केशवदास भक्तिकाल के महत्वपूर्ण कवि थे, लेकिन संस्कृत साहित्य से अत्यधिक प्रभावित होने के कारण वे पारंपरिक हिंदी काव्य-धारा से अलग एक चमत्कारी कवि के रूप में उभरे। हिंदी में रीतिग्रंथों की परंपरा के आदि आचार्य माने जाने वाले केशवदास का योगदान हिंदी साहित्य में अद्वितीय है। वे एक धनाढ्य ब्राह्मण परिवार से थे और उनके पितामह पंडित कृष्णदत्त मिश्र एवं पिता पंडित काशीनाथ ओरछा नरेश के दरबार से जुड़े हुए थे।
केशवदास का जन्म और शिक्षा
केशवदास का जन्म संवत् 1612 (1555 ई.) में हुआ और उनकी मृत्यु 1674 ई. के करीब मानी जाती है। उनके पितामह पं. कृष्णदत्त मिश्र ओरछा-नरेश रुद्रप्रताप के यहाँ पुराणवृत्ति पर नियुक्त थे। उनके निधन के बाद उनके पिता पं. काशीनाथ और बड़े भाई पं. बलभद्र मिश्र भी ओरछा नरेश के दरबार में सेवा देते रहे।
उस समय ओरछा पर मधुकरशाह का शासन था, जिनके बाद उनके पुत्र रामशाह गद्दी पर बैठे। रामशाह ने अपने अनुज इंद्रजीत सिंह को शासन का भार सौंप दिया। इंद्रजीत सिंह ने केशवदास को अपना गुरु माना और उन्हें भेंटस्वरूप कई गाँव प्रदान किए। इससे केशवदास आर्थिक रूप से स्वतंत्र होकर अध्ययन और लेखन में पूरी तरह समर्पित हो सके।
संस्कृत साहित्य और केशवदास का योगदान
संस्कृत के गहन पंडित होने के कारण केशवदास ने संस्कृत साहित्य का व्यापक अध्ययन किया। उनकी विद्वत्ता उन्हें पारिवारिक परंपरा से प्राप्त हुई थी। वे एक रसिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, और उनके ग्रंथों रामचंद्रिका, रसिकप्रिया, आदि से यह स्पष्ट होता है कि वे विशुद्ध रूप से रसिक कवि थे, न कि किसी विशिष्ट देव रूप के भक्त।
केशवदास के रचित सात पुस्तकें प्राप्त हैं
- रामचन्द्रिका,
- कविप्रिया,
- रसिकप्रिया,
- विज्ञानगीता छन्द,
- रतन बावनी,
- वीरसिंह देवचरित्र,
- जहाँगीर जस चन्द्रिका |
लाला भगवान ‘दीन’ ने उनकी तीन और पुस्तकों की चर्चा की है लेकिन यह भी स्वीकार किया है कि उनमें से दो अप्राप्य हैं और वे ये हैं-
(क) छन्दशास्त्र का कोई एक ग्रन्थ
(ख) राम अलंकृत मंजरी और
(ग) नखशिख।
इनमें दीनजी ने नखशिख’ नामक पुस्तक को देखा था जो कोई महत्त्वपूर्ण पुस्तक नहीं है। ऊपर की सात कृत्तियों में प्रथम चार पुस्तकेही अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं |
रीतिकाल के प्रवर्तक के रूप में केशवदास
रीति ग्रंथों की परंपरा का प्रारंभिक विवाद
रीति ग्रंथों का प्रवर्तक कौन है, इस पर विद्वानों में मतभेद रहा है। कुछ विद्वान केशवदास को रीतिकाल का प्रवर्तक मानते हैं, जबकि कुछ चिंतामणि त्रिपाठी को इस परंपरा का संस्थापक मानते हैं। डॉ. श्यामसुंदर दास के अनुसार, केशवदास को हिंदी में रीति ग्रंथों की परंपरा का आचार्य माना जाता है। हालांकि, वे भक्तिकाल के कवि माने जाते हैं, फिर भी उन पर संस्कृत साहित्य का इतना प्रभाव पड़ा कि वे हिंदी काव्य धारा से अलग हो गए और रीतिग्रंथों की परंपरा के आदि आचार्य कहलाए।
केशवदास और हिंदी रीति ग्रंथों की परंपरा
डॉ. दास ने उल्लेख किया कि केशवदास से पहले भी कृपाराम, गोप, और मोहनलाल जैसे कवियों ने रीति साहित्य की नींव रखी थी, लेकिन उनकी रचनाएँ केशवदास के व्यापक प्रयासों के सामने सीमित हो गईं। इस आधार पर, कई विद्वान उन्हें हिंदी रीति ग्रंथों की परंपरा का संस्थापक मानते हैं।
चिंतामणि त्रिपाठी – रीति ग्रंथों की निरंतर परंपरा के प्रवर्तक
पं. रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, हिंदी रीति ग्रंथों की अखंड और निरंतर परंपरा की शुरुआत चिंतामणि त्रिपाठी से हुई। वे मानते हैं कि केशवदास की ‘कविप्रिया’ के 50 वर्ष बाद रीति साहित्य की स्पष्ट दिशा विकसित हुई, लेकिन यह केशवदास के आदर्शों के बजाय एक नए मार्ग पर चली।
पं. रामचंद्र शुक्ल के तीन तर्क
- रीति ग्रंथों की निरंतरता का अभाव: केशव की ‘रसिकप्रिया’ के 50 वर्षों तक कोई महत्वपूर्ण लक्षण ग्रंथ नहीं लिखा गया, जिससे उनकी प्रवर्तक की भूमिका संदिग्ध हो जाती है।
- चिंतामणि की परंपरा का अनुसरण: हिंदी रीति ग्रंथों की परंपरा चिंतामणि के विचारों पर आधारित रही, न कि केशवदास के आदर्शों पर।
- संस्कृत आचार्यों का प्रभाव: चिंतामणि त्रिपाठी ने संस्कृत के परवर्ती आचार्यों के विचारों का पालन किया, जिसे हिंदी रीति साहित्य के अन्य लेखकों ने भी अपनाया।
रीतिकालीन साहित्य पर केशव का प्रभाव
इसमें कोई सन्देह नहीं कि केशव ने जिस रीति-शैली की काव्य रचना का प्रवर्तन किया था, उसी की परम्परा का अनुसरण कर नीति युग का समस्त काल प्रभावित हुआ । अब यह बात अलग है कि किसी ने अलंकारों को प्रमुखता दी तो किसी ने रस को और किसी ने ध्वनि को तो किसी ने तीनों को । इस सम्बन्ध में डॉ. पीताम्बर दत्त बड़ध्वाल का मत ध्वातव्य है ।
डॉ. बड़ध्वाल ने लिखा है कि इस दिशा में सबसे पहला विस्तृत और गम्भीर ग्रन्थ केशव का था और यद्यपि उनके मत को हिन्दी में साहित्य शास्त्र पर लिखने वालों ने आधार रूप से ग्रहण नहीं किया फिर भी उन्होंने लोगों की प्रवृत्ति की एक विशेष दिशा की ओर पूर्णतया मोड़ दिया । इसलिए वे रीति प्रवाह के प्रवर्तक और प्रधान आचार्य माने जाते हैं ।
केशव संस्कृत साहित्य ही नहीं, वरन् साहित्य शास्त्र के भी मर्मज्ञ थे । उन्होंने अपने सभी ग्रन्थों की रचना के लिए संस्कृत साहित्य शास्त्र का गम्भीरता से अवगाहन किया था और हिन्दी में उनके अंग-उपांगों की स्थापना की थी, जो आगे के परवर्ती अचार्यों और कवियों के मार्गदर्शक बने ।
केशव में जिस आचार्य परम्परा का सूत्रपात हुआ, उसमें प्रमुख हैं-भूषण, जलवन्तसिंह, भिखारी दास, मतिराम, कुलपति मिश्र, देव तथा पद्माकर । जसवन्तसिंह ने केशव से प्रभाव ग्रहण कर अलंकारों में एक लक्षण ग्रंथ की रचना की, जिसमें 108 अलंकारों का विवेचन है । आचार्य भिखारीदास द्वारा निरूपित अलंकारों पर भी आचार्य केशव का पर्याप्त प्रभाव दिखाई पड़ता है ।
मतिराम ने रस और अलंकार निरूपण दोनों क्षेत्रों में केशव का प्रभाव ग्रहण किया था । इसके रस-विवेचन के ग्रंथ ‘रसराज’ पर ‘रसिक प्रिया’ का प्रभाव स्पष्ट है । अलंकार ग्रन्थ ‘ललित ललाम’ में तो अलंकारों के लक्षणों, उदाहरणों तथा वर्गीकरण आदि तक पर केशव का स्पष्ट प्रभाव है । कुलपति और ‘पद्याकर’ भी केशव से निर्विवाद रूप से प्रभावित थे । केशव के समान ही देव आचार्य और कवि दोनों थे ।
देव पर केशव के प्रभाव का विवेचन करते हुए डॉ. विजयपाल सिंह ने लिखा है कि “देव का आचार्य पक्ष ही नहीं, अपितु कवित्व पक्ष भी केशवदास से प्रभावित हुआ है” इतना ही नहीं देव और भिखारीदास जैसे महाकवियों ने केशव को अपनी श्रद्धांजली’ अर्पित की है । किन्तु किसी ने चिंतामणि को आचार्य कवि के रूप में स्मरण नहीं किया है ।
अतः उपर्युक्त तर्क के आधार पर यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि केशव ने काव्यशास्त्र के लक्षणों और नियमों की परम्परा का पालन करने वाली ‘रीति शैली’ की काव्य-रचना की प्रवृत्ति का प्रवर्तन भी किया और प्रभावित भी किया । आचार्यत्व ही दृष्टि से रीतिकाल का कोई भी आचार्य कवि केशव की तुलना में नहीं ठहर सकता । वे रीतिकाल के प्रथम एवं सर्वोत्तम आचार्य थे । सर्वोतम से तात्पर्य उनकी भौतिक सूझबूझ से है, उनका अधिक अनुकरण होने से नहीं ।