शुद्धता और साहित्य में विचारशीलता को बढ़ावा मिला। इस युग में खड़ी बोली हिंदी को एकरूपता देने का श्रेय भी उन्हें जाता है। उनके प्रेरणादायक कार्यों से मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, हरिऔध, गयाप्रसाद शुक्ल सनेही और नाथूराम शर्मा शंकर जैसे साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया।
नवजागरण चेतना और साहित्यिक विकास
द्विवेदी युग की नवजागरण चेतना ने भाषा, साहित्य और समाज में जागरूकता लाई। इस चेतना को तीन प्रमुख चरणों में विभाजित किया जा सकता है:
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प्रथम चरण: भारतेन्दु युग से संबंधित, जिसने हिंदी के विकास की नींव रखी।
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द्वितीय चरण: द्विवेदी युग, जिसमें भाषा और साहित्य को समृद्ध बनाने के प्रयास किए गए।
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प्रौढ़ चरण: छायावाद युग, जिसमें सांस्कृतिक जागरण और औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति पर जोर दिया गया।
द्विवेदी युग के साहित्यिक योगदान
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य को नैतिक उत्तरदायित्व से जोड़ा और साहित्यकारों को सामाजिक उद्देश्यों के प्रति समर्पित रहने की प्रेरणा दी। उनके विचारों के अनुसार, साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि समाज को दिशा देने वाला माध्यम होना चाहिए। मैथिलीशरण गुप्त ने भी इस विचार को आगे बढ़ाया:
“केवल मनोरंजन ही न कवि का कर्म होना चाहिए, बल्कि उसमें उचित उपदेश का मर्म होना चाहिए।”
इस युग में साहित्यकारों ने राष्ट्रीय प्रेम, सामाजिक चेतना, भक्ति, प्रकृति और भाषा के विकास को अपनी रचनाओं में स्थान दिया। भारत भारती जैसी रचनाओं ने भारतीय संस्कृति के गौरवशाली अतीत को वर्तमान की समस्याओं के समाधान के रूप में प्रस्तुत किया।
राष्ट्रप्रेम और साहित्यिक योगदान
द्विवेदी युग के साहित्यकारों का राष्ट्रप्रेम केवल भावुकता तक सीमित नहीं था, बल्कि यह समस्याओं के विश्लेषण और समाधान की दिशा में अग्रसर था। इस युग में साहित्य ने लोगों को त्याग, बलिदान और स्वाभिमान का संदेश दिया:
“देशभक्त वीरों, मरने से कभी नहीं डरना होगा, प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा।”
द्विवेदी युग हिंदी साहित्य का वह महत्वपूर्ण काल था, जिसने भाषा, साहित्य और राष्ट्रीय चेतना को नई दिशा दी और आधुनिक हिंदी साहित्य के लिए ठोस आधार तैयार किया।
भारतेन्दु युग के विपरीत द्विवेदी युग की सामाजिक चेतना मात्र सामाजिक समस्याओं तक ही नहीं सीमित रहती, बल्कि उन समस्याओं के मूल कारणों का भी पता लगाती है। मध्ययुगीन सामन्ती परिवेश के कारण समाज का जो वर्गीकरण रहा है उससे सतत विभेद और घृणा जैसे अमानवीय मूल्य उपजते रहे। सामन्ती परिवेश के कारण ही समाज नारी के प्रति भी उदासीन रहा।
आधुनिक युगीन चेतना के कारण मनुष्य का रूपान्तरण व्यक्ति के रूप में तो हुआ परन्तु समाज अभी भी जड़ बना रहा। नारी की समस्याओं के प्रति भारतेन्दु युग में भी जागरूकता दिखाई पड़ी। प्रताप नारायण भिश्र नारी के वैधव्य (जीवन) और बाल विधवाओं की तरुण अवस्थाओं को देखकर बिफर पड़ते हैं।
‘कौन करे जो नहीं कस कर सूनी विपत्ति बाल विधवन की’ इसके विपरीत द्विवेदी युग में न केवल इस प्रकार की समस्याओं को उठाया गया बल्कि नारी की उपेक्षा को लेकर पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्यकारों के साथ-साथ समाज का भी ध्यान आकृष्ट किया।
उर्मिला विषयक उदासीनता जैसा निबन्ध लिखकर उर्मिला जैसी स्त्रियों की उपेक्षा को समाज के द्वारा भुला दिए गए उत्सर्गों (त्याग) के रूप में माना। फलस्वरूप इस काव्यधारा में परित्यक्ता और उपेक्षित नारियों को काव्य विषय के रूप में वरीयता देने की कोशिश की। और चरों के माध्यम से गौतमबुद्ध की पत्नी का, साकेत के माध्यम से उर्मिला का, विष्णुप्रिया के माध्यम से चैतन्य महाप्रभु की पत्नी का उत्सर्ग भाग योजित किया गया है।
सखी वे मुझसे कहकर जाते,
प्रियतम के प्राणों को पल में स्वयं सुसज्जित करके।
भेज देती है रण में, छत्र धर्म के नाते,
सखी वे मुझसे कहकर जाते।।
(मैथिलीशरण)
अयोध्या प्रसाद ‘हरिऔध’ ने वैदेही (सीता) वनवास और प्रियप्रवास के माध्यम से इसी प्रकार के उत्सर्गों और उनकी उपेक्षाओं को उठाने की कोशिश की है। मध्ययुगीन आध्यात्मिक पौराणिक रचनाओं में कृष्ण के विरोचित और व्योचित कार्यों की चर्चा तो है परन्तु राधा और गोपियों की विरह दशा में या तो उन्हें कायर दिखाया गया है या फिर करुण। ‘हरिऔध’ जी ने कृष्ण के प्रवास को टूटते और बिलखते चित्रित नहीं किया है उसकी जगह एक समाज सेविका या लोक सेविका के रूप में वृद्धों रोगियों और असहायों की सेवा करते दिखाया है।
द्विवेदीयुगीन भक्ति भी हालाँकि भारतेन्दु युग की तरह देशानुराग की भक्ति की ही साम्प्रदायिक भक्ति हो रही, परन्तु उसमें ईश्वर का स्वरूप बदल गया। आदिकाल में ईश्वर की भक्ति कर्मकाण्ड मूलक थी। भक्ति काल में यह भक्ति भावना और उदारता पर आधारित हुई परन्तु ईश्वर पारलौकिक अथवा आध्यात्मिक ही रहा। रीति काव्यधारा में ईश्वर को श्रृंगार के विषय के रूप में चित्रित किया गया जबकि द्विवेदी युग में राम और कृष्ण बैकुण्ठ धाम को छोड़कर जन सामान्य के कल्याण के लिए दर-दर वन-वन ठोकर खाने वाले दिखे। साकेत के राम अपने आपको स्वर्ग से आया हुआ नहीं मानते।
मैं यहाँ नहीं आया स्वर्ग का सन्देश सुनाने।
मैं तो भूतल को ही आया हूँ स्वर्ग बनाने।।
मैं आया उनके हेतु जो यहाँ तापित हैं।
विवश विकल दीनहीन और जो शापित हैं।।
ईश्वर का मानवोचित व्यवहार देखते हुए द्विवेदीयुगीन रचनाकारों को भी शक होने लगा है ईश्वर क्या ईश्वर नहीं है? क्या वह मानव है?
राम तुम मानव हो, ईश्वर नहीं हो क्या।
गुप्त और हरिऔध ने राम और कृष्ण के चमत्कारी रूपों की जगह सामान्य रूपों की चर्चा की। प्रियप्रवास के कृष्ण लीला और चमत्कार से नहीं जुड़े हैं बल्कि जीवन की समस्याओं का मानव सुलभ उपचार ढूँढते हैं। अतिवृष्टि से जान-माल को हो रही क्षति को देखते हुए हरिऔध के कृष्ण को गोवर्धन को कानी उंगली पर नहीं उठाते बल्कि गोकुलवासियों को उसमें छुप जाने का रास्ता दिखाते हैं।
द्विवेदीयुगीन स्वच्छन्द धारा के चित्रण को देखते हुए आचार्य शुक्ल जी ने इस धारा से सच्ची स्वच्छन्दता को स्वीकार किया है। श्रीधर पाठक को उन्होंने वास्तविक अर्थ में स्वच्छन्दतावादी मानते हुए इनके काव्य में प्रकृति चित्रण को सराहा। यह सही है कि द्विवेदी युग में प्रकृति का चित्रण पूर्व की साहित्यिक धाराओं की तरह नहीं किया। पूर्व की धाराओं में श्रृंगार और भक्ति प्रमुख काव्य विषय रहे।
भक्ति भी शृंगार से अलग-थलग नहीं रही। अतः ऐसे में प्रकृति का चित्रण मात्र उद्दीपन विभाव के रूप में किया गया। उसके स्वतन्त्र अस्तित्व का नहीं। पहली बात द्विवेदी की स्वच्छन्दतावादी धारा ने प्रकृति को अपनी सहानुभूति प्रदान की उसे उसकी गरिमा के साथ देखा। मध्ययुगीन प्रकृति के चित्रण के साथ दो प्रकार की समस्याए थीं। पहली समस्या उसके दैवीय स्वरूप के भ्रम को लेकर थी जहाँ रचनाकार उसे कौतुक का विषय मान रहा था या आध्यात्मिक। दूसरी समस्या प्रकृति की उपयोगिता को न समझ पाने के कारण थी।
आधुनिक युग में विज्ञान की प्रकृति पर पड़े आध्यात्मिक तथा दैवीय आवरणों को हटा दिया यही कारण है कि द्विवेदी युग में कश्मीर सुषमा और हेमन्त वर्णन के माध्यम से प्रकृति के आन्तरिक और बाह्य दोनों रूपों को सामान्य मानव की आँखों से देखा जा सका।
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